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हमारे बिछुड़े भाई

हमारे बिछुड़े भाई

– गंगाप्रसाद उपाध्याय

यह भली-भाँति सिद्ध हो चुका है कि पुराने जमाने में दुनियाँ भर में हिन्दू (आर्य्य) जाति रहती थी और वेद को मानती थी, परन्तु आज हिन्दुस्तान में भी एक तिहाई से अधिक लोग वैदिक-धर्म त्याग बैठै हैं, और चोटी जनेऊ रखने वाले तथा गौ की रक्षा करने वालों की संखया दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। इसके मुखय कारण दो हैंः- पहला तो यह है कि हिन्दुओं ने अपने वैदिक धर्म का उपदेश दूसरों को करना छोड़ दिया। दूसरा जब कभी कोई जबरदस्ती मुसलमान या ईसाई बना लिया गया और उसने अपने धर्म में आने के लिये इच्छा प्रकट की तो उसी के भाइयों ने उसे यह कह कर दुत्कार दिया कि अब तुम सदा के लिये गिर गये, हिन्दू धर्म में वापिस नहीं आ सकते। जब दूसरे धर्म वालों को यह पता लगा कि हिन्दू धर्म ऐसा कच्चा धागा है कि फूंक मारते ही टूट जाता है तो उन्हें हिन्दुओं को अपने धर्म में मिलाने में बड़ी आसानी हो गई। अगर किसी भूले भटके को जबरदस्ती खाना खिला दिया या मुँह में थूक दिया तो उस बेचारे को मुसलमान बनना ही पड़ा। हिन्दुओं ने तो उसे अपने में से निकाल कर फेंक दिया। यदि किसी स्त्री का किसी ने सतीत्व भंग कर दिया तो उसके घर वालों ने उनको उनके बिगाड़ने वालों के  सुपुर्द कर दिया। अब तो दूसरे धर्म वालों की चढ़ बनी। बिना परिश्रम के ही उनके धर्म वालों की संखया बढ़ने और हिन्दुओं की संखया घटने लगी। मुसलमानी राज्य के समय लाखों ऐसे हिन्दू थे जो बलात् मुसलमान बना लिए गये। इनको मुसलमानी धर्म तो पसन्द न था, परन्तु हिन्दू उनको अपने में रहने नहीं देते थे। इसलिये उन बेचारों में से बहुत से तो मुसलमान हो ही गये। परन्तु लाखों ऐसे राजपूत भी थे जिनको हिन्दुओं में वापिस आने की बड़ी लालसा थी। मुसलमानी धर्म तथा संस्कारों को ग्रहण करने में उनको ग्लानि होती थी। उनके बाप दादों ने गौ को माता कहकर पुकारा था। मुसलमानी धर्म में रहकर वह गाय की कुर्बानी नहीं कर सके। उनके बाप दादों ने चोटी रखी। इसलिये चोटी कटाने में उनका जी दुखता था। मुसलमानी धर्म में चचेरे भाई बहिन का विवाह धर्मानुसार समझा जाता था। हिन्दुओं में एक गोत्र में विवाह महापाप समझते थे। मुसलमानों में जिस लोटे में पाखाना जाते थे उसे बिना मिट्टी से साफ किये पानी पी सकते थे। हिन्दुओं को इन बातों से सैकड़ों पीढ़ियों से घृणा थी। ऐसी दशा में इन लोगों की बड़ी मुश्किल थी। एक ओर उनकी रुचि मुसलमानी धर्म में न थी। दूसरी ओर उनके हिन्दू रिश्तेदार उनको अपने में मिलाने के लिये राजी न थे। अब उन्होंने एक उपाय सोचा। वे मुसलमान तो न हुये परन्तु उन्होंने अपने को ‘नौ मुस्लिम’ (नये मुसलमान) या अधवरिया कहना शुरु किया। उन्होंने अपने रस्म रिवाज हिन्दुओं के से ही रखे। वे राम राम कहते, हिन्दुओं की तरह चौका लगाकर खाना खाते, विवाह शादी हिन्दुओं की भाँति करते, अपने नाम हिन्दुओं की तरह ‘‘सिंह’’ पर रखते, परन्तु विवाह में कभी-कभी मुसलमान मौलवी को भी बुला लेते थे। मौलवी को कभी-कभी बुला लेने से उस समय के राज कर्मचारी उनको मुसलमान समझकर अत्याचार न करते थे। दूसरी बात यह थी कि मुसलमान समझते थे कि अब ये हिन्दू धर्म में जा ही नहीं सकते। समय पाकर इनको मुसलमान ही होना पड़ेगा। इस प्रकार लाखों राजपूतों ने जिनको मलकाना कहा जाता है अपनी एक अलग जाति बनाकर कई सौ वर्ष इस मुश्किल के साथ गुजार दिये जैसे दाँतों के बीच में जीभ होती है। इधर इनको मुसलमानी धर्म से ग्लानि, उधर हिन्दुओं को उनसे घृणा। करते तो क्या करते। ऐसे नौ मुस्लिम आगरा, एटा, इटावा, मथुरा, फर्रुखाबाद गिरगाँव, दिल्ली, भरतपुर आदि प्रान्तों में लाखों हैं। कई हिसाब लगाने वालों ने तो इनकी संखया 27 लाख तक लिखी है। आगरा जिले के सरकारी गजेटियर में लिखा है ‘‘धर्म परिवर्तन किये हुये हिन्दुओं के अनेकों वंशज इस जिले में सर्वत्र पाये जाते हैं पर कारोली तालुके के छः गाँवों में इनकी विशेष बस्ती हैं। इसके बाद मथुरा, एटा और मैनपुरी जिलों में भी इनकी खासी बस्ती हैं। ये मलकाना कहे जाते हैं। ये धर्म परिवर्तन किये हुये राजपूतों की श्रेणी में रखे जाते हैं? भिन्न-भिन्न स्थानों में वे अपनी भिन्न-भिन्न उत्पत्ति बतलाते हैं, पर इसमें सन्देह नहीं कि उनके पूर्व पुरुष उच्चवंश सभूत राजपूत जमींदार थे। यद्यपि दुख के साथ वे अपने को मुसलमान कहते हैं, पर पूछने पर अपनी पहली जाति ही बतलाते हैं और मलकाना के नाम से पुकारा जाना नहीं चाहते। उनके नाम हिन्दुओं के से होते हैं। वे हिन्दू मन्दिरों में पूजा करते हैं और उनके  आपस के शिष्टाचार का शबद ‘‘राम-राम’’ है। वे शिखा रखते हैं और अपनी ही जाति में याह करते हैं और मियाँ ठाकुर कहलाना चाहते हैं।’’ इससे सिद्ध है कि मलकाने राजपूत हिन्दू ही हैं। बहुत से मुसलमान लोग इनको पक्का मुसलमान बनाने के लिये इनमें पहुँचे और तहकीकात करके जो रिपोर्ट मुसलमानी अखबारों में दी उनसे भी यही सिद्ध होता है।

कु. मुहमद अशरफ साहब, बी.ए. (अलीगढ़) सहयोगी जमींदार लिखते हैं ‘‘मुस्लिम राजपूतों की बसावट जिला आगरा और मथुरा के निकट पाँच छः लाख के लगभग है…..साधारणतया नाम ‘सिंह’ और ‘नारायण’ पर होते हैं। रीति रिवाज में सब हिन्दू हैं इनमें कोई मुसलमानीपन नहीं। गौरी, खिलजी या औरङ्गजेब के समय में इनके पूर्वज मुसलमान हुए थे……ये ग्राम 25 के लगभग हैं।’’

मुस्तफा रजा कादर सदर बफर इस्लाम बरेली आगरा से ‘वकील’ ‘अखबार’ अमृतसर को लिखते हैं-उनके नाम हिन्दुओं के से हैं, सिर पर चोटी रखते हैं। न अपना बर्तन किसी को देते हैं, न दूसरों का स्वयम् व्यवहार करते हैं।

ऐसे लोगों की उनके हिन्दू भाइयों ने बहुत दिनों तक परवाह न की और हिन्दुओं की दिन-प्रतिदिन कमी ही होती रही। परन्तु जब आर्यसमाज ने और विशेषकर आर्यसमाज के उपदेशक शिरोमणि श्री धर्मवीर, पं. लेखराम ने अन्य धर्मावलबियों की शुद्धि करके वैदिक-धर्म में मिलाना आरमभ किया और सैकडों चोटी-विहीन शिरों पर चोटी रखाकर वैदिक-धर्म का अमृतपान उनको कराया, उस समय से मलकाना राजपूत भी फिर अपनी पुरानी बिरादरी में लौटने के स्वप्न देखने लगे और उनकी लालसा दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही गई। वह केवल यह चाहते थे कि उनके पुराने रिश्तेदार राजपूत उनको अपने में मिला लें। यह मामला बहुत दिनों तक क्षत्रियों के समुख उपस्थित रहा, परन्तु 30 अगस्त 1922 ई. की क्षत्रिय उपकारिणी महासभा की प्रतिनिधि सभा की बैठक बनारस में हुई। अध्यक्ष का आसन माननीय राजा सर रामपाल सिंह साहब के.सी.आई., मेबर स्टेट कौंसिल ताल्लुकेदारान सभा अवध ने ग्रहण किया। उसमें इस आशय का प्रस्ताव किया गया कि जो राजपूत शाही समय में बलात् मुसलमान बनाये गये थे, परन्तु उनके वंशज अब फिर अपने धर्म और बिरादरी में वापिस आना चाहते हैं, उनको शुद्ध करके बिरादरी में मिला लिया जाये। फिर 29 दिसबर 1922 को क्षत्रिय प्रतिनिधि सभा की बैठक आगरा में लेफटिनेण्ट राजा दुर्गानारायणसिंह जी तिरवा (फर्रुखाबाद) नरेश के सभापतित्व में हुई और उस समय क्षत्रिय जनता की समति जानकर मलकाने राजपूतों को बिरादरी में मिला लेने का प्रस्ताव सर्वसमति से स्वीकार किया गया। इसके बाद क्षत्रिय महासभा का 26 वाँ वार्षिकोत्सव 31 दिसमबर को आगरा में श्रीमन् राजाधिराज सर नाहर सिंह जी के.सी.आई.ई. शाहपुराधीश की अध्यक्षता में हुआ। उसमें उपर्युक्त प्रस्ताव होने पर सर्व समति से स्वीकृत किया गया। इसे स्वीकृति की ही देर थी। स्वीकृति पाते ही मलकान राजपूतों को शुद्ध करना प्रामरभ हो गया।

इच्छा तो दोनों ओर थी ही, केवल संस्कार की कसर थी। सो शुद्धि-सभा ने पूरी कर दी। श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली, महात्मा हंसराज जी लाहौर से तथा कई सनातनधर्मी जैनी तथा अन्य महाशयों ने मिलकर कार्य करना आरमभ किया। हवन किये गये, जनेऊ दिये गये, और मलकाना राजपूतों को फिर अपनी बिरादरी में मिला लिया गया। समस्त हिन्दू जाति में इस शुद्धि से कितनी जागृति हुई है, उसके समाचार पत्रों में छपते ही रहते हैं। हम यहाँ केवल ‘‘अभयुदय’’ से कुछ उद्धृत करते हैंः-

‘‘अब आशा प्रबल होती है कि हिन्दू जाति फिर एक बार शक्तिशाली होगी। हिन्दू भाइयों ने हिन्दू-धर्म और हिन्दू-जाति की लाज रख ली। जो साढ़े चार लाख राजपूत किसी समय में दबाव से या अपनी कमजोरी से मुलसमान हो गये थे, उनको शुद्ध कर गर्भ में ले लेने का हिन्दू जाति जोरों से प्रयत्न कर रही है। वास्तव में जीती जागती जाति का यह एक ज्वलन्त प्रमाण है कि यह गैरों को अपना ले और अपना-सा बना ले। हिन्दू जाति का इतिहास यदि देखा जाये तो यह छिपा नहीं है कि कितने अवसरों पर इसने दूसरों को अपने गर्भ में ले लिया था। इसके विपरीत इतिहास की यह भी घोषणा है कि जिस दिन से हिन्दू जाति ने अपनी संखया में इस तरह की वृद्धि का खयाल छोड़ा, उसी दिन से उन्नति के मार्ग की ओर उसकी पीठ हो गई। आज हिन्दू जाति को फिर अभिमान करने का अवसर प्राप्त है, क्योंकि हमारा दृढ़ विश्वास है कि इन साढ़े चार लाख बिछुड़े हुये भाइयों के मिलने के साथ ही ऐसे ही अन्य भाइयों के भी मिलने से हमारा सौभाग्य-सूर्य शीघ्र ही गगन मंडल में चमकता हुआ दिखाई देगा। हम हिन्दू जाति को इस अवसर पर बधाई देते हैं।’’

बहुत से लोग समझते हैं कि इसमें केवल आर्यसमाजी काम करता है, परन्तु यह कहना भूल और भ्रम है। शुद्धि की स्वीकृति सभी सभाओं में दी हुई है। कुछ सभाओं के नाम यहाँ दिये जाते हैं-सनातनधर्मी सर्वप्रधान संस्था भारत-धर्म महामण्डल ने मलकाना राजपूतों की शुद्धि को पास कर दिया है। जिस अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास हुआ, उसके सभापति श्री दरभंगा नरेश स्वयं थे। कबीरमठ और शारदा पीठ के जगद्गुरु शङ्कराचार्य जी पहले ही शुद्धि की व्यवस्था दे चुके हैं। महाराष्ट्र परिषद्, साधुमहासभा, गुर्जर महासभा, जाट महासभा, राजपूत क्षत्रिय महासभा ने भी हर्षपूर्वक शुद्धि को अपनाने का निश्चय किया है। अमृतसर, लाहौर, लायलपुर आदि शहरों से सनातनी पण्डित लिखित व्यवस्था दे चुके हैं। सनातन धर्म की प्रसिद्ध वक्ता श्री पण्डित दीनदयालु शर्मा आगरा में पधारे और शुद्धि के कार्य को न केवल पसन्द किया, किन्तु उसमें भाग लेने का विचार-निश्चय किया था।

शुद्धि के कार्य में वह कौन-सा गुण है, जिसने आज भारतवर्ष की हिन्दू जाति को आकर्षित कर रखा है? वस्तुतः अपने सजातीय लोगों को अपने में मिलाने से सभी जीती जागती जातियाँ खुश होती हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने दूसरे भाई से मिलकर खुश हो। केवल कुत्ता ही ऐसा प्राणी है, जो दूसरे कुत्ते को देखकर भौंकता है। इसलिये यदि हिन्दू लोग अपने बिछुडे भाइयों को मिलाने से प्रसन्न होते हैं, तो उसमें आश्चर्य ही क्या? आश्चर्य इस बात का है कि हिन्दू जाति इतने दिनों तक क्यों सोती रही और अपने भाइयों के मिलाने में क्यों तत्पर न हुई, परन्तु आज हिन्दू जाति के बच्चे-बच्चे को शुद्धि के गुण मालूम हो गये हैं। सब को भली प्रकार यह मालूम हो गया है कि यदि हम शुद्धि में भाग न लेंगे तो एक दिन रही सही हिन्दू जाति सृष्टि से उड़ जायेगी। राम और कृष्ण के नाम भूमण्डल पर न रहेंगे। जनेऊ और चोटी का चिह्न संसार से मिट जायेगा। आर्य-सभयता का वृक्ष जड़ से काटकर फेंक दिया जायेगा। अब हिन्दू लोग सोते से जाग बैठे हैं। उनके हृदय में जाति उन्नति की लगन काम करने लगी है। शुद्धि का प्रश्न उनके जीने मरने का प्रश्न है। शुद्धि का काम छोड़ा और हिन्दू जाति की मृत्यु आई।

पर हमारे मुसलमान भाई रुष्ट हैं। तरह-तरह के इल्ज़ाम लगा रहे हैं और हमारे अदूरदर्शी हिन्दू भाई भी यह कहने लगे हैं कि शुद्धि बन्द हो, क्योंकि मुसलमान नाराज होंगे, परन्तु यह कितनी भूल है। मुलसमान सैकड़ों हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बनाते हैं, उस समय तो हिन्दू कुछ नहीं करते। यदि हिन्दू अपने बिछुड़े भाइयों को गले लगायें तो न्यायशील मुसलमानों को रुष्ट नहीं होना चाहिये। अपना धर्म पसन्द करने के लिए हर एक को स्वतन्त्रता है। और इस स्वतन्त्रता को छीनना पाप है। हम किसी की गर्दन पर तलवार रखकर यह नहीं कहते कि ‘शुद्ध हो जाओ’, परन्तु जो स्वयं शुद्ध होना चाहते हैं, उनको तो रोकना ही महापाप है। कुछ लोग कहते हैं कि मुसलमान लोग शुद्धि से चिढ़कर अधिक गो-हत्या करेंगे। मुसलमानों ने भी यही धमकी दी है, परन्तु हिन्दुओं को 6 मास की राह चलकर साल भर की राह न चलनी चाहिये। प्राचीन काल में जब मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किया तो अपनी सेना के आगे गायें खड़ी कर देते थे। वह समझते थे कि हिन्दू तो गायों को बचाने के लिये हम पर हथियार न चलायेंगे और हम हिन्दुओं को मार लेंगे। यही हुआ और हिन्दू जब हार गये तो अन्य गायों को भी न बचा सके। यही चाल मुसलमान लोग अब चल रहे हैं। यह हमारे अनजाना भाई इस धमकी में आ जाते हैं। वह यह नहीं सोचते कि ऐसी धमकियों में आकर कब तक दबते जायेंगे। हर बात पर मुसलमान ऐसी धमकी दिया करेंगे। यह गोरक्षा कितने दिन चलेगी। सबसे अच्छा उपाय गौरक्षा का यही है कि शुद्ध होने वालों को शुद्ध करके भविष्य में गौहत्या का बीज ही मिटा दो।

बहुत से कहते हैं कि शुद्धि नई बात है, परन्तु इतिहास देखने से पता चलता है कि जब हिन्दू प्रबल थे तो दूसरे देशवासियों को धर्म में मिला लेते थे। सिकन्दर के साथ बहुत से यूनानी भारतवर्ष में आये। हूण लोग भी बहुत से आये, परन्तु उनकी अलग जाति नहीं मिलती। वे सब हिन्दू ही हो गये। जब हिन्दू जाति गिरने लगी, उस समय इसने दूसरों को मिलाना छोड़ दिया। 1911 की ‘मर्दुमशुमारी’ की रिपोर्ट में लिखा है कि सौ वर्ष से कम दिन हुए कि बबई प्रान्त के उरप और वरप अग्री (urap and varap agris ) हिन्दू जो ईसाई हो गये थे, फिर हिन्दू हो गये और इसी जिले के कृपाल भन्डारी लोगों को पुर्तगालों ने बलात् ईसाई कर लिया था, परन्तु ये फिर हिन्दू हो गये। बड़ोदा के सुपरिंटेण्डेण्ट ने लिखा है कि तीन सौ वर्ष हुये कुछ लोग मुसलमान हो गये थे, परन्तु वे धीरे-धीरे रामानन्दी और स्वामीनारायण के मत में हो गये। इस प्रकार हिन्दुओं में प्रायश्चित् कराके शुद्ध करने का रिवाज नया नहीं है और इस समय तो हिन्दू जाति को बचाने का एक ही मात्र उपाय है-तन-मन-धन से शुद्धि के काम में भाग लिया जाये। प्रत्येक गौ-भक्त और शिखा-सूत्र धारी हिन्दू का कर्त्तव्य है कि जो जब कभी शुद्ध होना चाहे तो झट ही किसी शुद्धि सभा द्वारा उसको शुद्ध कर लेना चाहिये और जो कुछ धन या शक्ति उसके पास हो, उससे यथासमय शुद्धि की सहायता करनी चाहिये। यदि आपने अभी तक शुद्धि सभा की सहायता नहीं की, तो देर न लगाइये और तुरन्त ही अपना कर्त्तव्य पालन कीजिये। जो पैसा आप शुद्धि-सभा को देते हैं, उससे जन्म जन्मान्तर की गौ-सन्तान की रक्षा होती है। वे देश का उद्धार होता है और हिन्दू जाति की उन्नति होती है। सोचो और देर न करो। यह समय है, समय पर चूके और गये।

कुछ लोगों ने आजकल यह कहना आरमभ किया है कि हम जानते हैं कि शुद्धि अच्छी चीज है। हम यह भी जानते हैं कि हिन्दुओं का अधिकार है कि उनके धर्म में मिलने वालों को मिला लिया जाये, परन्तु इस समय जब कि हिन्दू और मुसलमानों में मेल है, इसलिये शुद्धि को बन्द कर देना चाहिये, नहीं तो हमारे मुसलमान भाई हमसे रूठ जायेंगे। हमको ऐसा कहने वालों की बुद्धि पर हँसी आती है। यदि यह मानते हो कि हिन्दुओं को अपने धर्म में मिला लेने का उसी प्रकार अधिकार है जैसे मुसलमानों को, तो मेल के समय इस अधिकार को काम में लाने में क्या हानि! हमने मेल तो इसीलिये किया है कि हमारे अधिकार सुरक्षित रहें। यदि मेल के समय भी अधिकार पद-दलित किये गये तो ऐसे मेल से लड़ाई भली। मेल इसीलिये किया जाता है कि परस्पर एक दूसरे के अधिकारों की रक्षा हो। यदि हमने इस समय शुद्धि का काम छोड़ दिया तो कब करेंगे। क्या हिन्दुओं को शुद्धि का काम शुरु करने के लिये उस समय का इन्तजार करना चाहिये, जब हिन्दू मुसलमानों में लड़ाई का समय आ जाये। यदि हमारे मुसलमान भाइयों में न्याय है तो उनको बुरा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि जिनकी शुद्धि की जा रही है वह हिन्दू ही हैं और अपने भाइयों में मिलना चाहते हैं।

कुछ मुसलमान भाई कहते हैं कि यदि किसी एक परिवार के चार आदमी शुद्धि के लिए तैयार हुए और एक न हुआ तो बेचारे पर बड़ा अन्याय होगा, परन्तु वह यह नहीं जानते कि आज तक लाखों और करोडों हिन्दुओं को मुसलमान कर लिया गया, उस समय यह दलील कहाँ गई थी। आज सैकड़ों लोग अपने माँ-बाप को छोड़कर ईसाई मुसलमान हो जाते हैं, फिर लोग इनको क्यों दोष नहीं देते। मुसलमान प्रचारकों को क्यों नहीं बन्द कर दिया जाता।

बात यह है कि इस समय हिन्दू जाति में जीवन के चिह्न पैदा हुये हैं। लोहा ठण्डा हो गया तो उसको पीटने से क्या बनेगा। अभी समय है। शीघ्रता कीजिये और शुद्धि-सभा में भाग लिजिये।

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मुसलमान हमारे हिन्दू भाइयों को मुसलमान बनाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। इसन निजामी ने लिखा है कि जो मुसलमान दस हिन्दुओं को मुसलमान नहीं बनाता, वह सच्चा मुसलमान नहीं है। हमारे हिन्दू भाइयों को भी इससे उचित शिक्षा लेनी चाहिये और जहाँ कहीं कोई मुसलमान शुद्ध होना चाहे, उसको फौरन शुद्ध कर लेना चाहिये। साथ ही यह भी प्रयत्न करना चाहिये कि हमारे भाई मुसलमानों के फंदे में न पड़ जायें। जो हिन्दू मुसलमान हो रहा हो, उसे समझाना चाहिये।

नगर-नगर में हिन्दू सभाओं का खुल जाना आवश्यक है। बिना संगठन किये हममें शक्ति नहीं आ सकती। हिन्दुओं को चाहिये कि आपस में प्रीतिपूर्वक व्यवहार करें और अपने धर्म की रक्षा करें।