ओउम
हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
विगत मन्त्र में उपदेश किया था कि हम ज्ञानी व संयमी व्यक्तियों के समीप बैठ कर ,उनसे ज्ञान पावें । अब बताया गया है कि
(क) हम कभी किसी की निन्दा न करें ।
(ख) हम सदा व्यर्थ के कार्यों से दूर रहते हुए अवकाश के क्षणों में पभु की ही चर्चा करें , प्रभु नाम का ही स्मरण करें तथा उस के ही अर्थ का चिन्तन करें । इस बात को मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है: –
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।
दधाना इन्द्र इद दुव: ॥ रिग्वेद १.४.५ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर बल दिया गया है : –
१) हम व्यर्थ में किसी की निन्दा न करें : –
हम कभी निन्दात्मक शब्द न बोलें । हम कभी किसी की निन्दा न करें । यहां तक कि हमारे मुख से कभी भूल कर भी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो , हमारे मुख से कभी किसी की निन्दा में एक भी शब्द न निकले । हम सदा वेदों के दिए उपदेश के अनुगमन में रहते हुए भद्र शब्दों का ही उच्चारण करें । हमारा सदा यह व्रत रहे कि हम सूक्तात्मक अर्थात जो वेद मन्त्र के समूह रूप सूक्त में आदेश दिये गए हैं , उनके अनुरुप चलते हुए स्तुति रुप जो कव्य दिए गए हैं , जो कथन दिए गए हैं , उन्हें ही बोलूं , उनका ही
गायन करूं ।
मन्त्र के इस प्रथम खण्ड में यह जो कुछ कहा गया है , इस सब का भाव है कि मानव जीवन तपश्चर्या का जीवन है । इस जीवन में मानव ने जब भी पग आगे बढाना है बडा ही सोच समझ कर तथा जो समाज के मंगल के लिए हो , कल्याण के लिए हो वही सब करना है । यूं ही इधर उधर भटकते फ़िरना तथा अपने खाली समय में भटकते हुए किसी की निन्दा करते रहना , किसी के अमंगल के लिए सोचते रहना उतम नहीं है । किसी की निन्दा करना धर्म नहीं अधर्म है । इसलिए हम अपने मुख से किसी की निन्दा के लिए एक शब्द का भी उच्चारण न करें । सदा दूसरों के लिए शुभ ही सोचें , शुभ ही विचारें । इस में ही भला है , इसमें ही कल्याण है । जब हम इस प्रकार की प्रतीज्ञा लेकर समाज के कल्याण के लिए कृतसंकल्प होंगे तो हमें सब ओर मंगल ही मंगल दिखाई देगा ।
२.बेकार समय व्यर्थ करने से बचो : –
मन्त्र के इस भाग से हमारे वह पूज्य पिता हमें उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हम कभी दूसरों के कार्यों में अकारण हस्तक्षेप न करें । एसा करना निन्दनीय होता है , दूसरों को कलेश पहुंचाने वाला होता है , दूसरे का तिरस्कार करने वाला , अपमान करने वाला होता है । इसलिए हमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से बचते हुए तथा दूसरों की निन्दा से बचते हुए सदा अपना जीवन चलाना चाहिए । अत: हम अनुपयोगी , अनावश्यक तथा बेकार के कामों से अपने को सदा दूर रखें ।
आज अनेक व्यक्ति अपने आप को खाली समझ कर अथवा गाडी आदि में यात्रा के समय ताश आदि खेल कर अपने समय को नष्ट करते हैं , यह उत्तम नही है । हम अपने इस बेकार समय को भी निर्माणात्मक कार्य में लगा कर अपनी हित लाभ के साथ ही साथ अन्य भी अनेक लोगों के भी हित के कार्य कर सकते हैं । इसलिए एसे बेकार के कार्यों में समय नष्ट न कर सदा उत्तम कार्यों में ही कार्यरत हों । यह ही उत्तम है, यह ही कल्याण का , प्रगति का साधन है । इस लिए मन्त्र की भावना के अनुसार बेकार के खेल खेलना तथा बेकार में गप शप करते रहना मानव की प्रगति के पथ में बाधक होता है , इसलिए एसे कार्यों से सदा दूर रहना ही उत्तम है ।
मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बढाते हुए बता रहा है कि जब कभी भी हमारे पास अवकाश के क्षण आवें , हमारे पास जब भी कभी खाली समय हो अथवा जब भी हम अपने घर के सब आवश्यक कार्यों से निवृत हो कर स्वयं को खाली समझें , जब भी हम स्वाध्याय करते हुए श्रान्त हो जाये , थक गये हों तो इस समय को हम निश्चय ही उस परम एशवर्य से युक्त पभु में लगावे , प्रभु की परिचर्चा में लगावें , प्रभु के स्मरण में लगावें , प्रभु की स्तुति में लगावें , पभु के समीप बैठकर इस समय को व्यतीत करें । इस प्रकार हम सदा ही प्रभु परिचर्चा को , प्रभु स्तवन को , प्रभु संवाद को धारण करने वाले हों तथा
अपने चित की वृतियों को सदा ही प्रभु के साथ जोडे रखे , यह ही क्ल्याण का साधन है ।
डा. अशोक आर्य