हम उत्तम मन वाले बनें
ड. अशोक आर्य
मानव जीवन में वायु , सूर्य तथा जल पवित्रता आने वाले हैं । इस पवित्रता के आरण ही हममएं यग्य की प्रव्रतियां आती हैं । इससे हम में उत्तम रुधिर्तथा रस आदि धातुएं बट कर शरीर को स्व्स्थ रखती हैं तथा हम दिव्य गुणों से युक्त होकर उतम मन वाले बनते हैं । इस व को यजुर्वेद के मन्त्र संख्य १२ में इस प्रकार कहा गया है :-
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण
सूर्यस्य रश्मिधि:। सेवीरापोऽअग्रेपुवोऽग्रंऽइम्म्द्य यग्यं नयताग्रे
यग्य्पति सुधातु यग्यपतिं देवयुवम । यजुर्वेद १.१२ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा पति और पत्नि को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं कि :-
१. पवित्र झिवन वाले बनो :-
परिवार का मुक्य केन्द्र पति और पत्नि ही होते हैं । यह दोनों जैसे होंगे आगे आने वाली उनकी प्रजा भी वैसी ही होगी । उतम प्रजा के लिए माता पिता का भी उतम होना आवश्यक होता है । इस लिए मन्त्र यहां से ही अपने उपदेश का आरम्भ करते हुए कह रहा है कि हे इस परिवार के पति व पति ! अर्थात हे माता पिताओ ! तुम दोनों अपने जीवन को पवित्र बनाने वाले बनो । अपने जीवन को पवित्रता से भर लो ।
२.तुम मानस, बौद्धिक तथा शारीरिक उनति प्राप्त करो :-
प्रभु मानव को पवित्र बनने का उपदेश करते हुए दूसरे बिन्दु पर कह रहे हैं कि तुम दोनों विष्णु के उपासक बनो। अर्थात तुम व्यापक रुप से तथा उदार व्रति वाले बनें । जब तक मानव में व्यापकता से उदारता नहीं आती, तब तक वह विष्णु रुप ब्रह्म का उपासक बन ही नहीं सकता । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि विष्णु की उपासना के लिए व्यापक उदारता अपने अन्दर लावो । विष्णु के समबन्ध मे मन्त्र उपदेश कर रहा है कि विष्णु उन लोगों का साथ देता है जो उसके साथ तीन कदम बटाते हैं । यह तीन कदम बटाने वाले विष्णु को साक्शात कर लेते हैं या यूं कहें कि विष्णु ही बन जाते हैं । यह तीन कदम कौन से हैं ? इन तीन कदमों में प्रथम कदम का नाम है शारीरिक उन्नति , दूसरे का नाम है मानस उन्नति तथा तीसरे कदम का नाम है बोद्धिक उन्नति । जो मानव शारीरिक रुप से स्वस्थ है , जो व्यक्ति मानसिक रुप से भी स्वस्थ है तथा जिसके पास तीव्र बुद्धि है , एसा व्यक्ति संसार के श्रेष्ट लोगों में गिना जाता है तथा उसके सब कार्य सरलता से सिद्ध होते हैं । इस लिए मानव के द्वारा विष्णु की और जाने वाले यह तीन कदम ही उसकी उतमता के , उसकी उन्नति के प्रतीक होते हैं ।
इस बिन्दु को ही आगे बटाते हुए मन्त्र कह रहा है कि तुम दोनों ने प्रयत्न पूर्वक अपने शरीर को स्वस्थ रखा है, अपने मन को निर्मल किया है तथा अपनी बुद्धि को प्रयत्न पूर्वक तीव्र व उज्ज्वल बनाया है । जब तुम ने यह सब करने में सफ़लता पा ली है तो इसका लाभ भी निश्चित रूप से आप को मिलने वाला है ।
३. पवित्र हो उन्नति पथ के पथिक बनें :-
इस मन्त्र में तीसरा उपदेश इस प्रकार दे रहे हैं कि वह प्रभु उत्पादक है । उस ही के कारण इस जगत की उत्पति हुई है । इस उत्पन्न हुए जगत मेम ही तुम भी एक हो । अत: मैं इस जगत के निवासी तु सब को पवित्र करके उन्नति के पथ पर अग्र्सर करता हूं ।
अब प्रश्न उटता है कि प्रभु हमें जो पवित्र करने के लिए , पवित्र बनने के लिए प्रेरित कर रहा है , वह कौन से साधन हैं , जिससे हम पवित्र होते हैं । इस सम्बन्ध में मन्त्र कह रहा है कि :-
क) वायु पवित्रता का साधन है :-
मन्त्र कहता है कि वायु पवित्र होती है क्योंकि अछिद्र व आकाश से रहित होती है प्रभु कहते हैं कि मैं तुझे इस वायु से पवित्र करता हूं । वायु समग्र आकाश में होने से आकाश में एसा कोई स्थान नहीं रहता जहां किंचित भी खाली स्थान हो , इस लिए इस वायु के कारण आकाश में कहीं कोई छिद्र नहीं रहता , तब ही तो यहां वायु को अछिद्र कहा गया है । इतना ही नहीं अपितु यह वायु ही है जो हमारे शरीर में प्रवेश कर हमारे अन्दर आक्सीजन के द्वारा हमारे रक्त को शुद्ध करने का कार्य करती है । जिस का रक्त शुद्ध होता है , वह ही स्वस्थ होता है । इस प्रकार वायु हमारे उतम स्वास्थ्य का साधन है ।
ख) सूर्य भी पवित्रता का साधन है :-
जिस प्रकार वायु हमारे अन्दर पवित्रता , शुद्धता ला कर हमें स्वस्थ करती है , उस प्रकार ही हमारे लिए पवित्रता का दूसरा साधन सूर्य होता है । वह पिता उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे जीव ! मैं तुझे सूर्य की किरणों के द्वारा पवित्र करता हूं । सूर्य की किरणों में रोगाणुओं के नाश की अद्भुत शक्ति होती है । यह किरणें जब हमारी छाती पर पडती हैं तो हमारे शरीर में स्थित रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार हमारे अन्दर जो रोग की गन्दगी होती है , यह किरणें उसे धोकर शुद्ध कर देती हैं । इसलिए ही धूप स्नान का उपदेश चिकित्सक देते हैं तथा नवजात शिशु को भी प्रतिदिन धूप में कुछ समय रखने के लिए कहा जाता है ।
ग) जल भी पवित्रता का साधन है :-
जिस प्रकार वायु ओर सूर्य हमें पवित्र करने के साधन हैं , उस प्रकार ही जल भी हमारे लिए पवित्रता लाने का एक अन्य मुख्य साधन है । इस में इन दोनों से भी अधिक दिव्य गुणों से युक्त शक्ति होती है । जल का कार्य है ऊंचे से नीचे को चलना । इस कारण ही यह जल सदा समुद्र की और बटता रहता है । निरन्तर यात्रा में ही रहता है । इस कारण ही यह सब से अधिक पवित्रता लाने का कारण होता है । इस कारण यह जल सब प्रकार के रोगों का औषध होता है ।
इस जल को ही प्रेरित करते हुए प्रभु कहते हैं कि सब को पवित्र करने वाले इस जल से हमारे अन्दर यग्य की भावना बटे । जल का कार्य है पवित्रता लाना । जब हम जल के प्रयोग से अपने को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं तो हमारे अन्दर परोपकार की , यग्य की भावना बलवती हो जाती है । अत: यह यग्यीय भावना को बटाने वाला होता है । इस लिए प्रभु कहता है कि इस जल के कारण जो लोग यग्यों को करते हैं , वह इस में जल के ही समान निरन्तरता बनाये रखें । यग्यों को किसी भी व्यवधान के आने पर भी न छोडें तथा यग्यीय जीव निरन्तर उन्नति को प्राप्त करे ।
यग्य में अभ्युदय व निश्रेयस की अपार शक्ति होती है । मन्त्र कहता है कि यह यग्य उसके अर्थात इसे अपनाने वाले जीव के अभ्युदय व नि:शेयस की शक्ति बने , साधक बने । इस यग्य से ही हमारी धातुएं भी पैदा होती हैं तथा बटती हैं । इसलिए कहा है कि यग्य हमारे शरीर की सब धातुओं को दोष रहित रखे , निर्दोष करे । धातुओं की निर्दोषता ही के कारण यह यग्य मनुष्य के जितने भी ग्यात ही नहीं अग्यात रोग हैं , उनसे भी मुक्त करता है । हम जानते हैं कि हमारे शरिर के अनेक रोग , जिनका हमें ग्यान होता है , उनसे मुक्ति के लिए हम तदानुरुप सामग्री आदि की आहुति देकर रोग मुक्त होते हैं किन्तु हमारे शरीर में कई एसे रोग भी विकसित हो रहे होते हैं ,जिन का अभी तक हमें पता ही नहीं होता ,जब तक हमें इन रोगों क पता चलता है तो यह विकराल हो चुके होते हैं । इस प्रकार के रोग , जिनका अभी हमें पता ही नहीं होता कि यह रोग हमारे शरीर में विक्सित हो रहे हैं , इन का भी यग्य के कारण हनन हो जाता है तथा हम रोग मुक्त हो जाते हैं । यह सब जल का ही प्रभाव होता है । इस लिए मन्त्र कह रहा है कि हे जलो ! तुम इस यग्यपति अर्थात प्रतिदिन यग्य करने वाले प्राणी को दिव्य गुणों से संयुक्त करदो , भर दो ।
डा. अशोक आर्य