ओ३म
हम उत्तम बुद्धि व ज्ञान की वाणियों का सेवन करें
डा. अशोक आर्य
मानव जीवन में प्राणायाम का विशेष मह्त्व है । इसलिए इसे पुरुदंसस कहा गया है । यह प्राणायाम ही हमें उत्तम बुद्धि देने वाला है , हमें उत्तम बुद्धि रुपि धन का भण्डारी बनाता है , इस धन से हमें सम्पन्न करता है। उत्तम बुद्धि का भण्डारी बनाकर प्राणायाम के ही कारण ग्यान की वणियों अर्थात वेद के आदेश का सेवन करने वाला यह हमें बनाता है । प्राणायाम के ही कारण हम ग्यान की वाणियों का सेवन कर पाते हैं । इस बात का परिचय इस मन्त्र के स्वाध्याय से हमें इस प्रकार मिलता है : –
अश्विना पुरुदंससा नरा श्वीरया धिया ।
धिष्ण्या वनतं गिर: ॥ ऋग्वेद १.३.२ ॥
इस मन्त्र मे चार बातों पर प्रकाश डाला गया है :-
१. प्राण अपाण गतिशील रहें
मन्त्र कह रहा है कि हे प्राण तथा अपाणों ! आप हमारे पालक बनो । आप ही हमारे पूरक कर्मों को करने वाले बनो । इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि हमारे प्राण तथा अपान अर्थात हम जिस श्वास के लेने व छोड्ने की क्रिया करते हैं , वह क्रिया ही हमारी पालक है, हमारा पालन करने वालई है, हमें जीवित रखने वाली है । हमारे जीवन को सुख पूर्वक चलाने वाली है । हम इस के आधार पर ही जीवित हैं । जब शवास की यह क्रिया रुक जाती है तो हम जीवन से रहित होकर केवल मिट्टी के टेले के समान बन जाते हैं । गत मन्त्र में भी लगभग इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कहा गया था कि हमारे प्राण व आपान क्रियाशील हैं । यह क्रिया ही मानव का ही नही अपितु प्रत्येक जीव का , प्रत्येक प्राणी का पालन करने वाली हों । भाव यह कि हमारे प्राण ( श्वास लेने की क्रिया ) तथा अपान ( श्वास छोडने की क्रिया) निरन्तर चलती रहे , कार्यशील बनी रहे । हम जानते ही हैं कि यह प्राण अपान ही हमारे अन्दर जीवनीय शक्ति भरते हैं । इसके बिना हम एक पल भी जीवित नहीं रह सकते । इसके बिना हम क्रियाहीन होकर मृतक कहलाते हैं ।
२. गतिमान व क्रियाशील बनें
इस प्रकार हमारे शरीर में प्राण व अपान क्रियाशील रहते हैं तो हम भी जीवित कहलाते हैं , क्रियाशील रहते हुए अपने जीवन को निरन्तर आगे लेजाने का यत्न करते हैं । अनेक प्रकार की उपलब्धियां पाने का यत्न करते हैं । सदा उन्नति के पथ पर ही अग्रसर रहने का प्रयास करते रहते हैं । यदि प्राण – अपान हमारे शरीर में गतीमान नहीं होते तो हम क्रिया विहीन हो जाते हैं , जिसे मृतक की संज्ञा दी जाती है । इस लिए मन्त्र जो दूसरी बात हमें समझाने का यत्न कर रहा है , वह है कि हमारे प्राण व अपान इस प्रकार सदा कर्म शील रहते हुए हमें आगे तथा ओर आगे ले जाने वाले बनें तथा हमारी उन्नति का कारण बनें । स्पष्ट है कि हम जीवन में जो कुछ भी पाते हैं , यहां तक कि उस प्रभु क जो हम स्मरण भी हम करते हैं तो वह भी प्राण ओर अपान के ही कारण ही लेते हैं । इसलिए हम पिता को प्रार्थना करते हैं कि हे पिता ! हमारे प्राण व आपान को सदा गतिमान, सदा क्रियाशील बनाए रखे ।
२. स्वाध्याय द्वारा सोम कण सुरक्षित करें
मन्त्र के तृतीय भाग में कहा गया है कि जब शरीर में प्राण व अपान गतिमान होते हैं तो हम भी गतिमान होते हैं , क्रियाशील होते हैं । क्रियाशील होने के कारण ही हम मे स्वाध्याय की शक्ति आती है । स्वाध्याय कर ही हम वह शक्ति पा सकते है , जिसमें जीवन है । जिसमें जीवन ही नहीं है , मात्र एक मृतक शरीरवत , लाश मात्र है वह क्या कुछ करेगा , वह तो क्रियाविहीन होता है । इस कारण किसी भी क्रिया को करने की उससे कल्पना भी नहीं की जाती । इस लिए शरीर में प्राण व अपान का निरन्तर चलते रहना आवश्यक है । जब प्राण व अपान क्रियाशील रहते हैं तो शरीर क्रिया शील रहता है तथा क्रियाशील शरीर ही कुछ करने की क्षमता रखता है । एसे शरीर में ही स्वाध्याय की शक्ति होती है तथा हम स्वाध्याय के माध्यम से अनेक प्रकार के ज्ञान का भण्डार ग्रहण करने के लिए सशक्त होते हैं । इस तथ्य पर ही मन्त्र के इस भाग मे उपदेश किया गया है कि यह हमारे प्राण तथा अपान हमें उत्तम बुद्धि देने वाले हों । जब हम प्राण तथा अपान को संचालित करते हैं तो इस की साधना से हमारे शरीर में सोम कण सुरक्षित होते हैं तथा हमारी बुद्धि को यह कण तीव्र करने का कारण बनते हैं ।
४. हमारी बुद्धि तीव्र हो
मन्त्र कहता है कि प्राण व अपान के सुसंचालन से हमारे शरीर मे बुद्धि को तीव्र करने वाले जो सोम कण पैदा होते हैं , उनसे हमारी बुद्धि तीव्र होती है । यह तीव्र बुद्धि ही होती है जो मानव को कभी कुण्ठित नही होने देती। जिस प्रकार कुण्ठित तलवार से किसी को काटा नहीं जा सकता, कुण्ठित चाकू से सब्जी को भी टीक से काटा नहीं जा सकता , टीक इस प्रकार ही कुण्ठित बुद्धि से उत्तम ज्ञान भी प्राप्त नहीं किया जा सकता । इस प्रकार ही जिन की बुद्धि कुण्ठित नहीं होती , जिन की बुद्धि तीव्र होती है , वह बुद्धि किसी भी विषय को ग्रहण करने में कुण्ठित नहीं होती , किसी भी विषय को बडी सरलता से ग्रहण कर लेती है । इस प्रकार मन्त्र कहता है कि अपनी इस तीव्र बुद्धि से हम ज्ञान की वाणियों का अर्थात वेद के मन्त्रों का सेवन करें , इन का स्वाध्याय करें , इन का चिन्तन करें , इनका मनन करें , इनको अपने जीवन में धारण करें ।
मन्त्र का भाव है कि हम अपने जीवन में प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना करें । इस प्राण साधना से ही हम तीव्र बुद्धि वाले बनें । तीव्र बुद्धि वाले बन कर हम अपनी इस बुद्धि से ज्ञान की वाणियों के समीप बैठ कर इन का उपासन करे , भाव यह कि हम वेद का स्वाध्याय करें । हम बुद्धि को व्यर्थ के विचारों में प्रयोग न कर इसे निर्माणात्मक कार्यों में लगावें ।
डा. अशोक आर्य