हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल का दूसरा सूक्त मित्रा वरुणा की आराधना के साथ समाप्त होता है । मित्रा से भाव प्राण अथवा प्राणशक्ति तथा वरुणा से भाव अपानशक्ति होने से यह सूक्त प्राण अपान अर्थात प्राणायाम अर्थात सांस की क्रिया से सम्बन्ध रखता है तथ्गा नित्य प्राणायाम करने की प्रेरणा देते हुए समाप्त होता है।
जिस मनुष्य में प्राण शक्ति है , वह ही जीवित माना जाता है किन्तु मन्त्र की भावना है कि प्राणशक्ति होन पर मनुश्य मित्र व स्नेह की व्रिति वाला होता है । यह सत्य भी है , जिसमं जीवन है , वह किसी स स्न्ह भी कर्गा तथा मित्रता भी कर्गा किन्तु यै जीवनीय शक्ति ही नहीं है क्वल शरीर
मात्र है , लाश्मात्र है तो वह्न तो किसी स स्न्हिल व्यवहार ही कर सकता ह तथा न ही किसी स मैत्री की ही क्शमता उस मं होती है ।
जब मानव की अपान शक्ति टीक से कार्य करती है तो मानव के अन्दर से दूसरों क प्रति जो द्वेष की भावना होती है , वह उससे निकल कर दूर हो जाती है । कोष्ट्बधता की व्रितिवाले लोग ईर्ष्यालु , द्वेषी तथा चिडचिडे स्वभाव वाले हो जाते हैं । साधारण भाषा में कोष्ट्बद्धता को हम कब्ज के रूप में जानते हैं । जिस व्यक्ति को कब्ज होती है , उसका व्यवहार इन सब दोषों को अपने अन्दर स्मेट लेता है । न तो उसे भूख ही लगती है न ही बातचीत अथवा लोक व्यवहार की कोई क्रिति वह कर पाता है । बस प्रत्येक क्शण उसके अन्दर दूसरों से द्वेष , बात बात पर चिटना तथा इर्ष्या की सी भावना उसमें दिखाई देती रहती है । जब उसकी यह कब्ज दूर हो जाती है तो हंस मुख चेहरे के साथ दूसरों का शुभचिन्तक हो कर खुश रहता है ।
अत: जब मानव निरन्तर अपने प्राण तथा अपान की साधना करता है तो उसमें शुभ व्रितियों का उदय होता है । अब वह सब का भला चाहने वाला बन जाता है । स्वयं भी खुश रहता है तथा अन्यों के लिए भी खुशी का कारण बनता है । इस लिए प्राणापान की निरन्तर साधना से मानव में शुभ व्रितियों का उदय होता है ।
प्राणापान साधना के जो फ़ल हमें दिखाई देते हैं , विभिन्न मन्त्रों के माध्यम से वह इस प्रकार हैं :-
१.
प्राणापान की साधना से हमारे अन्दर की सब अशुभ वासनाएं , अशुभ व्रित्तियां दूर हो जाती हैं तथा हम स्वच्छ , पवित्र हो जाते हैं ।
३.
पवित्र मानव ही प्रभु से साक्शात्कार करने के योग्य बनता है । अत: अशुभ व्रितियों के दूर होने से उसे प्रभु से साक्शात करने की शक्ति आ जाती है ।
४.
पवित्र व्यक्ति अपनी पवित्रता को बनाए रखने के लिए व्यर्थ के कार्यों में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता ,एसा करने से तो उसकी पवित्रता के ही समाप्त होने का खतरा बना रहता है । जब वह अपने समय को व्यर्थ के कार्यों में नष्ट नहीं करता तो इस समय का कहीं तो सदुपयोग करना
ही होता है । अत: वह दिव्यगुणों को पाने व बटाने में इस समय का सदुपयोग करता है , जिससे उसमें दिव्यगुण का ओर भी आधिक्य हो जाता है ।
७.
अब उसको इन दिव्यगुणों की प्राप्ती की एक ललक सी ही लग जाती है , वह इन्हें पाने का ओर अधिक यत्न करना चाहता है ताकि वह निरन्तर अपने इन गुणॊं को बटाता रह सके । इस निमित वह ग्यान पाना चाहता है , सरस्वती का आराधक बन जाता है । अब वह ग्यान का सच्चा पुजारी बन जाता है तथा अपने जो भी कार्य वह करता है , वह उसके ग्यान पाने के साधक ही होते हैं ।
१०.
जब वह सरस्वती की निरन्तर आराधना करने लगता है तथा वह उस ग्यान स्वरुप परम एश्वर्य से युक्त प्रभु की उपासना करता है , उससे समीपता बनाता है , उसके पास बैटने लगता है तो वह सुरूप हो जाता है , सुरुपता के सब गुण उस में आ जाते हैं ।
सूक्त संख्या तीन में बताए कार्यों को कर सके । अत: आओ हम रिग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सूक्त तीन पर चिन्तन करें, विचार करे इसका स्वाध्याय करें |
डा. अशोक आर्य