हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने हमें यह जीवन , यह शरीर कर्म करने के लिए दिया है । इसलिए हम प्रतिदिन वेद आदि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करें तथा जितेन्द्रिय बन विषयों से उपर उठते हुए प्रभु के दिए इस शरीर की रक्षा करें । इसे समय से पूर्व नष्ट न होने दें । इस भावना को ही स्पष्ट करते हुए यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
म आ नो मती अभि द्रुहन तनूनामिन्द्र गिर्वाण: ।
ईशानो यवया वधम ॥ रिग्वेद १.५.१० ॥
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे जितेन्द्रिय मानव ! जिस मनुष्य ने अपनी वासनाओं पर अधिकार स्थापित कर लिया हो , अपनी वासनाओं को पराजित कर दिया हो तथा जिस व्यक्ति ने अपने अन्दर के शत्रुओं को यथा काम , क्रोध, मद , लोभ , अहंकार आदि पर विजय पा ली हो , उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है । मन्त्र एसे ही व्यक्ति को सम्बोधन करते हुए उसे कह रहा है कि विगत मन्त्र के अनुसार तूंने सात्विक अन्नों का प्रयोग किया है । इन सात्विक अन्नों के सेवन से तूं सोम का रक्षण करने वाला बन गया है तथा सोम के रक्षण से तूने विषयों को पीछे छोड दिया है तथा कहा भी है कि जो लोग विषयों के पीछे पड़े होते हैं, वासनाओं में दुबे रहते हैं , वासनाओं में डूबे होने के कारण जिन्हें अपनी ही सुध नहीं होती । एसे लोग सदा बिना पुरुषार्थ के सब कुछ पाना चाहते हैं | इस के लिए दूसरों का बुरा ही चाहते हैं , दूसरों के धन पर अधिकार जमाने का यत्न तथा दूसरों की सम्पति पर सदा बुरी नजर रखते हैं ।
विषय वासनाओं के यह गुलाम कभी किसी के हित के लिए तो कार्य कर ही नहिंसकते अपितु दूसरों को मारने में भी आनन्द का ही अनुभव करते है क्योंकि दूसरे को मार कर ही वह उसके धन पा सकते हैं । मन्त्र कहता है कि हम न तो ताम्सिक अन्न का ही सेवन करें तथा न ही एसे अन्न का सेवन करने वालों के हाथों हम अपने नाश को प्राप्त करें कितु तामसिक लोग यह सब नहीं साझ सकते वह तो धन कि लालसा में मरते फ़िरते हैं | अपनी इस कुवृति को , अपनी इस लालसा को कभी छोडते नहीं | मन्त्र हमें यह ही तो उपदेश कर रहा है कि हम दुष्ट वृतियों वाले न बनेंताथा सदैव दुष्ट वृतियों को छोड़ें | उतम अन्न का सेवन करें तथा उतम सोम को सदा अपने शरीर में धारण करें | इस के साथ ही यह भी कहा है कि जो लोग दुष्ट वृतियों वाले होते हैं , वह हमारे इस शरीर का हनन करने की इच्छा कभी न करें ।
इस से एक तथ्य सामने आता है , वह है कि सात्विक आन्न का जो लोग सेवन न कर सदा ताम्सिक अन्न का ही सेवन करते हैं , वह न केवल अपने शरीर में अनेक दोषों को ही स्थान दे देते हैं , अनेक व्याधियों को अपने अन्दर स्थान देते हैं बल्कि एसे दुर्गुण भी भर लेते हैं , जो विनाश कारी होते हैं । इन दुर्गुणों के कारण संसार में उनकी सदा अपकीर्ति होती है | एक मनुष्य तो अपनी कीर्ति पाने के लिए दान , धर्म , पुन्य के कार्य करता है किन्तु यह तामसिक वृति के लोग , यह वासनाओं के गुलाम अपयश में ही अपनी इर्ति समझते हैं , अपना यश समझते हैं |
जो लोग अपकीर्ति के कार्यों को करने में ही अपना यश समझते हैं | इस प्रकार से बुराई के माध्यम से जो उनका नाम दूर तक जाता है | इस में ही अपना यश समझते हाँ , वह नहीं जानते कि वह इस प्रकार कि बुराइयों के कारण निरंतर मृत्यु को आमंत्रित कर रहे हैं | वह निरंतर मन्त्र कि भावना से दूर जा रहे हैं | भाव यह है कि मन्त्र तो हमें उपदेश कर रहा है कि हम यश व कीर्ति को पाने के लिए उतम कर्म करें ताकि हमारा शरीर असमय नष्ट न हो | समय से पूर्व मृत्यु आदि को न प्राप्त हों किन्तु हमारे यह बुरे कर्म हमें निरंतर नष्ट होने की और ले जा रहे हैं | हम निरंतर अपने आप को नष्ट करने कि और जा रहे हैं |
मन्त्र इस सम्बंध में ही उपदेश कर रहा है कि मनुष्य सदा अपनी कीर्ति को बढ़ता हुआ देखे , यश को चारों दिशाओं में फैलता हुआ देखे | इस के लिए वह सदा उतम कार्य करे, पुरुषार्थी बने तथा जितेन्द्रियता पाने के लिए उतम अन्नों का सेवन करने के साथ ही साथ जितेन्द्रिय बनने का प्रयास निरंतर करता रहे | इस से ही वह उतम यश व कीर्ति का अधिकारी बनेगा | इस लिए हम मन्त्र की शिक्षाओं के अनुरूप अपने जीवन को चालते हुए अपने शरीर को समय से पूर्व नष्ट न होने दें |
डा. अशोक आर्य