ओउम
हम ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ गुणों से संपन्न हों
डॉ.अशोक आर्य
ज्ञान , तेजा , बल और वीर्य , यह कुछ शक्तियां हैं जी किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए आवश्यक होती हैं | ज्ञान मानव को कुपथ से निकाल कर सुपथ पर ले जाता है | तेज से मानव तेजस्वी होता है . बल से मानव अपने पराक्रम दिखा कर सर्वत्र विजयी होता है तथा वीर्य भी मानव को विजयी बनाने का एक सुन्दर साधन है | जहाँ यह चारों ही हों तो सोने पर सुहागा हो जाता है | जिस के पास यह सब शक्तियां होती हैं ,उसे किसी अन्य प्रकार की सहायता की आवश्यकता ही नहीं होती | यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में हमें इस प्रकार की ही शिक्षा देते हुए कहा है कि : –
यथा मक्षा इदं मधु ,न्यन्जन्ति मधावधि |
एवा में अश्विना वर्च्स्तेजो बलामोजश्च ध्रियाताम || ,अथर्व .९.१.१७ ||
यह मन्त्र हमें अच्छे गुणों का संग्रह करने का उपदेश देता है | मधुमखियाँ समय समय पर मधु एकत्र करती रहती हैं | जब जब वह मधु लेकर आती हैं , तब तब ही वह उस का अलग से संग्रह करने की व्यवस्था नहीं करती अपितु जो मधु का संग्रह उनहोंने पहले से हीजिन थैलियों में एकत्र कर रखा होता है , उसमें ही वह मिला देती हैं | इस प्रकार वह अपने भण्डार को निरंतर बढ़ाती ही चली जाती हैं | ठीक इस प्रकार ही मनुष्य भी अपने बल, ओज ,तेज व ज्ञान को निरंतर बढ़ाता रहता है | इन बढ़ी हुयी शक्तियों के संकलन के लिए उसे हर बार अलग से व्यवस्था नहीं करनी होती बल्कि पहले से ही एकत्र भण्डार में ही इन सब का समावेश करता चला जाता है |
इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए हम पाते हैं कि मधुमखियाँ जिस मधु को एकत्र करती हैं , वह इस मधु के निर्माण में दो तत्वों को मिलाती हैं , इन का समावेश करती हैं , यह दो तत्व हैं : –
(१) पराग : –
(२) मकरंद अथवा अमृत : –
मधुमखियाँ अपने निवास से उड़कर फूलों पर जा बैठती हैं | मखियों का फूलों पर बैठने का उद्देश्य न तो विश्राम करना होता है तथा न ही आनंद लेने का | यह तो उनका नित्य का व्यापार होता है , उनका नित्य का व्यवसाय होता है , जिसे वह करती हैं | आप चकित होंगे की मधुमखियाँ भी मानव की भाँती व्यापार करती हैं | जी हाँ ! मधुमक्खियाँ भी व्यापार करती हैं | मधुमक्खियाँ ही नहीं इस सृष्टि का प्रत्येक जीव जीवन व्यापार करता है | व्यापार क्या है ? वह साधन जिससे आजीविका , पेट की तृप्ति के साधन मिल सकें | बस पेट की तृप्ति के साधन ही मधुमखियाँ फूलों पर बैठकर प्राप्त करती हैं | इस लिए ही इस कार्य को व्यापार अथवा आजीविका प्राप्त करने के अर्थ में लिया गया है |हाँ तो मधु मखियाँ इन फूलों पर जा कर बैठती हैं | फूलों में जो पराग भरा रहता है , उसे वह धीरे धीरे एकत्र कर अपनी छोटी – छोटी थैलियों में भरती चली जाती हैं | इस प्रकार पराग का वह संकलन करती हैं |
जिस प्रकार मधुमखियाँ फूलों के पराग को एकत्र कर थैलियों में भरती हैं , उस प्रकार ही वह मकरंद जिसे अमृत भी कहा जाता है , को भी फूलों में से चूसने लगती हैं | इसे चूस चूस कर वह अपने मुंह में भर लेती हैं | यह दोनों तत्व लेकर मधुमक्खियाँ अपने उस स्थान पर चली जाती हैं , जहाँ शहद अथवा मधु बना कर संकलन करना होता है | इस स्थान का नाम छाता होता है | अत: वह यह दोनों पदार्थ लेकर अपने शहद के छत्ते में चली जाती हैं | यहाँ वह एक निश्चित अनुपात में इन दोनों तत्वों को मिला कर मधु का , शहद का निर्माण करती हैं | इस प्रकार पराग व मकरंद को मिला कर वह मधु के रूप में परिवर्तित कर देती हैं | इस से स्पष्ट होता है कि इन दो पदार्थों के मिश्रण का नाम ही मधु होता है | इस मधु को संभालने के लिए मधुमखियाँ छोटे छोटे कोष्ठक बनाती हैं | इन कोष्ठकों में अपने बनाए मधु को वह भर देती हैं | ज्योंही कोष्ठक मधू से भर जाते हैं त्यों ही इस की संरक्षा के लिए वह इन कोष्ठकों को ऊपर से बंद कर देती हैं | जब जब इन्हें और कोष्ठकों की आवश्यकता होती है तब तब वह यथावश्यकता छोटे अथवा बड़े आकार के यह कोष्ठक भी निर्माण करती चली जाती हैं | इसप्रकार उनका यह संकलन , यह संग्रह निरंतर बढ़ता व संरक्षित होता चला जाता है | मानव मस्तिष्क भी इस प्रकार के विभिन्न कोष्ठकों का ही केंद्र होता है, भण्डार होता है | इन कोष्ठकों में विभिन्न प्रकार के गुणों का द्रव्य संचित होता है , संग्रह किया हुआ होता है , रखा हुआ होता है | सद्गुण इन द्रव्यों में स्निग्धता पैदा करते व बढ़ाते व विक्सित करते रहते हैं | जब कि दुर्गुणों से इन द्रव्यों कि स्निग्धता निरंतर कम होती चली जाती है | ज्यों ज्यों स्निग्धता कम होती चली जाती है त्यों त्यों इन में रुक्षता आती जाती है |
हमारा यह मन्त्र हमें ज्ञान , बल ,तेज आदि गुणों के संकलन करने के लिए निरंतर प्रयत्न करने का उपदेश देता है | मन्त्र कहता है कि हम एसा व्यवसाय करें , एसा यत्न करें , इसे क्रियाकलाप करें कि जिस से हमारे मस्तिष्क के इस संकलन में ज्ञान , तेज, बल, वीर्य आदि उत्तम तत्वों की निरंतर वृद्धि होती चली जावे |
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा जब कुछ जोड़ने का कम करता है तो हम, उसे अश्विनी के नाम से पुकारते हैं | अश्विनी का अर्थ होता है जोड़ने वाला | अत: जब हम निरंतर एसे यत्न करते हैं , जिससे हमारे ज्ञान , तेज,बल तथा वीर्य आदि अच्छे तत्वों की हमारे मस्तिष्क में वृद्धि होती चली जाती है , अच्छे तत्व निरंतर बढ़ते ही चले जाते हैं , इसलिए हम इस कार्य के लिए अश्विनी देव की शरण में जाते हैं | जब निरंतर गुण संग्रह का यत्न किया जाता है तो हमारे अन्दर ज्ञान आदि तत्व विक्सित होते चले जाते हैं | इससे ही हमारे अन्दर तेजस्विता, वर्चाविता आदि दिव्य गुणों का निरंतर विस्तार होता चला जाता है |
यह मन्त्र एक अन्य भाव के रूप में भी हमें उपदेश देता है | मन्त्र उपदेश करता है कि हमारा जीवन मधुमय बने , मधु के सामान ही मिठास हमारे जीवन से टपके , जीवन मधुर हो , यह आनंद से युक्त हो, आनंदमय हो | जब हमारा जीवन आनंदमय होगा, मधुरता से भरपूर होगा , मिठास से भरपूर होगा तो हमारे अन्दर से जो माधुर्य टपकेगा , उससे समाज पर भी मधुरता की वर्षा होगी | इस मधुरता से समाज में भी मधुरता ही आवेगी | इस का ही पाठ शतपथ ब्राहमण में करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है : –
सर्वं वा इदं मधु, यदिदं किन च || शतपथ ब्रा. ३.७.१.११ ||
जो कुछ भी है सब मधु है | इस आशय से स्पष्ट होता है कि मधुरता पूर्ण व्यवहार मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करने में सहयोगी होता है , कारण होता है किन्तु दुष्टतापूर्ण व्यवहार से बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं | इस लिए जीवन में निरंतर मधुरता भरते चले जाना चाहिए | जीवन मधुर होगा तो हमारे प्रत्येक कार्य का परिणाम भी
मधुर ही होगा |………………
डा. अशोक आर्य
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