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हा! बीत गया वो स्वर्णिम युग

हा! बीत गया वो स्वर्णिम युग

‘‘परोपकारिणी सभा के प्रधान डॉ. धर्मवीर जी नहीं रहे।’’ जिसने भी ये शबद सुने, उसने पलटकर ये जरूर कहा ‘‘मुझे विश्वास नहीं हो रहा है, किसी और से बात करवाइये।’’ कुछ लोगों की यह भी प्रतिक्रिया थी ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? कुछ दिन पहले ही तो ऋषि मेले की सूचना देने आये थे, तब तो पूर्ण स्वस्थ थे।’’ पहली बार में तो किसी को भी विश्वास नहीं हुआ, जो बता रहे थे उनको भी नहीं, जिन्होंने उस अन्त समय को अपनी आँखों से देखा- उनको भी  नहीं। सभी एक दूसरे को आशा भरी नजरों से देख रहे थे कि कोई उनसे कहे- ‘‘धर्मवीर जी को कुछ नहीं हुआ है, वे बिलकुल ठीक हैं।’’ पर यह समभव नहीं था, क्योंकि ऋषि दयानन्द, आर्य समाज, राष्ट्र और संस्कृति का एक सजग प्रहरी सदा के लिये जा चुका था। समय ठहर सा गया। लगा कि मानो कोई बुरा सपना देख रहे हों, आँख खुलते ही सब ठीक हो जायेगा। पर यह सपना है कि रुकने का नाम ही नहीं लेता, चलता ही जा रहा है। इस घटना की कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। डॉक्टर के ये बताने पर भी कि स्थिति गमभीर है- किसी को लगा ही नहीं कि ये सच है।

पर यही सच था। ऋषि दयानन्द की सेना का सबसे योग्य सैनिक शहीद हो गया था। वो अकेला ही सब पर भारी था, उसकी उपस्थिति मात्र ही ऊर्जा देने वाली थी। वे अकेले ही पूरी सेना के बराबर थे। उनकी पुत्री के शबदों में कहा जाये तो ‘‘तुरूप का इक्का’’- जीतेगा ही जीतेगा, हार का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। परिस्थिति कोई भी हो, मुश्किलों में बस एक ही समाधान था- ‘धर्मवीर’। ये केवल नाम नहीं था, सबके अन्दर विद्यमान एक अप्रत्यक्ष ऊर्जा थी, जिसके रहते कुछ भी असमभव नहीं लगता था। सभा के लिये धन संग्रह से लेकर वेद की ऋचाओं के विवेचन तक सब कुछ उनके लिये सहज था। जब वे लिखते थे तो पढ़ने वालों की आँखों खुली रह जातीं, बोलते थे तो बाकि कुछ सुनने का मन नहीं करता था। सरलता व सादगी के धनी डॉ. धर्मवीर जी में सबको जोड़कर और पिरोकर रखने की अद्भुत क्षमता थी। ऐसे व्यक्तित्व के विषय में किसी ने भी नहीं सोचा था कि वे सबको इस तरह बीच में ही छोड़कर चले जायेंगे।

वह समपूर्ण घटनाक्रम आँखों के सामने ही है। सबनेारपूर कोशिशें कीं, पर ईश्वर की व्यवस्था के सामने सभी प्रयास निष्फल होते चले गये। अपनी अन्तिम प्रचार-यात्रा पर जब वे निकले तो स्वस्थ थे। 20 सितबर को जबलपुर के वार्षिकोत्सव के लिये उनकी धर्मपत्नी ‘ज्योत्स्ना जी’ भी साथ में जाने वाली थीं। पर कुछ आवश्यक कारणों से ज्योत्स्ना जी को अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी। वे अकेले ही अपनी यात्रा पर चल दिये। जबलपुर पहुँचकर सभा के कार्यकर्त्ता सत्यप्रिय जी को बुलाकर सबसे उनका परिचय करवा दिया, अपने कार्यकर्त्ता को अपने कार्य हस्तान्तरित करते गये। जब जबलपुर का कार्यक्रम समपन्न हुआ तो भेंट में मिली सभी वस्तुयें उनके हाथ में थमाते हुये बड़े सरल, सहज भाव से बोले ‘ले, ये तू रख!’ उनकी विद्या विनय के रूप में उनके व्यवहार में भी थी। अपने लिये उन्होंने कोई व्यावहारिक दायरा नहीं बनाया हुआ था। जिससे भी मिलते थे तो लगता था कोई उनका वर्षों पुराना परिचित हो।

25 सितबर को जबलपुर का कार्यक्रम सपन्न करके गाजियाबाद के पिलखुआ आर्यसमाज में आये। यहाँ पर उन्हें सात दिन तक आर्यसमाज के उत्सव में रहना था, पर कुछ दिनों बाद वे स्वयं को अस्वस्थ अनुभव करने लगे। उन्हें लगा कि सामान्य रोग है, ठीक हो जायेगा, इसलिये उसे गमभीरता से भी नहीं लिया। अस्वस्थ होते हुये तथा कष्ट झेलते हुये भी निरन्तर व्याखयान देते रहे। अन्तिम दिन तो व्याखया भी न दे सके, पर अपनी सेवा के लिये किसी को कष्ट नहीं दिया।

कार्यक्रम की समाप्ति पर ज्योत्स्ना जी ने कहा कि ‘आप बीमार हैं तो ट्रेन से मत आना, गाड़ी भेज रहे हैं, उसमें आना।’ पर उन्होंने मना कर दिया और ट्रेन से ही अजमेर तक आये। स्टेशन पर उन्हें लेने गये तो ‘धर्मवीर जी’ गाड़ी से बाहर नहीं उतरे। कार चालक श्यामसिंह जी ने जब रेल कर्मचारी से पूछा तो उसने बताया कि एक सज्जन अन्दर ही बैठे हैं। जाकर देखा तो पता चला कि वे चलने तक में असमर्थ हैं, बस बैठे हुये हैं। वह यात्रा उन्होंने कैसे पूरी की होगी, कितनी पीड़ा हुयी होगी, लघुशंका आदि के लिये कैसे गये होंगे- ये सब सोचकर ही हृदय सहम जाता है। इतने पर भी किसी को अपनी व्यथा नहीं बतायी। ‘किसी को मेरे कारण कष्ट न हो’ बस यही सोचकर सारा दर्द अन्दर ही दबाये रखा। उनकी ऐसी अवस्था देखते ही चालक के होश उड़ गये। उनकी ऐसी स्थिति अकल्पनीय थी। उनका सामान बाहर रखकर उन्हें सहारे से बाहर लाकर बैठाया। व्हील चेयर की सहायता से कार के पास तक लाया गया। दुर्भाग्य था या कुछ और? पता नहीं। लेकिन कार स्टार्ट नहीं हो रही थी। शायद उसकी बैटरी खराब हो गई थी। ऋषि उद्यान में फोन करके दूसरा वाहन और सहायता के लिये गुरुकुल के कुछ विद्यार्थियों को आने के लिये कहा। स्थिति की गमभीरता को देखते हुये आचार्य सत्यजित् जी विद्यार्थियों के साथ स्वयं ही आये।

ऋषि उद्यान पहुँचने पर उन्हें तुरन्त हॉस्पिटल ले जाकर आपातकालीन व्यवस्था में चिकित्सक को दिखाया। दवाइयाँ दी गयीं, परीक्षण किये गये। शाम को वापस ऋषि उद्यान आ गये। भोजन में उन्होंने कुछ दूध लिया और बोले ‘‘वैसे तो मैं ठीक हूँ, पर शरीर ही साथ नहीं दे रहा।’’ दवाईयाँ लेकर बिस्तर पर लेट गये। जो विद्यार्थी उनकी सेवा में थे, उन्हें जाने के लिये कहा और बोले कि ‘मेरे कारण आप लोग क्यों परेशान होते हो।’ पर विद्यार्थी सेवा में ही रहे, रातभर पास में जागते रहे। स्वास्थ्य ठीक नहीं था, इसलिये उन्हें नींद भी नहीं आ रही थी। रात को कई बार शौच के लिये गये। लघुशंका ठीक से नहीं कर पा रहे थे। रात दो बजे के करीब विद्यार्थियों से बोले कि मुझे टहलता है, बाहर ले चलो। सहारा देकर दोनों विद्यार्थी उन्हें दरवाजे तक लाये तो पैर लड़खड़ाने लगे, शरीर काँपने लगा, इसलिये फिर टहलने नहीं गये और वापस बिस्तर पर लेट गये। प्रातःकाल थोड़ा फलों का रस लिया। पहले तो अपने हाथों से गिलास तक भी नहीं पकड़ पा रहे थे, पर अब अपने हाथों से गिलास को पकड़ा। ये देखकर सामने खड़े लोगों को कुछ सान्त्वना मिली। लेकिन कुछ देर बाद स्वास्थ्य फिर से बिगड़ने लगा। डॉक्टर को फोन करके हॉस्पिटल पहुँचे तो डॉक्टर ने देखते ही आई.सी.यू. में भर्ती कर लिया। चिकित्सा शुरू हो गयी। संक्रमण के कारण किडनी का कार्य प्रभावित हो गया था। उसके उपचार के लिये डायलेसिस की प्रक्रिया की गयी। रात को एक बार रक्तचाप आदि में कुछ सुधार दिखाई भी दिया, पर 6 अक्टूबर सुबह लगभग पाँच बजे स्थिति फिर से गमभीर होनी प्रारमभ हो गई। हृदय का स्पन्दन धीमा होने लगा, धड़कने रुक सी रहीं थीं। जीवनभर देश व समाज के लिये पहरा देने वाला प्रहरी स्वयं सोने के लिये जा रहा था। भोर हो चुकी थी, अब उसे भी विश्राम करना था, और हमें जागना था। अपने दायित्व का निर्वाह पूर्ण निष्ठा से करके आने वाली पीढ़ी को जिमेदारी सौंप दी।

डॉक्टरों ने अन्तिम प्रयास के रूप में जो हो सकता था, सब किया, पर सब व्यर्थ। हृदय की गति रुक गई, मशीन की स्क्रीन पर धड़कने शून्य थीं। पंछी निकल चुका था। जो सामने था, वह एक भौतिक शरीर मात्र था। घर यहीं था, पर घर में रहने वाला कहीं और जा चुका था। यह सारी घटना वहाँ पर उपस्थित लोगों के सामने ही घट रही थी, सब कुछ खुद को ठगा सा महसूस कर रहे थे। ईश्वर से बस यही शिकायत थी कि कम-से-कम एक अवसर तो देना चाहिये था ना! एक ही झटके में सब कुछ छिन गया। सब कुछ रेत की तरह हाथ से फिसलता गया और हाथ खाली रह गये। पार्थिव शरीर को ऋषि उद्यान लाकर सरस्वती-भवन में रखा गया। कुछ ही देर बार अन्तिम दर्शनों के लिये लोगों का तांता लग गया।

7 अक्टूबर की सुबह अजमेर के पृथ्वीराज मार्ग पर लोगों और वाहनों की एक लमबी कतार थी। हजारों लोग सड़क पर पंक्ति में ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना के मन्त्रों का पाठ करते हुये चल रहे थे। सबकी आँखें नम थीं, विशेष गुणों से युक्त विशेष आत्मा के प्रति विशेष समान था। अजमेर निवासियों ने कई शोभा यात्राएँ देखी थीं, पर किसी शवयात्रा के पीछे इतना बड़ा जनसैलाब उन्होंने पहली बार देखा था। जो समान किसी नेता के लिये भी दुर्लभ होता है, यह आत्मा उस समान की सहज अधिकारी थी। पार्थिव शरीर को पहले उनकी कर्मस्थली परोपकारिणी सभा में ले जाया गया, फिर उनके पुराने घर से होते हुये ‘‘दयानन्द मुक्तिधाम’’ मलूसर में यात्रा का समापन किया गया। अन्तिम संस्कार के लिये शरीर को वेदी पर रखकर पार्थिव शरीर का होम किया गया। अब केवल और केवल स्मृतियाँ ही शेष बची थीं और बच गई थी वो ऊर्जा जिसे अब तक वे सबमें भरते आये थे।

अन्त्येष्टि संस्कार के पश्चात् सभी विद्वानों ने अपनी भावपूर्ण श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। जिस स्थान पर ऋषि दयानन्द के शरीर की यात्रा समाप्त हुई थी, उसी श्मशान मलूसर, अजमेर में दयानन्द के सैनिक की भी यात्रा का समापन हुआ। पं. लेखराम, गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द की बलिदान शृंखला में एक और कड़ी जुड़ गई और इसी के साथ निःस्वार्थ समाज सेवा का एक और अध्याय समाप्त हो गया।

अगले दिन 9 अक्टूबर को श्रद्धाञ्जलि सभा में देश के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने प्रेरणामय जीवन को याद करते हुये उन्हें अपनी-अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित की-

श्रद्धा के पुष्प

* आचार्य देवव्रत (राज्यपाल-हि.प्र.)- यदि हजार व्यक्ति एक तरफ हों तो भी दूसरी तरफ वो अकेला शेर काफी था। लिखते थे तो उनका कोई सानी नहीं था। मन्त्रों पर बोलने वाला उन जैसा कोई वक्ता नहीं था। व्यंग करने लगें तो लोटपोट कर दें। आर्यसमाज में लबे अन्तराल के बाद ऐसा व्यक्तित्व पैदा हुआ, जिसमें पं. लेखराम व गुरुदत्त के दर्शन होते थे। वो जिस सोच को जनमानस तक पहुँचाना चाहते थे, उसे पूरा करने का हमें संकल्प लेना चाहिये।

* डॉ. सत्यपाल सिंह (सांसद बागपत, उ.प्र.)- ये आर्य जगत् का महादुर्भाग्य है कि धर्मवीर जी अब हमारे बीच नहीं है। मैं उन्हें वैदिक साहित्य का चलता-फिरता कोश मानता हूँ। उन्होंने शैल्डन पोलाक जैसे संस्कृति विनाशकों के बारे में जो लेख लिखा, उससे प्रेरणा लेकर हम संस्कृति की रक्षा का संकल्प लें।

* श्री तपेन्द्र कुमार (पूर्व मुय सचिव-राजस्थान सरकार)-  जिन कार्यक्रमों में कभी 20-30 लोग होते थे, उनमें आज हजारों की संखया में लोग होते हैं। जो पत्रिका कभी 4-5 सौ की संखया में छपती थी, आज वो पत्रिका 14-15 हजार की संखया में छपती है। जिस परोपकारिणी सभा को कुछ शहरों में जाना जाता था, वो आज विदेशों में भी प्रतिष्ठित है- ये सब धर्मवीर जी की ही देन है।

* श्रीमती सुयशा आर्या (सुपुत्री- डॉ. धर्मवीर जी)- तत्ता (पिता जी) को देखकर हमें लगता था कि हम विशिष्ट बच्चे हैं। अमेरिका में मैं जब किसी बात पर निरुत्तर हो जाती थी, तो कहती थी कि अपने पिता जी से तुमहारी बात कराती हूँ, वे तुमहारी हर बात का जवाब देंगे। उनके सामने शैल्डन पोलाक जैसा व्यक्ति भी नहीं टिक पाता।

पर आज हम फिर विशिष्ट से सामान्य हो गये।

* प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु- धर्मवीर जी किसी सामान्य परिवार में नहीं जन्में थे। उनके पिता पं. भीमसेन जी एक क्रान्तिकारी, स्वतन्त्रता सेनानी थे। धर्मपत्नी ज्योत्स्ना जी भी एक क्रान्तिकारी परिवार से ही हैं। सभा को वे जिस ऊँचाइयों तक ले आये हैं, ये अपने आप में एक असाधारण बात है। आज आर्यसमाज ने एक हीरा खो दिया।

* श्री सत्येन्द्र सिंह (न्यासी- परोपकारिणी सभा)- ये एक भयंकर दुर्घटना है कि डॉ. धर्मवीर जी हमारे बीच नहीं रहे। उन जैसा वक्ता, विद्वान्, पत्रकार आज दिखाई नहीं देता। ईश्वर इस असह्य दुःख की घड़ी में परिवार को शक्ति प्रदान करे।

* श्री गोपाल बाहेती (भूतपूर्व विधायक- अजमेर)- डॉ. धर्मवीर जी एक निर्भीक वक्ता, लेखक, विद्वान् थे। आज ऋषि उद्यान में बाग हैं, बगीचे हैं, पर खुशबु नहीं है। वे प्रत्येक राष्ट्रीय समस्या पर बड़े बेबाक सपादकीय लिखते थे। यह क्षति अपूरणीय है।

* आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक- डॉ. धर्मवीर जी का व्यवहार मेरे प्रति बड़े भाई के जैसा था। वे मान-अपमान में सदैव सहज रहे। ‘‘परोपकारी पत्रिका’’ का सपादकीय मैं सदैव पढ़ता था। उनके जाने से केवल परोपकारिणी सभा की ही नहीं अपितु पूरे देश की क्षति हुई है।

* श्री त्रिभुवन राजभंडारी (समधी- डॉ. धर्मवीर जी)- डॉ. धर्मवीर जी के रूप में समधी को पाकर हमारा परिवार समृद्ध हो गया है। वो विद्वान् थे, पर विद्वत्ता उन पर हावी नहीं थी।

* डॉ. जगदेव- उनके जीवन में विलक्षणता थी, आनन्द था। महर्षि दयानन्द ने जिस सत्य के लिये अपना जीवन दिया, डॉ. धर्मवीर जी उस सत्य के लिये जीवनभर लगे रहे। गृहस्थ होते हुये भी उनका जीवन विरक्त था। उनके जीवन में उनकी धर्मपत्नी का विशेष योगदान रहा। परिवार की पूरी जिमेदारी स्वयं लेकर धर्मवीर जी को समाज-सेवा के लिये मुक्त रखा। हम इस श्रद्धाञ्जलि सभा को प्रेरणा-दिवस के रूप में मनायें।

* स्वामी धर्मानन्द- आज परोपकारिणी सभा देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी प्रतिष्ठित है। ये केवल धर्मवीर जी के कारण ही हुआ। उनके दृढ़ निश्चय का ही परिणाम है कि ऋषि उद्यान अपने इस वर्तमान स्वरूप में है। हम धैर्य रखें और उनके कार्यों को आगे बढ़ायें।

* डॉ. ज्वलन्त कुमार- जनज्ञान पत्रिका के सपादक भारतेन्द्र जी ने अपनी पत्रिका में डॉ. धर्मवीर का एक फोटो छापा था, जिस पर लिखा था ‘‘आशा की नई किरण’’ ये वाक्य शत-प्रतिशत सही सिद्ध हुआ। हमने पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम जी को नहीं देखा है, पर धर्मवीर जी में हम उनके दर्शन कर सकते हैं।

* श्री विनय आर्य (मन्त्री, आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली)- आचार्य धर्मवीर जी के कार्यों के बारे में हम सब जानते हैं, उन्हें बिल्कुल भी नहीं भुलाया जा सकता। आज तक वो अपनी वाणी, विचार तथा कार्यों से जीवित थे। पर अब उनको जीवित रखना हमारा कार्य है।

* श्री दीनदयाल गुप्त (उप प्रधान, परोपकारिणी सभा)- डॉ. धर्मवीर जी आर्यसमाज के प्रचार में सदैव तत्पर रहते थे। अपने अन्तिम समय में भी वो प्रचार में रत थे। हम सब उनके कार्यों को आगे बढ़ायें।

* श्री रामनारायण शास्त्री- जो निर्भीकता एक ब्राह्मण में होनी चाहिये, जैसा ब्राह्मण को लिखना चाहिये, बोलना चाहिये, करना चाहिये- इन सब गुणों का उदाहरण थे- डॉ. धर्मवीर। हम उनके कार्यों को आगे बढ़ायें तो हम सच्ची श्रद्धाञ्जलि दे पायेंगे।

* श्री धर्मेन्द्र गहलोत (मेयर-अजमेर )- धर्मवीर जी ने जिस पथ को अपनाया, उस पर निडर होकर चलते हुये जीवन ही बलिदान कर दिया। जिस पथ को उन्होंने स्वीकार किया, उस पथ पर हम भी चलें।

* स्वामी विदेहयोगी- धर्मवीर जी आर्यसमाज की वाटिका के एक माली थे, इस वाटिका को उन्होंने अपना जीवन देकर सींचा है। परोपकारिणी सभा हमारे लिये वैसी ही है, जैसा सिक्खों के लिये स्वर्ण मन्दिर। डॉ. धर्मवीर जी के बाद भी ये सभा इसी प्रखरता के साथ कार्य करती रहे।

* श्री रासासिंह रावत (भूतपूर्व सांसद-अजमेर)- प्रो. धर्मवीर जी वे व्यक्ति थे, जो जिस कार्य में लगे, उसे पूरी ऊँचाई पर ले गये। वे एक शक्कर की रोटी के जैसे थे, जहाँ से चखो, मीठा ही मीठा। आर्यसमाज और दयानन्द के प्रति उनकी सच्ची श्रद्धा थी।

* श्री शिवशंकर हेड़ा (चेयरमैन-अजमेर विकास प्राधिकरण)- डॉ. धर्मवीर जी सादगी की मूर्ति थे। उनके मन में छोटे-बड़े का कोई भेदभाव नहीं था। जब कभी वो चर्चा करते थे तो उठकर जाने का मन नहीं होता था। आज उनके चले जाने से उनके परिवार को ही नहीं बल्कि अजमेर और पूरे राष्ट्र को भी बड़ी हानि हुई है। ईश्वर उन्हें अपने चरणों में स्थान दे और परिवार को दुःख सहन करने की शक्ति प्रदान करे।

* स्वामी ध्रुवदेव (दर्शनयोग महाविद्यालय, रोजड़, गुज.)- डॉ. धर्मवीर जी की वेद और वैदिक सिद्धान्तों में गहरी निष्ठा थी। अपने तप, त्याग, अर्थ-शुचिता आदि गुणों के कारण ही वे पूज्य थे। दर्शनयोग महाविद्यालय इस दुःखद घटना पर हार्दिक शोक प्रकट करता है।

* श्री प्रकाश (भाई-डॉ. धर्मवीर जी)- आप सब बड़े सौभाग्यशाली हैं कि आप लोगों को उनका सान्निध्य मिला, पर मैं ये सौभाग्य प्राप्त नहीं कर सका- इस बात का सदैव दुःख रहेगा। मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि हम सबके ऊपर जो वज्रपात हुआ है, प्रभु उसे सहन करने की क्षमता प्रदान करे।

* ब्र. रविशंकर (गुरुकुल-ऋषि उद्यान)- हम सभी के अन्दर ये विचार उठ रहे हैं कि डॉ. धर्मवीर जी की भरपाई कैसे होगी, पर ये कहना उनकी प्रशंसा नहीं, अपमान होगा, क्योंकि इससे हम उनके कार्यों को आगे बढ़ाने में असमर्थता जता रहे हैं। हम उनके कार्यों को और गति प्रदान करें, यही उनके लिये सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी।