ज्ञान, बल व यग्य से प्रभु उपासना करें
डा. अशोक आर्य
हम कच्ची वस्तुओं व मांस आदि के सेवन से रोगों व वासनाओं में फ़ंसते हैं , इन्हें त्याग दें । नियमित जीवन से शरीर को कटोर करें । ज्ञान ,बल व नियमित यज्ञ को कर परम पिता परमात्मा की समीपता प्राप्त करें तथा जितने भी काम आदि शत्रु हैं उन का नाश करें । यजुर्वेद का प्रथम अध्याय का यह १७वां मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
ध्रष्टिरस्यपाऽग्नेऽअग्निमामादं जहि निष्क्रव्याद \^M सेधा देवयजंवह । ध्रुवमसि
प्रथिवी द्र \^M ह ब्रह्म्वनि त्वा क्शत्रनि सजातवन्युपदधामि भ्रात्रिव्यस्य वधार्य ॥
यजु.१.१७ ॥
शुद्ध मन्त्र पाठ के लिए नीचे हिन्दी आरती फ़ोन्ट के प्रयोग से देखें :-
QaRiYTrsyapaa # gnao # AignamaamaadM jaih inaYk `vyaad \^M saoQaa dovayajaं vah | Qa`uvamaisa
paRiqavaI dR \^Mh ba`+vaina tvaa Xa~avaina sajaatavanyaupadQaaima Ba`ataRvyasya vaQaaya- || yajua।.17||
इस मन्त्र में छ: बिन्दुओं पर प्र्काश डालते हुए मन्त्र उपदेश करता है कि :-
१. अग्नि के समान आगे बढ :-
हे जीव ! तूं अग्नि के समान सदा ऊपर उठ , निरन्तर आगे बढ । तेरे तेज से शत्रु कम्पित हों , शत्रु सदा भयभीत हों । तूं अपने अन्दर के शत्रुओं का यथा काम, क्रोध, मद , लोभ, अहंकार आदि का नाश करने वाला है । यह वह शत्रु हैं , जो तेरे जीवन के विनाश का कारण होते हैं , कभी आगे बढने ही नहीं देते , कभी उन्नति के मार्ग पर चलने ही नहीं देते किन्तु तूं पुरुषार्थ से इनका नाश करता है । निरन्तर इन से युद्ध करता रहता है ओर इन शत्रुओं को अपने शरीर से दूर ही रखता है । इन्हें अपने अन्दर प्रवेश करने ही नहीं देता । यह सब तब ही हो पाता है जब तूं शरीर में किसी भी प्रकार के रोग को तथा मन में कामादि किसी भी शत्रु को प्रवेश नहीं करने देता ।
तूं शरीर को विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाता है तथा मन को कामादि शत्रुओं से रक्षित रखता है , इससे तेरा यह शरीर अग्नि बन जाता है । इस अग्नि बने शरीर में किसी भी शत्रु को जलाने की शक्ति होती है , चाहे वह किसी प्रकार का रोग हो, चाहे काम, क्रोध, मद , लोभ या अहंकार रुपि शत्रु हो , अग्नि बना यह शरीर इन सब शत्रुओं को जला कर राख कर देता है , भस्म कर देता है । इस पर अग्नि के समान तूं निरन्तर आगे बढने वाला है , ऊपर उठने वाला है , उन्नति के मार्ग पर चलने वाला है ।
२. आअमाद अग्नि को पास न आने दें :-
हे जीव ! तूं अग्नि के समान सदा उन्नति के मार्ग पर आगे बढने वाला है । इस लिए तूं उस भोजन को अपने से दूर रख जो कच्ची वस्तुओं या कच्ची अग्नि से बना हो । तूं सदा पका हुआ भोजन ही खा , कभी कच्चा भोजन मत खा । पका हुआ भोजन जहां शरीर की व्रद्धि का , उन्नति का कारण होता है ,वहां कच्चा भोजन शरीर के ह्रास का , रोग का , दु:ख का ,क्लेष का कारण होता है । यह कच्चा भोजन भी दो प्रकार से हमें मिलता है ।
क) असावधानी या लापरवही से बच :-
कच्चे भोजन प्राप्ति के दो कारणो में से प्रथम है असावधानी या लापरवाही । हम जब अग्नि पर अपने भोजन , रोटी,दाल आदि को पकाते हैं तो कई बार असावधानी हो जाती है , कई बार प्रकाश की कमीं के कारण हमें पता नहीं चलता, कई बार हमें कुछ जल्दी होती है , इन में से किसी भी अवस्था में हमारा भोजन , हमारी रोटी पूरी तरह से पक नहीं पाती , यह आधी कच्ची ही होती है कि हम इस अधपके भोजन का उपभॊग कर लेते हैं , खा लेते हैं । एसा भोजन करनीय नहीं होता किन्तु तो भी यह भोजन किसी प्रकार हमारे पेट में प्रवेश कर जाता है । इसका ही परिणाम होता है कि यह हमारे लिए कई प्रकार के कष्टों का कारण बनता है । इस प्रकार का किया गया भोजन हमारे पेट आदि के दर्द के रुप में या किसी अन्य प्रकार की व्याधि के रुप में हमें कष्ट देने वाला ही सिद्ध होता है ।
ख) कच्चे फ़लों के रुप में :-
कच्चे या अधपके भोजन के रुप में जिस दूसरी वस्तु को हम जानते हैं , वह है फ़ल । वृक्षों पर लगे फ़लों को देख कर हम कई बार रह नहीं पाते ओर इन को तोड कर खाने लगते हैं । जब हम इन फ़लों को तोड रहे होते हैं तो टहनी का कुछ भाग भी टूट्कर साथ आ जाता है । यह टहनी हमें संकेत कर रही होती है कि यह फ़ल अभी पका नहीं है । यह अभी कच्चा है तथा खाने योग्य नहीं है । जब यह पूरा पक जावेगा तो हाथ लगाते ही टूट जवेगा । उस समय ही यह खाने के योग्य बनेगा । किन्तु हम है कि जो टहनी के इस सन्देश को समझ ही नहीं पाते , हमारे अन्दर लालच भरा होता है । इस लालच के कारण हम इस कच्चे फ़ल को खाने लगते हैं । परिणाम क्या होता है ?, वही जो कच्ची रोटी से हुआ था । हम कई प्रकार की व्याधियों के शिकार हो जाते हैं , जिह्वा छिल जाती है, गला बन्द हो जाता है ओर दर्द देने लगता है, जीभ कड्वाहट से भर जाती है तथा हमें कई प्रकार के कष्टों का सामना करना पडता है ।
इसलिए मन्त्र कहता है कि हे जीव ! तूं सदा पका हुआ भोजन ही करने वाला बन तथा पके हुए फलों का ही उपभोग कर । इस लिए आमाद अग्नि अर्थात वह अग्नि जिससे भोजन कच्चा रह जाता है , को सदा अपने से दूर रख , इसे कभी अपने पास मत आने दे । हमारे अन्दर जो जठर अग्नि है , वह इन सब चीजों को पचाने का कार्य करती है किन्तु जब हम कच्चा खाते हैं तो इस जठराग्नि को इन वस्तुओं को पचाने के लिए बहुत मेहनत करनी होती है । अनेक बार अत्यधिक मेहनत के पश्चात भी यह उस कच्चे भोजन को पचा नहीं पाती ओर वह भोजन कष्ट का कारण बन जाता है । इस लिए कभी भी जठराग्नि के सामने इस प्रकार का अध पका भोजन न आने दे । सदा सुपाच्य भोजन ही दें ।
३. मांसहार मत कर :-
परमपिता परमात्मा इस मन्त्र के माध्यम से अगला उपदेश करते हुए कहता है कि हे उन्नति पथ के पथिक जीव ! मांस खाने वाली अग्नि या मांस खाने की इच्छा को तो तूं कभी अपने पास भी न आने दे । तेरे मन में कभी मांस खाने का तो विचार भी नहीं आने देना । मांसाहारी व्यक्ति जिस क्रूरता से मांस प्राप्त करता है , वह क्रूर स्वभाव उसके जीवन का भाग बन जाता है । कोई भी क्रूर व्यक्ति मानव धर्म ( दूसरे की सहायता करना , दूसरे को कष्ट से बचाना , दूसरे पर दया करना आदि ) का ठीक प्रकार से निर्वहन नहीं कर पाता ।
४. सदा दूसरों को खिला कर खाना :-
ऊपर बताया गया है कि मानव के जीवन में जो अग्नि होती है । उसमें से आमाद अग्नि अपाच्य होती है । अपाच्य होने से यह हमारे शरीर में रोगादि ला कर कष्ट का कारण होती है । इस प्रकार की अग्नि से बचना , इस प्रकार की अग्नि को कभी अपने शरीर में प्रवेश न करने देना । इस क्रव्याद अग्नि को दूर करने से , नष्ट करने से , इस का संहार करने से ही मानव क्रूरता से ऊपर उठ सकता है । जब हम क्रूरता से ऊपर उठ जाते है , इस अवस्था में दूसरों की सहायता करने की ,दूसरों पर दया करने की भावना हमारे अन्दर पैदा होती है । इस अवस्था में हम देवयज्ञ के योग्य हो जाते हैं अर्थात हम प्रभु के समीप बैठकर उस का स्मरण करने के अधिकारी बन जाते हैं । यह देवयज्ञ क्य़ा है ? यह यज्ञ है दूसरों की सहायता करना ,दूसरों पर दया करना, दूसरों को खिला कर ही खाना । वेद तो कहता है कि केवलादि न बन । अर्थात केवल अपने लिए ही न जी । दूसरों को भी जीवन दे ।
५. जीवन को नियमित बना :-
इसके पश्चात उस पिता का आदेश है कि हे जीव ! तेरी लालसा है कि तूं सुखी रहे , तेरे सुखों में निरन्तर वृद्धि हो । इसके लिए यह आवश्यक है कि तूं अपने जीवन को एक नियम से बांध । जब तक तूं अपने जीवन को नियम से नहीं बांधता, जब तक तूं अपने जीवन को नियमित नहीं करता, तब तक सुख की कामना मत कर । अपना एक निश्चित कार्यक्रम बना ले । इस योजना के अनुसार प्रात; उठ ,स्नानादि कर ,प्रभु का स्मरण कर , निश्चित समय पर भोजन कर । इस प्रकार तूं कालभोजी बन । कालभोजी ही सुखी रह सकता है । जो सारा दिन पशु की भान्ती खाता रहता है , उसकी बुद्धि तो क्षीण होती ही है , उसका स्वास्थ्य भी क्षीण हो जाता है । अनेक प्रकार के रोग उसे ग्रस लेते हैं । समय पर भोजन करने वाले , एक निश्चित व्यवस्था में रहने वाले को इस प्रकार की व्याधियां कभी नहीं आती ।
६. स्वाध्याय से ग्यान को बढा :-
जब शरीर में कोई कष्ट क्लेष होता है तो हम अपना बहुत सा समय उस कष्ट से निवारण में लगा देते हैं । इस मध्य हम कुछ अन्य कार्य नहीं कर पाते किन्तु जब शरीर स्वस्थ होता है तो हमारी दिनचर्या के अतिरिक्त भी हमारे पास बहुत सा समय बच जाता है । इस समय को हम अन्य निर्माणात्मक कार्यों में लगाते है । इस लिए परमात्मा कहता है कि हे जीव ! तूं स्वस्थ है । इस कारण तेरे तन में , तेरे मन में कुछ ग्रहण करने की पिपासा है , उसे पूर्ण करने के लिए तूं उतम ज्ञान का संग्रह करने के लिए स्वाध्याय कर ।
आज कुछ भी पढने को लोग स्वाध्याय कहने लग गए हैं । उन्हें पता ही नहीं कि स्वध्याय किसे कहते हैं ? इस लिए स्वाध्याय का अर्थ जान लेना भी आवश्यक है । स्व कहते हैं अपने आप को तथा ध्याय कहते हैं मनन को , चिन्तन को । इस प्रकार स्वाध्याय का अर्थ हुआ अपने आप का मनन व चिन्तन । यह तो हुआ संक्षिप्त अर्थ किन्तु जब हम गहराई से देखें तो हम पाते हैं कि सृष्टी के आरम्भ में परम पिता परमात्मा ने हमारे जीवन यापन तथा क्रिया क्लाप की एक विधि दी है ,एक ज्ञान दिया है । इस विधि , इस ग्यान का नाम है वेद । जब हम प्रभु के दिये इस ज्ञान का अध्ययन करते हैं तो इसे ही स्वाध्याय कहते हैं इस से स्पष्ट है कि वेदादि शास्त्रों के अध्ययन को ही स्वाध्याय कहते हैं । इस मन्त्र में भी यह ही कहा गया है कि स्वस्थ रहते हुए हम वेद का स्वाध्याय करें ।
अत: हे यज्ञ का सेवन करने वाले प्राणी , हे अपने ज्ञान को बढाने वाले प्राणी, हे उत्तम यज्ञों द्वारा उत्तम कर्म करने वाले प्राणी , मैं तुझे अपने समीप स्थित करता हूं , अपने समीप बैठने का अधिकारी बनाता हूं । इस प्रकार तेरे अन्दर वह शक्ति आ जावेगी कि तूं अपने शत्रुओं को नाश कर सकेगा ।
मनुष्य प्रभु के समीप आसन लगाने में तब ही समर्थ होता है जब वह स्वस्थ रहते हुए उत्तम ज्ञान तथा शक्ति को प्राप्त कर अपने जीवन को यज्ञमय बना लेता है । जब उसे प्रभु की निकटता मिल जाती है तो यह जीव काम, क्रोध आदि अन्दर के शत्रुओं का कभी शिकार नहीं होता बल्कि उन शत्रुओं का नाशक बन जाता है ।
, डा. अशोक आर्य