फलित-योग
– डॉ. सत्यप्रकाश
(प्रसिद्ध वैज्ञानिक, उच्चकोटि के आर्य विद्वान्, लेखक ओर वक्ता श्री स्वामी डॉ. सत्यप्रकाश जी सरस्वती की पुस्तक ‘योग सिद्धान्त और साधना’ से यह लेख पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत किया गया है। – समपादक)
महर्षि पतञ्जलि का योगदर्शन हमारे षड्-दर्शनों में एक विशेष स्थान रखता है। भारतीय तत्त्वज्ञान के ये दर्शन उपांग कहलाते हैं, साधारण भाषा में इन्हें शास्त्र भी कह सकते हैं। इन सभी दर्शनों में विषयों का विवेचन सूत्रों के माध्यम से हुआ है, अतः इन्हें सूत्र-ग्रन्थ भी कहा जाता है। योगशास्त्र, योगदर्शन और योगसूत्र शबदों का जैसे ही हम प्रयोग करते हैं, हमारा ध्यान महर्षि पतञ्जलि के योग-सूत्रों की ओर जाता है।
भारतीय तत्त्वज्ञान के 6 सूत्र ग्रन्थों को (उपांगों को) तीन कोटियों में भी बहुधा वर्गीकृत किया जाता है- (1) सांय और योग, (2) न्याय और वैशेषिक, (3) पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा। उत्तर मीमांसा का नाम वेदान्त दर्शन भी है। इन्हें कभी-कभी शारीरिक सूत्र भी कहते हैं, क्योंकि शरीर के भीतर व्यापक या स्थित पुरुष या आत्मा इसकी विवेचना का विषय है। इस महान् आत्मा का नाम ब्रह्म भी है, अतः उत्तर मीमांसा नामक सूत्र-ग्रन्थ वेदान्त दर्शन, शारीरिक सूृत्र और ब्रह्म सूत्र नामों से भी विखयात है। पतञ्जलि महामुनि के योग दर्शन का जो पाठ हमें आज उपलबध है, उसमें चार पाद हैं-समाधिपाद (सूत्र संखया 51) साधनपाद (सूत्र संखया 55), विभूतिपाद (सूत्र संया 55) और कैवल्य पाद (सूत्र संखया 34)। समस्त योगदर्शन में इस प्रकार 51+55+55+34 अर्थात् 195 सूत्र हैं। महर्षि पतञ्जलि के योग दर्शन पर व्यासमुनि रचित एक प्रामाणिक और प्राचीन भाष्य भी मिलता है, जिस पर कई टीकायें और वृत्तियाँ भी हैं।
हमारे लिए यह कहना कठिन है, कि पतञ्जलि योगदर्शन जिस रूप में हमें आज मिलता है, वह उसका मूलरूप भी था, या उसमें किसी समय कुछ परिवर्तन भी हुए। प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों से इस विषय पर कोई विश्वसनीय प्रकाश नहीं पड़ता। मेरी अपनी धारणा यह है कि इसके विभूतिपाद में जो विवरण है, वह कालान्तर में बाद को जोड़ा गया है। योगदर्शन को फलित बनाने के लिए और लोकप्रचलित करने के उद्देश्य से इस प्रकार के सूत्रों का किसी ने योगदर्शन में अपमिश्रण किया।
योग के आठ अंगों का उल्लेख साधनपाद में इस प्रकार है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहार-धारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि।
– योग 2।29
योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। समाधि योग का अन्तिम/चरम अंग है, फिर भी योगदर्शन का प्रथम पाद समाधिपाद नाम से विखयात है। योग के तीसरे पाद (विभूतिपाद) में धारणा, ध्यान और समाधि का उल्लेख किया गया और साधनपाद में अष्टांग योग के प्रथम पाँच अंग ही लिए गए-यम-नियम-आसन-प्राणायाम और प्रत्याहार। शेष तीन अंग धारणा-ध्यान और समाधि (संयमत्रिक) विभूतिपाद के लिए छोड़े गए-क्यों? यह कुछ अस्वाभाविक-सा लगता है। धारणा विषय का अच्छा खासा उल्लेख योगदर्शन के प्रथम पाद (समाधिपाद) में भी आ जाता है। इस प्रकार कतिपय विषमतायें अध्येता को कठिनाई में डाल देती हैं। विभूतिपाद के प्रथम पन्द्रह सूत्रों की क्रमबद्धता स्वीकार की जा सकती है पर सोलहवें सूत्र से फलित-योग आरमभ हो जाता है, जो काल्पनिक ही नहीं, मिथ्या भी है-
परिणामत्रयसंयमादतीताऽनागतज्ञानम् – (3। 16)
परिणाम-त्रय के संयम से भूत और भविष्यत् (अतीत और अनागत) का ज्ञान होने लगता है।
इसी प्रकार सूत्र 17 में एक फल इंगित है-
शबदार्थप्रत्ययानामितरतेराध्यासात्
संकरस्तत्प्रविभागसंयमात्सर्वभूतरुतज्ञानम्।
– (3। 17)
शबद, अर्थ और प्रत्यय इनमें परस्पर अध्यास हो जाया करता है, तीनों में मिलावट या संकरता आ जाती है। संयम करने से तीनों अलग-अलग स्पष्ट होने लगेंगे, और तब साधक सभी प्राणियों की बोलियों को स्पष्ट समझने लगेगा।
अभिप्राय यह है कि योगी संयम-सिद्धि के अनन्तर ऐसी प्रतिभा प्राप्त कर लेगा कि पशुओं, पक्षियों, कीट-पतंगों की बोलियों को समझ सकेगा। हमारे प्राचीन भाषा शास्त्रियों ने शबद-अर्थ और प्रत्यय के सहज स्वाभाविक समबन्ध की यथार्थता पर विशेष बल दिया है। यदि यह स्वाभाविक समबन्ध पता चल जाय, तो हम किसी भी प्राणी की बोली को समझ सकते हैं। मैं इसे केवल फलित-योग कहूँगा, जो फलित ज्योतिष के समान अयथार्थ और अविश्वसनीय है।
फलित योग की गप्पों का क्रम आगे के सूत्र में भी स्पष्ट है-
संस्कारसाक्षात्करणात्पूर्वजातिज्ञानम्। (3। 18)
संस्कारों के साक्षात्करण से (अर्थात् उनमें संयम करने से) योगी को अपने पूर्व-जन्मों की बातों का ज्ञान होने लगता है।
फलित योग का क्रम आगे बढ़ता है-
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्। (3। 19)
प्रत्यय पर संयम करने से दूसरे के चित्त में क्या विचार उठ रहे हैं, इसका योगी को ज्ञान हो जाता है।
इसी प्रकार की अविश्वसनीय बातें विभूतिपाद के लगाग अन्तिम सूत्रों तक गयी हैं-योगी का अन्तर्धान हो जाना (21) मृत्यु के समय का पहले से ही आभास हो जाना (22) मैत्र्यादि पर संयम करने से अभूतपूर्व बल की उपलबधि (23) शरीर में हाथी और बलवान् पशुओं का बल आ जाना (24) सूक्ष्म, छिपी हुई और दूरस्थ वस्तुओं का ज्ञान हो जाना (25) सूर्य में संयम करने से सब लोकों का ज्ञान हो जाना (26) चन्द्र में संयम करने से ताराव्यूह (तारों की स्थिति और गति) का ज्ञान हो जाना (27) ध्रुव तारे में संयम करने से सप्तर्षि तारों की गति का ज्ञान हो जाना (28) नाभिचक्र में संयम करने से काया-तंत्र का ज्ञान हो जाना (29) कण्ठकू प में संयम करने से भूख-प्यास की निवृत्ति (30) कूर्मनाड़ी में संयम करने से शरीर की स्थिरता की सिद्धि (31) मूर्धज्योति में संयम करने से सिद्ध-पुरुषों के दर्शन (32) इत्यादि अनेक फलित बातें कही हैं और दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की बात भी कही है (38)।
जिस किसी व्यक्ति ने (व्यष्टि या समष्टि ने) योग के इस फलित रूप का प्रचार किया, उसने योग के रहस्य को नहीं समझा और योग-तत्त्वज्ञान को बदनाम ही किया। योग कोई चमत्कार या सिद्धि का शास्त्र नहीं है। योगी ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं है, योगी जीवन के रहस्य को समझता है। योग मानव की अन्तर्निहित प्रतिभा को प्रस्फुटित करना चाहता है, पर ये प्रतिभायें शरीर को छोटा कर लेना (अणिमा) या महाकाय कर लेना नहीं है। योगी शरीर को भूमि से उठाकर अधर में प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल लटका नहीं सकता, योगी अपने शरीर को छोड़कर बाहर भी निकल नहीं सकता, बाहर निकल जाने पर अपने शरीर में पुनः प्रविष्ट होने की बात करना (किसी मृत शरीर में या जीव से प्रतिष्ठित शरीर में)नितान्त मूर्खता है। परमात्मा का दिया हुआ यह शरीर केवल तुमहारे लिए है, इसे तुम किसी को उधार नहीं दे सकते। तुमको इसमें से निकालकर कोई भी व्यक्ति बाहर कर सकता है, पर तुमहारे निकल जाने पर कोई अन्य इसमें प्रवेश करके बस नहीं सकता। इस अर्थ में हममें से प्रत्येक का शरीर अयोध्या-पुरी है, अर्थात् कोई भी विजेता इस शरीर में आकर बस नहीं सकता। एक बार तुम इसमें से निकले (अर्थात् तुहारी यदि मृत्यु हुई), तुम इसमें वापस नहीं आ सकते। तुमहारा अगला जन्म नये शरीर में ही होगा।
फलित योग की एक छोटी-सी झलक आपको यम-नियमों के समबन्ध में भी मिलेगी। यह पाँच हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। अहिंसा महाव्रत के पालन करने से वैर-त्याग होता है।
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संन्निधौ वैरत्यागः (2। 35)
अर्थात् जो पूर्णरूप से अहिंसक है, उससे हिंसक पशु भी वैरभाव त्याग देते हैं, यह बात तो समझ में आती है। किन्तु
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्् (2। 36)
सत्य की पूर्ण प्रतिष्ठा होने पर योगी कर्मों के फल का दाता बन जाता है (या जिसकी वह कामना करता है, वह उसे प्राप्त हो जाता है) यह बात पूरी तरह संगत नहीं होती-‘‘क्रिया फलाश्रयत्व’’ क्या है, और सत्य-महाव्रत से इसका क्या समबन्ध है, यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति का वचन पूरा होकर ही रहेगा, यह तथ्य कुछ सीमा के भीतर ही स्वीकारा जा सकता है। सत्यनिष्ठ होना और बात है और प्रतिज्ञाओं का पूरा होना दूसरी बात है।
अस्तेय (चोरी न करना, अपहरण न करना, जो अपने पुरुषार्थ से मिला है, उसी को पर्याप्त समझना) की परम-प्रतिष्ठा से क्या होता है? सूत्रकार का इस समबन्ध में वचन है-
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् (2। 37)
अर्थात् जो अस्तेय का महाव्रती है, उसे सब रत्न सहज सुलभ हो जाते हैं। इस सूत्र में फलित योग की हलकी-सी झलक है। अस्तेय-प्रतिज्ञ व्यक्ति को दूसरे के धन की आकांक्षा नहीं होती, उसे धन का अभाव नहीं खटकता, वह परमपुरुषार्थी और अर्जित समपत्ति में ही सन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति है और वह पुरुषार्थ से प्राप्त धन का सदा सर्वलोक हिताय व्यय करता है। उसका कोई जनसेवी कार्य धन के अभाव में अपूर्ण नहीं होता, ऐसे उदार व्यक्ति में अर्थ शुचिता होती है, वह अपने स्वार्थ के लिए या अपनी संस्था के लिए धन की हेरा-फेरी नहीं करता, यह सब तो समझा जा सकता है, किन्तु यदि ‘‘सर्व रत्नोपस्थानम्’’ शबदों के तद्रूप अर्थ किए जायें तो कोई बात बनती प्रतीत नहीं होती। इसीलिए मैंने कहा कि इस सूत्र के शाबदिक अर्थ लिए जायँ, तो इसकी आड़ में धोखा देने का व्यवसाय प्रारा हो सकता है। फलित ज्योतिष के समान फलित-योग भी भयावह है।
अपरिग्रह के समबन्ध में जो फलित वार्ता जोड़ी गयी है, वह भयावह ही नहीं असंगत भी है-
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोधः (2। 39)
अर्थात् जिसने अपिरग्रह महाव्रत का पूर्णतया पालन किया है, उस योगी को यह ज्ञान हो जाता है कि उसके पिछले जन्म कहाँ और कैसे थे। इसको मैं फलितयोग की श्रेणी में डालना चाहूँगा। इस भावना का आश्रय पाकर यमों का दृढ़व्रती संसार को छलने लगेगा। पूर्व जन्मों की कथा को न कोई जानता है, न जान सकता है, और न जानने से कोई लाभ ही है। अपरिग्रह का यमों की सूची में बहुत उच्च स्थान है, इसका अपना निजी महत्त्व है, किन्तु पिछले जन्मों की कथाओं से इसका कोई समबन्ध नहीं है।
यमों के समान पाँच नियमों के समबन्ध में योग सूत्रों में कुछ बहुत अच्छी बातें कही गयी हैं।
(1) शौच-नियम के पालन से अपने शरीरांगों में जुगुप्सा (हल्की-सी घृणा, नफरत या उपेक्षा) और दूसरों के स्पर्श में अरुचि की बात कही गयी है। योगी को दूसरों के संस्पर्श से उत्पन्न काम-रति से विरक्त बताया गया है-
शौचात्स्वांगजुगुप्सापरैरसंसर्गः (2। 40)
इससे अगला जो सूत्र है वह और भी अधिक स्पष्ट और सर्वथा उपयुक्त है-
सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च
– (2। 41)
अर्थात् शौच-नियम के व्रती की बुद्धि (सत्त्व) शुद्ध हो जाती है, उसमें सौमनस्य की भावना सबके प्रति उत्पन्न होती है, (अथवा उसके विचार सुस्पष्ट, संशय-हीन हो जाते हैं), चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है, उसे इन्द्रियों की लिप्सा पर विजय प्राप्त होती है, और उसमें आत्मदर्शन की पात्रता उत्पन्न होती है।
(सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः 2। 42)
सन्तोष से अनुत्तम या सर्वोत्कृष्ट सुख की प्राप्ति होती है।
इसमें सन्देह नहीं। तप से अशुद्धियों का क्षय हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप शरीर और शरीर की इन्द्रियों को पूर्णता प्राप्त होती है।
कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः (2। 43)
स्वाध्याय-नियम के सफल अभयास से इष्टदेवता के साथ मिलन हो जाता है, अथवा इष्ट देवता और योगी के बीच में जो पार्थक्य है, वह दूर हो जाता है।
स्वाध्यायादिइष्टदेवतासप्रयोगः (2। 44)
कदाचित् इसका अभिप्राय है कि जिस-जिस विषय का स्वाध्याय किया जायेगा, उसमें अभिन्न रुचि उत्पन्न होगी, उस विषय के साथ एकात्य की स्थापना होगी। योगी का अध्ययन किया गया विषय समझा सा बन जायगा। स्वाध्याय शबद के दो-तीन अर्थ हैं-(1) वेदादि वाङ्मय का अर्थ सहित अध्ययन, (2) ओंकार या प्रणव का अर्थ भावना के अर्थात् पूर्ण निष्ठा और स्नेह के साथ कीर-वत् (तोते की तरह) नहीं, भावों को समझते हुए जप। एक तीसरा भी अर्थ है, स्वयं अपने का मूल्यांकन-हमारा उत्थान हो रहा है या पतन; हमारी विद्या, हमारी चरित्र समबन्धी नैतिकता और उनसे उपलबध आनन्द की राशि हममें बढ़ रही है या कम हो रही है इसकी स्पष्ट प्रतीति होते रहना भी स्वाध्याय है अर्थात् स्व का अध्ययन या मूल्यांकन।
अन्तिम नियम-प्रणिधान है-समस्त प्यार और स्नेहपूर्वक ईश्वर के प्रति अपना समर्पण, एकमात्र उसके आलबन या अवलब में रहना-
एतदालबनं श्रेष्ठम्, एतदालबनं परम्
एतदालबनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।
– (कठ. 1। 2। 17)
समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्। 2। 45
इसके परम अनुष्ठान से समाधि सुगम और सहज हो जाती है।
पाँचों यम और पाँचों नियमों के अनुष्ठान से क्या-क्या उपलबधियाँ होती हैं,उनका संक्षेप में वर्णन यहाँ इस स्थल पर हमने कर दिया। कुछ यमों के समबन्घ में फलित-योग का आभास-सा प्रतीत होता है, जो विषय की अनुरूपता के अनुकूल नहीं प्रतीत होता। इनकी अनुकूलता समझने में समभवतया क्लिष्ट भाष्य की सहायता लेनी पड़ेगी।
विभूतिपाद में फलित योग अवश्य है और उन सूत्रों की उपादेयता और विश्वसनीयता सदा सन्दिग्ध रहेगी। योगी और योग के जिज्ञासु से मेरा आग्रह है, कि उनसे बच कर रहे और उनको स्वीकार करने का हठाग्रह न करे। योग के इन फलित चमत्कारों ने योग विद्या को निन्दित किया है।