संसार में ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वालों की संख्या बहुत अधिक है, यद्यपि ईश्वर के स्वरूप एवं गुण-कर्म-स्वभाव के सबन्ध में उनमें मतैक्य नहीं है। परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनका मत यह है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है। सब नास्तिक मत इसी विचार के मानने वाले हैं। इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। किसी की पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ आज तक ईश्वर को न देख पाई है, न छू सकी है, न श्रवण, घ्राण आदि के द्वारा अनुभव कर सकी हैं। ईश्वर को न मानने वालों को पूर्व पक्ष और उस परमशक्ति के होने में विश्वास करने वालों को उत्तर-पक्ष मानते हुए चर्चा को इस प्रकार आगे बढ़ा सकते हैं-
पू.- वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।
उ.- इसका स्पष्ट तात्पर्य इतना है कि आप पाँचों इन्द्रियों तक सिमट गये हो, इसके आगे भी विचार करें। अभी तो मन तथा बुद्धि भी अवशिष्ट है।
पू.- अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देाता है।
उ.- आप जिसे ‘‘देखना मात्र’’ मानते हो, वही ‘‘मात्र देखना’’ नहीं होता, देखना अर्थात् जानना भी होता है। ज्ञान प्राप्त करने के अर्थ में भी ‘‘देखना’’ शद का प्रयोग होता है। अब इसे भी उदाहरण से देखते हैं। यदा-कदा हम कुछ बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।
इस वाक्य में भी ‘‘देखा’’ शद का प्रयोग हुआ, पर वह जानने अर्थ में, न कि ‘‘नेत्र से देखने अर्थ में या अन्य इन्द्रियों से देखने अर्थ में। एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शद का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। वह देखना, यह देखना, वह देखा, यह देखा, वह दिखेगा, वहाँ दिखेगा इत्यादि प्रयोग जानने अर्थ में होते हैं न कि मात्र चाक्षुष प्रत्यक्ष में।
पू.- तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।
उ.- अविद्यारूपी घोर अन्धकार को दूर करो और ईश्वर का आनन्द उठाओ अर्थात् अविद्यारूपी आवरण की परत बहुत मोटी है। जो हमें प्रत्यक्ष होने में बाधा पहुँचाती है, उसे दूर करना चाहिये। इसमें शास्त्रों के अनेक प्रमाण है।
न्यायदर्शन. प्रमाणप्रमेय……तत्त्वज्ञानान्निः श्रेयसाधिगमः।
वैशेषिक. धर्मविशेषप्रसूताद्………तत्त्वज्ञानान्नि श्रेयसम्।
योग दर्शन. तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्।
स्वयं वेद भी प्रमाण है।
परीत्यभूतानि परित्य लोकान्…….
आत्म नात्मानमपि सं विवेश।
-यजु. 32/11
तो जब अविद्या का अवसरण हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।
और बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।
पू.- वह प्रयास किस प्रकार से करें?
उ.- जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान या आधेय को देखकर आधार का अनुमान करते हैं। तब आप मन-ही-मन एक व्याप्ति बनाते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है।
व्याप्ति का स्वरूप– जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है या जहाँ-जहाँ आधेय होता है, वहाँ-वहाँ आधार होना आवश्यक है।
इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है, घर एक कार्य रूप में देख कर, आपने उसके बनाने वाले का अनुमान किया और निश्चय किया कारण गुणपूर्वक ही कार्य होता। अब यह भी विचार किया कि मैं इसको कार्य, क्यूँ कह रहा हूँ? क्योंकि वह क्षीण होता है। तो एक व्याप्ति आपने और तैयार की कि जो-जो कार्य होता है, वह क्षीण होता है। तो क्षीण होने वााला कार्य होता है और कार्य का कारण भी अवश्य होता है अर्थात् कार्य को कार्य रूप देने वाला कर्त्ता भी जरुरी है। अब इस सृष्टि को ही ले लेते हैं। सृष्टि एक कार्य है यह पता चलता है क्षीण होना प्रत्यक्ष देखें जाने से और उस कार्य का कर्त्ता भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक देशी अथवा अल्पज्ञ नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।
पू.- यह संसार तो अपने आप ही बना है।
उ.- अब आप उक्त सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं। प्रथम आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है। अब सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न कह रहे, वह ठीक नहीं।
पू.- क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?
उ.- हमारा सिद्धान्त जो स्थापित किया था उस तरफ ध्यान दें। जो कार्य होता है, वह क्षीण होता रहता है और जो क्षीण होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर क्षीण नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा। अपितु उसने ही इस संसार को बनाया।
पू.- तो वह ईश्वर कहाँ है?
उ.- वह सर्वत्र कण-कण में है, वह सर्वव्यापक है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है अन्यथा एकदेशी होकर, इसे करना सभव नहीं, यह पीछे बता ही आये। और वह सर्वव्यापक है, अतः सर्वज्ञ भी है।
पू.- तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि सर्वव्यापक है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ जीवात्माओं को कष्ट पहुँचायेगी तथा मेरा कार्य करना भी व्यर्थ होगा, क्योंकि मैंने तो आत्माओें को सुख देने के लिए संसार बनाया है और यह बाधाएँ इनको कष्ट दे रही है। इतना ही नहीं अपितु सर्वज्ञ होने से, उसे उस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।
उ.- यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है वा नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?
पू.- यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?
उ.- ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?
पू.- उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।
उ.- यदि वह शरीर धारण करे तो स्थान-स्थानान्तर, देश-देशान्त, विश्व-विश्वान्तर या लोक-लोकान्तर में तथा मोक्ष में प्रत्येक जीवात्मा का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।
पू.- तो सर्वव्यापक होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?
उ.- आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?
पू.- क्या करता है, बताईये?
उ.- वही तो सभी के कर्मों का यथावत् फल देता है। ये भिन्न-भिन्न योनियाँ जो दिखाई पड़ती है, वह सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर उसे हाथ पकड़कर रोक दे, तो वह तो परतन्त्र होवेगा। अतः ईश्वर को उसी रूप में जानना चाहिये, जिस रूप में वह है।
पू.- वह कैसे मिलेगा?
उ.- यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह आनन्दस्वरूप परमात्मा प्राप्त होता है, यह शास्त्र कहता है, वेद भी कहता है।
‘‘अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते’’
अर्थात् तत्त्वज्ञानपूर्वक ही आप ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए आप शास्त्रों का अध्ययन कर श्ीाघ्रता से प्राप्त कर सकते हैं।
विशेष सार– यदि हम परमात्मा पर विश्वास नहीं करते तो दोष-पर-दोष ही करते चले चलते हैं।
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चिदहावेदीन्महती विनिष्टः।
भूतेषू-भूतेषू विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
– उप.।।
भावार्थः– इस जन्म में उसे जान लिया तो अच्छा होगा, नहीं तो महाविनाश होगा। धीर लोग प्रत्येक जड़-चेतन का भेद जानकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर