ओउम
देवता पुरुषार्थी के सहायक .. अथर्वेद २०.१८.३
डा.अशोक आर्य
विशव का प्रत्येक प्राणी आनंदमय रहना चाहता है , सुखी रहना चाहता है | प्रत्येक व्यक्ति विशव में ख्याति चाहता है | यह सब पाने के लिए अत्यधिक मेहनत कि आवश्यकता होती है , पुरुषार्थ कि आवश्यकता होती है,जिससे बच्जाने का वह प्रयास करता है |इलाता उसे ही है जो मेहनत करता है | बिना प्रयास किये कुछ किस्से मिल सकता है | इस तथ्य को अथर्ववेद में इस प्रकार बताया गया है : –
इच्छन्ति देवा: सुन्वनतम न स्वप्राया न स्प्रिहंती |
यन्ति प्रमादामातान्द्रा: || अथर्ववेद २०.१८.३ ||
देवता यज्ञकर्ता या कर्मठ को चाहते हैं , आलसी को नहीं चाहते हैं | पुरुषार्थी व्यक्ति ही श्रेष्ठ आनंद को प्राप्त करते हैं | :-
पुरुषार्थ मानव जीवन का एक आवश्यक अंग है | जो पुरुषार्थी है , उसकी सहायता परमात्मा करता है | देवता भी पुरुशारथी को ही चाहते हैं | संसार भी पुरुषार्थी को ही चाहता है | जिस पुरुषार्थी को सब चाहते हैं, वह पुरुषार्थ वास्तव में है क्या ? जब तक हम पुरुषार्थ शब्द को नहीं जान लेते तब तक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं कह सकते | अत: आओ पहले हम जानें की वास्तव में पुरुषार्थ से क्या अभीप्राय है :=
पुरुषार्थ से अभिप्राय से :-
पुरुषार्थ से अभिप्राय है मेहनत | जो व्यक्ति चिंतन करता है , मनन करता है, एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यत्न करता है , प्रयास करता है , वह व्यक्ति पुरुषार्थी होता है | इससे स्पष्ट होता है कि मेहनत करने वाला पुरुषार्थी है | जो किसी विषय पर मनन, चिंतन कर उसे भली प्रकार समझ कर उसे पाने का यत्न करता है वह पुरुषार्थी है | अत: हम कह सकते हैं की पुरुषार्थ से भाव मेहनत करने से है, यत्न करने से है , एक निर्शारित उद्देश्य को पाने के लिए जो भी यत्न किया जाता है , उसे पुरुषार्थ कहते हैं |
पुरुषार्थ के इस इतने उच्चकोटि के भाव से पुरुषार्थ का महत्व भी स्पष्ट हो जाता है | मेहनती व्यक्ति को पुरुषार्थी कहा गया है | जो अपाने लक्ष्य को पान्ने के लिए न्हारपुर यत्न करता है , उसे पुरुषार्थी कहा गया है | उसका उद्देश्य चाहे धन प्राप्ति का हो ,छह शारीर के गठन का, शिक्षा प्राप्ति का हो चाहे प्रभु प्राप्ति का | किसी भी क्षेत्र में वह उपलब्धियां पाना चाहता हो तथा इन उपलब्धियों को पाने के लिए जब वह सच्चे मन से यत्न करता है तो उसे पुरुषार्थी कहते हैं , मेहनती कहते हैं, लहं शील कहते हैं |
इस प्रकार का मेहनती व्यक्ति जब अपनी मेहनत के फलसवरूप कुछ उ[अलाब्धियाँ पा लेता है तो उसका अपना मन तो प्रफुल्लित होता ही है साथ में उसक्द परिजनों को भी अपार ख़ुशी प्राप्त होती है | ऐसे क्यक्ति को देवता ही नहीं प्रभु भी पसंद करते हैं | जिस व्यक्ति को परमात्मा का आशीर्वाद मिला जाता है, उस कि ख्याति समग्र संसार में फ़ैल जाती है | सब और उसकी चर्चा होने लगाती है, जिस से उसका ही नहीं उसके परिवार कि यश व कीर्ति भी दूर दूर तक चली जाती है | इस प्रकार वह अपने परिवार का नाम उंचा करने का कारण बनाता है |
जो पुरुषार्थ नहीं करता. उसे निष्क्रिय कहते हैं , उसे कर्महीन कहते हैं ,उसे आलसी कहते हैं, उसे अकर्मण्य कहते हैं | जो कुछ काम ही नहीं करता, उसे उपलब्धियां कहाँ से मिलेंगी ? , उसे ख्याति कहाँ से मिलेंगी , उसे यश कहाँ से मिलेगा ? उसकी कीर्ति कैसे फ़ैल सकती है ? उसकी कहीं भी पहचान कैसे बन सकती है ? अर्थात निष्क्रिय व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता | न तो इस संसार में तथा न ही देवताओं में और न ही ईश्वरीय शक्तियों में उसे कोई पसंद करता है | वह पशुओं कि भाँती इस संसार में आता है , खाता है तथा कीड़े मकोड़ों कि भाँती इस संसार से चला जाता है | न तो जीवन काल में ही उसे कोई चाहने वाला होता है तथा न ही जीवन के पश्चात भी |
अत: आलसी व कर्म हिन् व्यक्ति को कहीं भी भी सन्मान नहीं मिलता | वह अपने लिए भी भार है और परिवार के लिए भी | जिसे परिजन ही पसंद नहीं करेंगे , उसे अन्य क्या चाहेंगे | इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि देवता पुरुशरथी को ही चाहते हैं | संस्कृत के एक सुभाषित में भी इस तथ्य का ही अनुमोदन करते हुए इस प्रकार कहा है :-
” उद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: |
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवा : सहायकृत ||
अर्थात उद्यम ,साहस, धैर्य , बुद्धि, शक्ति और पुरुषार्थ से गुण जहाँ रहते हैं , वहां परमात्मा भी सहायता करता है | पुरुषार्थी ही समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं | वे संसार का कल्याण करते हैं और संसार उनका गुणगान करता है | पुरुषार्थ , आलस्य का त्याग तथा निरंतर अपने कर्तव्य में तत्पर रहना समृद्धि का मूल है , सफलता का रहस्य है | पुरुषार्थ और स्वावलंबन का महत्त्व बताते हुए अंग्रेजी में कहा गया है :-
” GOD HELPS THOSE WHO HELP THEMSELVES. ”
परमात्मा उनकी सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं | जो अपने सामने पड़ी थाली में परोसे भोजन को स्वयं अपने हाथ से उठा कर अपने ही मुंह में नहीं डालते तो उन्हें भोजन कारने कौन आवेगा ? उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अत: प्रभु का आशीर्वाद पाने के लिए हमें अपनी सहायता स्वयं करनी होगी | स्पष्ट है कि यहाँ भी पुरुषार्थ करने कि ही प्रेरणा कि गयी है |
मन्त्र के आरम्भ में ही इस सत्य को कहा गया है कि देवता पुरुषार्थी को ही चाहते हैं, मेहनत करने वालों को ही चाहते हैं, जिनका जीवन यज्ञमय होता है, उसे ही चाहते हैं अकर्मण्य अथवा आलसी को नहीं | अत: हे मानव ! यदि तुन देवताओं को प्रसन्न रखते हुए प्रभु का आशीर्वाद लेना चाहता हे , धनधान्य का स्वामी बन यश व कीर्ति को पाना चाहता है तो पुरुशारती बन |
डा.अशोक आर्य