आर्य-द्रविड़-वैमनस्य और वैदिक दृष्टि
-डॉ. फतह सिंह
प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् डॉ. फतह सिंह जी जीवन भर स्वाध्याय एवं शोध कार्य करते रहे। शिक्षा के क्षेत्र में प्राध्यापक एवं प्राचार्य जैसे पदों पर रहे तथा बाद में ‘राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान’ के निदेशक भी रहे। सिन्धु-सभयता एवं लिपि के अध्येता के रूप में आप की बहुत खयाति रही। आर्य-द्रविड़ विषय पर आपका चिन्तन बहुत मौलिक एवं यथार्थवादी है। उन्हीं के ग्रन्थ से हम यह आलेख पाठकों के लाभार्थ दे रहे हैं-समपादक
मेरे वैदिक अनुसंधान के तीसरे दौर का आरंभ सन् 1970 में राजस्थान-राजसेवा से मुक्त होने के पश्चात् आरंभ होता है। राजसेवा से मुक्त होने का एकमात्र कारण मेरे द्वारा की गई सिंधु-सभयता विषयक शोध थी। यों तो, जब मुझे 1967 में महाविद्यालय से स्थानांतरित करके राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान का निदेशक बनाया गया था, तो मुझे आश्वासन दिया गया था कि मैं तत्कालीन निवर्तमान निदेशक, मुनि जिनविजय के समान पिछत्तर वर्ष के वयः पर्यंत उस पद पर कार्य करता रहूँगा, पर ऐसा नहीं हो सका, क्योंकि स्वतंत्र भारत के नेतृत्व और नौकरशाही को मेरा कार्य राष्ट्रविरोधी प्रतीत हुआ।
आर्य-द्रविड़ विवाद का भयः इस प्रतिष्ठान में आते ही मैंने एक ऐसे शोध कार्य में हाथ डाल दिया, जो आर्य-द्रविड़ विवाद में फँसा हुआ था। यद्यपि यह विवाद ब्रिटिश शासनकाल में साम्राज्यवादी लेखकों और विदेशी मिशनरियों के गठ-जोड़ से उठा था, पर कौन जानता था कि स्वतंत्र भारत में भी राष्ट्र के कर्णधार उस रोग से पीड़ित होंगे? इसका पता सर्वप्रथम तब चला जब दिसंबर, 1968 में पद्मधर पाठक ने डिसाइफर्मेण्ट ऑफ इंडस् स्क्रिप्ट शीर्षक से मेरे अनुसन्धान की सूचना दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइमस पत्र को भेजी। उनका लेख जब दो महीने तक प्रकाशित नहीं हुआ तो उन्होंने लगातार दो व्यक्तिगत पत्र उस समय हिन्दुस्तान टाइमस के मुखय संपादक, वर्गीज को लिखे, तब कहीं वह लेख उस दैनिक में छपा। बाद में पता लगा कि उस लेख को दबाने का दुष्प्रयास पत्र के संपादक-मंडल के एक दक्षिण भारतीय का था।
इस लेख के छपने के बाद संपादक के नाम पत्रों की झड़ी लग गई और भारत सरकार के पास अनेक तार और पत्र पहुँचे। इन सबमें मेरी शोध का तीव्र विरोध था। कोई इसमें दक्षिण भारत का अपमान समझता था, तो कोई उन विद्वानों का जिन्होंने सिंधु-सभयता को द्रविड-सभयता कहा था। एकाध का कहना था कि इस विषय में निष्पक्ष शोध कार्य तो योरोपियन विद्वान् ही कर सकते हैं। कुछ पत्रों में मेरे कार्य को एक दुस्साहस और अनधिकार चेष्टा बताया गया था, तो अन्यों में उसे द्रविड़-जाति के विरुद्ध अपप्रचार और अनादर की संज्ञा दी गई थी। कुछ ऐसे पत्र भी थे, जो मेरे कार्य को आर्यों द्वारा द्रविड़ों की अस्मिता को मिटाने का एक नवीन दुष्प्रयास समझते थे। उनमें यह धमकी भी दी गई थी कि यदि सिंधु-सभयता को आर्य-सभयता सिद्ध करने का यह स्वप्न चलता रहा तो द्रविड़ों को इसके विरुद्ध जोरदार आन्दोलन करना पड़ेगा।
इस प्रचार से दुष्प्रभावित होकर हिन्दुस्तान टाइमस के साप्ताहिक संस्करण का एक पूरा अंक सिंधुघाटी-सभयता की समस्या पर विचार के लिए समर्पित किया गया। उसमें पुरातत्त्ववेत्ताओं के कई लेख छपे। सबने यही मानते हुए लिखा कि आर्य-जाति के लोग भारत के बाहर से आए थे और उन्होंने यहाँ के आदिवासियों को दास बनाया था। उन सबने अरविन्द, बाशम, ए सी दास और संपूर्णानन्द, आदि उन विद्वानों की सर्वथा उपेक्षा की थी, जिनकी मान्यता थी कि आर्य और द्रविड़ नाम की कोई नस्लें नहीं है और वेद में वर्णित दासों या दस्युओं को कोई आदिवासी जाति नहीं माना जा सकता है। सबका कहना था कि सिंधु-लिपि को जब तक पढ़ा नहीं जाता, तब तक वास्तविकता का पता नहीं लग सकता, पर किसी ने भी न तो मेरी पुस्तक को पढ़कर उसकी आलोचना करने का कष्ट किया और न इस बात का ही उल्लेख किया कि मैंने जिस वर्णमाला के आधार पर सिंधु-मुद्रालेखों को पढ़ा था, उसे प्रकाशित भी किया जा चुका था।
इस बीच राजस्थान सरकार के तत्कालीन शिक्षा-सचिव ने मुझे बुलाया और उन तारों और पत्रों की जानकारी दी, जो सिंधु-लिपि और सिंधु सभयता से संबंधित मेरे शोध कार्य के विरुद्ध भारत सरकार को मिले थे और जिनके कारण सरकार चिंतित थी। उनकी सलाह थी कि मैं या तो अपने शोध कार्य को बिल्कुल बन्द कर दूँ अथवा अपने मत को बदल दूँ। मैंने उन्हें यह समझाने का यत्न किया कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उससे आर्य-द्रविड़ अथवा उत्तर-दक्षिण का भेद मिटेगा और राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन मिलेगा। उनका कहना था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के कारण दक्षिण भारत वैसे ही क्रुद्ध है और मद्रास की एक पार्टी तो भारत से पृथक् तमिलनाडु बनाना चाहती है। उनको अडिग देखकर मैंने उनसे निवेदन किया कि वे मेरे स्थान पर किसी दूसरे को निदेशक बना सकते हैं। इसके फलस्वरूप जनवरी, 1970 में प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान एक दूसरे विभाग के निदेशक की देखरेख में चलने लगा और मैं राजस्थान राजसेवा से मुक्त होकर उत्तर प्रदेश चला गया। इस प्रकार, सिंधु-सभयता की शोध से वैदिक अनुसंधान का जो एक नया अध्याय खुला था, उसे सरकार ने अपनी जान में बन्द कर दिया।
आहत (पञ्च-मार्क्ड) मुद्राओं में सिन्धु-लिपि और वेदः पर एक घटना ने उसी शोध को एक अप्रत्याशित नया रूप दे दिया। जब मैं पीलीभीत (उत्तरप्रदेश) जिले में स्थित अपने गाँव में रहने पहुँचा तो उन्हीं दिनों मेरे गाँव से आठ-दस किलोमीटर दूर खनौत नदी की तलहटी में चरवाहों को एक बहुत पुराना गला हुआ ताम्रपात्र मिला, जिसमें चाँदी के सिक्के भरे थे। एक इतिहास प्रेमी अधिकारी ने उनमें से बीस सिक्के , साफ किए हुए मेरे पास भेज दिए। जब मैंने उन सिक्कों पर उसी सिंधु लिपि का प्राचीनतम रूप देखा, जिसके चार रूप मुझे सिंधु-मुद्राओं पर मिले थे तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अधिकांश सिक्कों में सूर्य और गौ का शिर चित्रित था। किसी-किसी पर एक ऐसा वृक्ष था, जिसकी जड़ ऊपर को थी और शाखाएँ नीचे की ओर हैं और मूल (बुध्न) ऊपर को है और जिसके प्राण हमारे भीतर अंतर्हित हैं। यही वह अश्वत्थ वृक्ष भी हो सकता है, जिसे श्रीमद्भगवद्गीता में ऊर्ध्वमूल अधःशाख कहकर याद किया गया है और जिसके जानकार को वेदवेत्ता माना है।
इससे स्पष्ट है कि आहत (पञ्च-मार्क्ड) मुद्राएँ भी सिन्धु-लिपि से युक्त होने के कारण तथाकथित सिन्धु-सभयता से जुड़े हुए होने के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमाणों के आधार पर परंपरा से अभिन्न समबन्ध रखी हैं। इसका एक प्रमाण यह भी है कि उक्त सिक्कों में से कुछ पर सिन्धु-लिपि में ‘राम’ नाम लिखा है और साथ ही राम, लक्ष्मण और सीता के चित्र भी हैं। विशेषता यह है कि वहाँ वे तीनों वनवासी वेश में हैं। राम-लक्ष्मण के जटा-जूट हैं, पर सीता वहाँ दो वेणियाँ रखे हुए हैं। प्राचीन काल में एक वेणी तो अपने पति से वियुक्त पत्नी ही रखती थी। इन तीनों को वनवासी वेश में देखकर और भी कुतूहल इसलिए हुआ, क्योंकि अन्यत्र इन तीनों में सीता को साड़ी पहने हुए ही दिखाया जाता है। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि कैकेयी ने एक बार सचमुच तीनों ही को वनवासी वेश पहना दिया था, पर वसिष्ठ के हस्तक्षेप से सीता को पुनः न केवल सामान्य वेश में आना पड़ा, अपितु चौदह वर्ष के लिए अपेक्षित वस्त्र, आदि भी उसके साथ भेजे गए। इससे सिद्ध हो गया कि ‘राम’ नाम से अंकित त्रिमूर्ति वाले सिक्के सचमुच राम के समय के हैं। इसके अतिरिक्त कुछ सिक्कों पर शबरी को राम-लक्ष्मण के सामने प्रणिपात करते हुए दिखाया गया था और एक सिक्के पर ‘हा राजेन्द्र अमर’ अंकित था। वह संभवतः राजा दशरथ की स्मृति में जारी किया गया होगा। कुछ सिक्कों पर खड़ाऊँ की जोड़ी का चिह्न था, जिसे उस भरत-शासित साम्राज्य-काल का स्मारक समझा जा सकता है, जिसमें राम की खड़ाऊँ राजसिंहासन पर विराजमान रही थीं।
ये सब सिक्के उन प्राचीन सिक्कों में आते हैं, जो आहत मुद्रा कहे जाते हैं और आसाम-बंगाल से लेकर अफगानिस्तान तक और दक्षिण से लेकर उत्तर तक, देश में सर्वत्र पाए गए हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो लिपि सिंधु-मुद्राओं की थी, उस लिपि वाले सिक्कों का सारा क्षेत्र उसी सयता का प्रदेश था, जिसे पहले केवल सिंधु-घाटी से सीमित माना जाता था। साथ ही, यह सभयता वही वैदिक सभयता है, जो रामराज्य से जुड़ी हुई है और सारे भारत की सभयता कही जाती है। ये निष्कर्ष मैंने उत्तर प्रदेश सरकार की ‘त्रिपथगा पत्रिका’ में प्रकाशित कराए और दो-एक लेख लखनऊ के दैनिक स्वतंत्र भारत में निकले। इस प्रसंग में मैंने उन सब सिक्कों का अध्ययन करना चाहा जो खनौत नदी में पाए गए थे और जिनमें से बीस मुझे मिल गए थे। वे सिक्के लखनऊ के सरकारी संग्रहालय में पहुँच गए थे। मैंने उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन शिक्षा-सचिव से संग्रहालय को फोन करवाया कि मुझे उन सब सिक्कों के फोटो उपलबध करा दिए जाएँ, पर दो वर्ष तक सदा यही उत्तर मिला कि अभी तो सिक्कों की सफाई ही नहीं हुई है। साथ ही, सरकारी पत्रिका (त्रिपथगा) ने मेरे लेख छापना बन्द कर दिया।
इस घटना से मन में प्रश्न उठा, क्या हम सचमुच स्वतंत्र हैं?
पुराने साम्राज्यवाद का आतंकः ऐसा ही मेरा एक अनुभव विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ का है। जब मैं राजस्थान सरकार की राजसेवा से मुक्त हो गया तो मैंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सिंधु-सभयता के वैदिक आधार पर शोध कार्य करने के लिए अपनी योजना भेजी। कुछ महिनों बाद आयोग के सचिव, सैमुअल मथाई का पत्र मिला कि यदि मैं ऋग्वेद के पुनर्गठन पर कार्य करना चाहूँ तो आयोग मुझे अनुदान दे सकता है। मैं समझ गया कि सैमुअल मथाई के माध्यम से फादर एस्टलर (निदेशक, हेरास इंस्टीट्यूट, बबई) बोल रहे हैं, जो ओरियंटल कान्फरेंस के वैदिक संभाग के अपने अध्यक्षीय भाषण में ऋग्वेद के पुनर्गठन की योजना को जोरदार शबदों में प्रस्तावित कर चुके थे। यह योजना वस्तुतः वेदों को कलंकित करने का एक दुष्प्रयास था, जिसमें यह सिद्ध किया जाता कि वेदों में व्याकरण, छंद आदि की बहुत-सी गलतियाँ हैं और बहुत से प्रक्षेप और पुनरुक्तियाँ हैं। इन सबको निकालकर एक शुद्ध ऋग्वेद को प्रकाशित करने के बहाने दुनिया को यह दिखलाना था कि जिस वेद पर इतना गर्व किया जाता है, वह त्रुटियों का पिटारा-मात्र है।
अतः मैंने सैमुअल मथाई को लिखा कि मैं ऋग्वेद के पुनर्गठन पर तो काम नहीं करूँगा, क्योंकि इस पर तो फादर एस्टलर कर रहे हैं, पर मैं ऋग्वैदिक विचारधारा के पुनर्गठन पर कार्य कर सकता हूँ। उस विषय की एक सुविस्तृत रूपरेखा भी मैंने प्रस्तुत की। उसने सिंधु-मुद्रालेखों और आहत-मुद्राओं से प्राप्त वैदिक विचारों का भी समावेश था। उसका उत्तर नहीं मिला, जिसकी आशंका थी, ‘खेद है कि आयोग आपकी योजना को स्वीकार नहीं कर सका।’
कुछ दिनों बाद, मुझे हेरास इंस्टीट्यूट के सचिव से एक पत्र मिला, जिसमें सूचित किया गया था कि हेरास इंस्टीट्यूट एक संगोष्ठी आयोजित कर रहा है, जिसमें वैदिक विद्वानों के साथ उन सब लोगों को भी आमंत्रित किया जाएगा, जिन्होंने सिंधु-लिपि पर काम किया है। मुझसे कहा गया था कि मैं भी अपना एक लेख पढूँ और उसकी एक विस्तृत रूपरेखा भेज दूँ। मैंने तुरंत ‘सिंधु-लिपि और आहत-मुद्रा’ पर एक रूपरेखा भेज दी। रूपरेखा की भूमिका में मैंने स्पष्ट कर दिया था कि सिंधु-सभयता वैदिक सभयता ही थी, जिसके तब सारे देश में फैले हुए होने का ताजा प्रमाण वे सिक्के हैं, जिस पर सिंधु-लिपि मिली है। रूपरेखा भेजने के बाद छह महीने निकल गए और वह तारीख भी निकल गई जब गोष्ठी होने वाली थी, पर मुझे हेरास इंस्टीट्यूट से कुछ भी सूचना नहीं मिली।
इस प्रकार की घटनाओं से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि स्वतंत्र भारत में भी हम पुराने साम्राज्यवादी लेखकों की परंपरा के गुलाम हैं और जब तक हम इससे मुक्त नहीं होते हैं, तब तक सत्य की खोज नहीं की जा सकती है। मेरा ऐसा ही अनुभव देश की कुछ शिक्षा-संस्थाओं के साथ भी रहा। उन दिनों कई स्नातकोत्तर महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में मुझे सिंधु-सभयता, सिंधु-लिपि अथवा उससे संबंधित आर्य-द्रविड़ समस्या पर भाषण देने के लिए आमंत्रित किय गया। प्रायः सर्वत्र तीन से लेकर छह व्याखयान मैंने दिए। प्रत्येक व्याखयान लगभग दो-ढाई घंटे का होता था। सर्वत्र मैं बड़े ध्यान से सुना गया। इन आयोजनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वह भाषणमाला थी जो मैंने बंगलौर की राष्ट्रोत्थान परिषद् के तत्त्वाधान में प्रस्तुत की थी। उसमें दक्षिण के चौदह समाचार पत्रों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया था। उनके समक्ष मैंने विशेष रूप से अपने विचार अलग से रखे थे। एक महाविद्यालय के प्रांगण में छह दिनों तक लगातार लगभग दो हजार बुद्धिजीवी श्रोता आते रहे। जाते समय अपने प्रश्नों को लिखकर वे एक डिबबे में डाल जाते थे, जिनका उत्तर मैं दूसरे दिन देता था।
यहाँ मैंने जो भाषण दिए, उनका सार इस प्रकार था। आर्य और द्रविड़ शबद नस्लवाचक नहीं है। उत्तर और दक्षिण में आदि काल से एक ही वेदमूलक समान संस्कृति रही है। वेद भारत अथवा हिन्दुओं की ही नहीं, सारी मानवजाति की सार्वभौम और समान परंपरा को प्रस्तुत करते हैं। वेदों ही की सहायता से, न केवल भारतीय साहित्य के अपितु ईसाई, मुस्लिम और यहूदी परंपरा के भी ऐसे बहुत से प्रसंग समझे जा सकते हैं, जिन्हें हम गपोड़ा अथवा अंधविश्वास की संज्ञा देते आए हैं। इसके अतिरिक्त, वैदिक तत्त्वज्ञान में ही वह शक्ति निहित है, जिसने हिन्दू-समाज में अनेक नस्लों, अनेक भाषाओं, अनेक रस्म-रिवाजों और अनेक पूजापद्धतियों का समावेश करके, अनेकता में एकता हो जाने का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया है। अतः वेदों का अध्ययन सारी मानवजाति के लिए अत्यंत उपादेय हो सकता है। सिंधु-सभयता निस्सन्देह वैदिक सभयता है। हड़प्पा और मोयां-जो-दारो नामक प्राचीन नगरों की खुदाई में प्राप्त अवशेषों से स्पष्टतः प्रमाणित है कि वे उन्हीं वैदिक लोगों के नगर थे जो यज्ञ करते थे और देवोपासक थे। द्रविड़ शबद जिस द्रामित्र का रूपांतर माना गया है, वह वस्तुतः वैदिक इंद्रामित्रशबद के इं का लोप होने से निष्पन्न हुआ है और आर्य शबद के समान ही वैदिक संस्कृति की देन है।
लगभग ये बातें मैंने जोधपुर, जयपुर, अजमेर, उज्जैन, आगरा, अलीगढ़ आदि स्थानों पर कहीं। श्रोताओं ने बड़े ध्यान से सुना भी, पर कई घटनाएँ ऐसी हुई जिनसे मुझे प्रतीत हुआ कि पुरातत्त्ववेत्ताओं को मेरी बातें पसंद नहीं आईं। पुरातत्त्व और इतिहास के एक प्रोफेसर ने मेरी शोध पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मेरी प्रशंसा में एक लेख किसी दैनिक में प्रकाशित करा दिया, इसका परिणाम उसे इतिहास-परिषद् के एक अधिवेशन में देखने को मिला। जो मिलता यही कहता, ‘आपने भी फतह सिंह का समर्थन कर दिया।’ उनका मानना था कि ‘सिंधु-लिपि पर शोध करना केवल पुरातत्त्व और इतिहास के प्रोफेसरों का काम है और मेरे जैसे संस्कृत वाले का उस कार्य में टाँग अड़ाना अनधिकार चेष्टा है। जिस कार्य को बड़े-बड़े विदेशी विद्वान् नहीं कर सके, उसे कोई भारतीय कैसे कर सकता है? क्या आप कभी विदेश गए? क्या आपने कंप्यूटर का प्रयोग किया? अमुक विद्वानों ने कप्यूटर का प्रयोग करके सिंधु-लिपि को द्रविड लिपि सिद्ध किया है। फादर हेरास उसे चित्रलिपि सिद्ध कर चुके हैं। क्या यह अंतिम निर्णय नहीं है? फादर हेरास से आगे आप सिंधु-सभयता के विषय में क्या कह सकते हैं? निश्चित रूप से सिंधु-सभयता आर्य सभयता नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ शिव और देवी जैसे अवैदिक उपास्यों का होना इसके ठोस प्रमाण हैं।’ इस प्रकार की अनेक बातें उन्हें या मुझे सुनने को मिलीं।
आर्य-अनार्य की बातः इनमें से प्रत्येक बात का उत्तर मैं अपने लेखों में दे चुका था। सिंधु-घाटी में प्राप्त शिवलिंग वस्तुतः यज्ञवेदी से उठती हुई अग्नि-शिखा का द्योतक है। स्वयं ऋग्वेद में ही कम से कम तेईस देवियों के नाम मिलते हैं, अतः शिव और देवी को अवैदिक कहना सरासर झूठ और बेईमानी है।
इस प्रकार के असत्य का प्रचार विदेशियों द्वारा प्रायः होता रहा है। इसके अतिरिक्त, सामयवादी विचारधारा से प्रेरित कई संस्थाएँ भी छद्म-रूप से ऐसा अपप्रचार करती रही हैं। इन संस्थाओं ने मिलकर एक तथाकथित साहित्य-महासभा खड़ी की है। उसका पूरा नाम दलित-आदिवासी-ग्रामीण संयुक्त साहित्य महासभा है। साहित्य और संस्कृति की आड़ में दलित, आदिवासी, ग्रामीण (शूद्र) नाम से गिरिजनों, वनवासियों, हरिजनों और अभावग्रस्त ग्रामीणों को अपने राजनीतिक मंतव्य की ओर ले जाने के लिए यह संस्था यत्नशील है। मुझे सामयवाद से कोई द्वेष नहीं है, पर भारतीय साहित्य का मार्क्सवादी विश्लेषण करने में वैदिक तत्त्वज्ञान की नासमझी से ऐसे विद्वान् मानवता का जो अहित कर रहे हैं, वह अवश्य चिंतनीय है। इस प्रसंग में आर्य और शूद्र शबदों को जाति अथवा वर्ग के वाचक मानकर वे जो निष्कर्ष निकालते हैं, उससे दोहरी हानि है। एक तो, इससे आर्य और शूद्र शबदों के गलत अर्थों का प्रचार करके आज की जाति-प्रथा के लिए वेदों को उत्तरदायी समझ लिया जाता है। दूसरे, इन शबदों के पीछे जो गम्भीर तत्त्वज्ञान है, उससे मानवता वंचित रह जाती है। अतः दोनों शबदों के मूल वैदिक अर्थ पर विचार आवश्यक है।