आदर्श समाजवाद वैदिक साहित्य के परिपेक्ष में
प्रो. ज्ञानचन्द रावल , ललित चौहान…..
इस संसार में प्रारम्भ से लेकर आज तक अनेकों संस्कृति या समय-समय पर पैदा हुईं तथा विनष्ट हो गयीं परन्तु उन सभी संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति आज भी अत्यन्त समृद्ध एवं समुन्नत है जिसके विषय में
कविवर इकबाल ने कभी कहा था कि-
‘‘है बात क्या कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमा हमारे।।
यूनान मिस्र रोम सब मिट गये जहा से।
बाकी मगर है अब तक नामोनिशा हमारा।।’’
भारतीय संस्कृति और सभ्यता उतनी ही प्राचीन है जितनी कि यह सृष्टि अर्थात् यह भारतीय संस्कृति
जगत् के प्रारम्भ से ही विद्यमान है उस समय देश अनेक जातियों एंव उपजातियों में विभक्त न होकर एक ही मानव जाति में बिना किसी रूप में संगठित था समस्त मानवजाति बिना किसी भेद-भाव के शांतिपूर्वक फली-फूली इसके मूल में वैदिक शिक्षा का पावन संदेश ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की पवित्र भावना काम कर रही थी। यह थी उदात्त कल्पना वैदिक संस्कृति की जिसमें एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति की रक्षा की बात
कही गई है।’’ आज समाज को उस प्राचीन रूप में प्रतिष्ठित करने के लिये निम्नलिखित मुख्य उपायों को
व्यवहार में लाना होगा।
- परस्पर भ्रातृभाव–
अग्नि ऋषि प्रणीत ऋगवेद के मण्डल पाच सूक्त संख्या साठ के मंत्र संख्या पाच में निम्नलिखित ह्रदयग्राही
सदुपदेश प्राप्त होता है-
‘‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठासो ते सभ्रातरो वावृधुः सौभगाय।
युवा पिता व्वया रुद्र एषां सुधुधामं पृथिवीं सुदिनामरुभ्यः।।’’
अर्थात् मनुष्य (जाति रूप रंग तथा नस्ल से रहित) आपस में भाई-भाई उनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं है ये सभी मिलकर सौभाग्य की वृद्धि के लिये समुन्नत हो, उन सबका पिता शक्ति सम्पन्न सर्वरक्षक और सबको
मर्यादा में रखने वाला परमेश्वर है और अनेक प्रकार के धन धान्य देने वाली पृथिवी उनकी माता है। इसका भाव यह हुआ है। जिसमें ना कोई बड़ा है न कोई छोटा बल्कि सभी परस्पर भाई-भाई हैं।यह भ्रातृ भाव तभी स्थायी रूप से सुदृढ़ हो पायेगा जब यहा के लोग यह अच्छी तरह से समझ लें कि हम सभी के माता-पिता एक हैं।अस्तित्ववाद की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक आवश्यकता यही है कि उसके द्वारा सबको एक
पिता का पुत्र समझ कर भाई-भाई के पारस्परिक सम्बंध की स्थापना होती है। वेदों में यह उच्च भाव अनेकशः मिलते है। अथर्ववेद के तीसरे काण्ड में इसी तरह का एक और सुंदर प्रसंग प्राप्त होता है यथा-
‘‘करशफस्य विशफस्य द्यौः पिता पृथिवी माता।
यथाभिचक्रः देवास्तथा पकणुता पुनः।।’’
अर्थात् करशफः निर्बल और विशफ प्रबल प्रकाशपुंज (परमात्मा) पिता और यह पृथिवी (उनकी) माता है ऐसा समझते हुए विद्वान् ने (पुरूषार्थ करने का) जैसा चल चलाया है उसे फिर-फिर काम में लाओ।
२– सर्वत्र एक ज्योति का दर्शन-
आदर्श समाज के नवनिर्माण का दूसरा सूत्र सर्वत्र एक प्रभु की निर्मल ज्योति का दर्शन है जिसके पारस्परिक प्रेम की समृद्धि से समस्त समाज सुखमय बन सकता है यथा-
‘‘यस्तु सर्वाणि भूतानि आत्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।’’
अर्थात् जो कोई सम्पूर्ण चराचर जगत् को परमात्मा ही में देखता है यह निंदित नहीं होता। यह शिक्षा कितनी महत्वपूर्ण है तब प्रत्येक प्राणी का शरीर ही उसे ईश्वर का मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर एंव गुरुद्वारा आदि
के रूप में दिखाई देने लगेगा।
ऐसी दशा में कौन मंदमति ऐसा होगा जो उसे तोड़ने की कल्पना भी कर सकता है। इस शिक्षा से मनुष्यों में यह भावना पैदा होती है कि किसी भी प्राणी को तकलीफ नहीं देनी चाहिए। ऋषिवर देवदयानंद के गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के पुनरुद्धारक स्वामी श्रद्धानंद जी के जीवन में एक ऐसी ही घटना घटित हुई थी एक स्थान से एक समूह आया हुआ था। आवश्यक गोष्ठी (सभा) हो जाने पर सांयकाल जब उनके नमाज अदा करने का समय हुआ तो उनके मुखिया ने पूछा स्वामीजी हमारे नमाज अदा करने का समय हो गया है हमलोग नमाज कहा अदा करे ? तब स्वामी जी ने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया इसी यज्ञशाला में आपस भी नमाज अदा कर लें। उन मुस्लिम भाईयों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, उन्होंने कहा स्वामी जी यहां पर तो आप लोग अभी
अपना हवन संध्या कर रहे थे, स्वामी जी ने उसी सहजता एंव सौम्यता के साथ उत्तर दिया तो फिर क्या हुआ ?हमने अपनी विधि से अपनी पूजा कर ली अब आप लोग अपनी विधि से अपनी पूजा कर लें आखिर में वह ईश्वर और अल्लाताला एक ही है। इस उदारता का उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा इसी के प्रतिफल स्वरूप दिल्ली के जामा मस्जिद में स्वामी श्रद्धानंदजी का उन्होनें उपदेश बड़ी श्रद्धा से करवाया था। यह सम्मान दूसरे किसी हिन्दू नेता या विद्वान् को आज तक नहीं प्राप्त हुआ। यहा तक कि महात्मा गाधी को भी ऐसा सौभाग्य नहीं मिला इस तरह यह सुस्पष्ट हो जाता है कि एक निर्मल ज्योति के सर्वत्र दर्शन से हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख तथा ईसाई आदियों के आपसी भेद-भाव मिटाकर परस्पर प्रेम भाव का संचार होने लगता है इसी प्रेमतत्व को लक्ष्य करके किसी अमेरिकन विद्वान् ने लिखा है कि-
‘‘बड़ी चर्चा सतियों को कुचल देने और वर्निल तथा टोक्यों कि ओर चलने और बिना किसी शर्त के आत्मसम्पर्ण की बात कहलाती है। हम पाश्चात्यों में इसका अभाव ही है बल, हिंसा, बदला लेने की इच्छा, अहंमन्यता, घमण्ड और अधिकार इससे हम खूब परिचित हैं और इसको हमने औरों में भी रोग की तरह फैलाया है, जो उनके हमारे अनुकरण, प्रेम, नम्रता, आत्म त्याग और शान्ति उन्हें हम बहुत थोड़ा जानते हैं। पहले और यह अन्तिम सिद्धांत ही संसार को मौत से बचा सकते हैं। कौन (इस बात से) दुखी हो सकता है कि अब तुला दण्ड पश्चिम से पूर्वकी और झुक रहा है। पश्चिम राज्य अपने पापों से नष्ट भ्रष्ट होंगे और चीन तथा हिंदुस्तान मनुष्यों के अन्तिम ध्येय प्राप्त करने का भार अपने ऊपर लेने की तैयारी करते है।’’
इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि भारतीय सभ्यता के मौलिक नियमों को पश्चिमी विद्वान् वर्तमान युद्ध, हिंसा, बर्बरता, उग्रवाद आदि समस्त समस्याओं से मुक्ति पाने का एक सरल एंव सुलभ साधन के रूप मे
मानने को तैयार हो रहे हैं। सार्वदेशिक प्रेम और भ्रातृभाव के अपना ये बिना दुनिया में शान्ति की स्थापना असम्भव है। अतएव वर्तमान समय में विश्व बन्धुत्व की भावना दुनिया में सुख शांति एवं आनन्द के लिये अत्यावश्यक है।
३-मतभेद स्वभाविक प्रक्रिया है-
पृथिवी के इस विशाल समाज में मतभेद का होना स्वभाविक है। वेद में इस नियम को इस प्रकार से वर्णित किया गया है यथा-
‘‘समौ चिह्स्तौ न समं विविष्ट, समातरा चिन्न समं दुहाते।
यमयौश्चिन्न समा वीर्याणि, ज्ञातो चित्सन्तौ न सम प्रणीत।।’’
अर्थात मनुष्य के दोनों हाथ बराबर शक्तिवाले नहीं होतें एक गाय की दो पुत्रिया (बछड़िया) बराबर दूध नहीं देती, एक माता के दो सहोदर पुत्र जो एक समाज के एक ही स्टेटस के दो व्यक्ति समाज में बराबर दान नहीं देते। इस विषय पर गम्भीरता से विचार करने पर विदित होता है कि यह जगत् बना ही विषमता के सिद्धांत से है। अर्थात् जब तक सत्व, रजस्, तमस् समान अवस्था में रहते है तब तक यह अवस्था रहती है। जब इन
तीनों गुणों में विषमता आ जाती है तभी सृष्टि का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है इस प्रकार संसार के अंदर विषमता का होना स्वभाविक है। संसार में प्रचलित विभिन्न मत विचार भी इसी बात की पुष्टि कर रहे हैं अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि ऐसी स्थिति में हम क्या करें इस सम्बंध में वेद का स्पष्ट संदेश है कि-
‘‘जनं विभ्रती बहुधा विवाचसे’’
अर्थात् पृथ्वी मनुष्यों की रक्षा करती है (जब वे) अनेक भाषाओं और अनेक धर्मों के होने पर भी (इस पृथिवी पर इस प्रकार से मिलकर रहा करते हैं जैसे) एक घर में घरवाले मिल जुलकर रहा करते है उस समय पृथिवी धन की सहस्त्रों धारा उसी प्रकार से दिया करती हैं जैसे- गाय निश्चित रीति से दूध की अनेक धाराए दिया करती है।
वैसे तो संसार में विभिन्नता के अनेक प्रकार हो सकते हैं परन्तु मुख्य रूप से भाषा और धर्मो-कर्तव्यों के
भेद ही हुआ करते हैं यहा पर विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि धर्म शब्द वेद में मजहब या रिलीजन के अर्थ में नहीं आया है यहा पर भी कर्तव्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ संसार का इतिहास भी इसी ओर इंगित करता है कि जब भी मनुष्य आपस मे मिलकर नहीं रहते तभी देश का पतन और समाज में अशांति का वातावरण बनता है। इतिहास में हुए राम-रावण, कृष्ण-कंस, कौरव-पांडव, पृथ्वीराज-जयचंद, अलाउलहसन-जहासोज और गजनी आदि के युद्ध इसी बात के पुष्ट परिणाम हैं। अमेरिका में गोरो तथा निग्रो में अशांति का मुख्य हेतु भी मिलकर न रहने की भावना ही है।
अतएव इसका समाधान भी यही है कि एक परिवार की तरह परस्पर मित्रवत् वैर भुलाकर रहे तभी सम्पूर्ण मानव समाज इस संसार में सुखी सम्पन्न एवं आनंदित रह सकता है इसी में सभी का कल्याण निहित है। आज संसार के प्रमुख चिंतक मनीषी इसी बात को लेकर चिन्तित है भारत की सबसे बड़ी विशेषता यही है
कि यहा विभिन्न भाषा-भाषी, खान-पान, रीति रिवाज, मत, मजहब, के लोग परस्पर प्रेम भाव से रहते हैं अनेकता में एकता ही भारत की सदा से विशेषता रही है। यह भूमि अपने दुश्मनों को भी मित्र की भांति गले लगाने को तैयार रहती है इसीलिये भारत कभी विश्व का सिरमौर गुरु रहा है हम सभी को अपनी इस धरोहर को संभालकर रखना हो