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आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे

ओउम
आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे
डा. अशोक आर्य
हमारा यह प्रभु ,हमारा आचार्य भी है । जिस गुरुकुल में हम ने शिक्षा प्राप्त करना है , उस गुरुकुल के आचार्य परम पिता परमात्मा के हम अन्त:वासी है । अन्त:वासी होने के नाते हम पिता के समीप रहते हुए उत्तम सुमति पाने का लाभार्थी हों । इस भावना को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है :

अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम।
मा नोअतिक्य आ गहि ॥ ऋग्वेद १.४.३॥
विगत मन्त्र में पिता ने जीव को निर्देश दिया था कि हे जीव ! तुं अपने जीवन को यज्ञात्मक बना, जीवन में सोम पान कर तथा दान करने में ही अनन्द अनुभव कर । इस मन्त्र में प्रभु के इस आदेश का पालन करने की शक्ति पाने के लिए शान्ति की याचना के साथ जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि :
१. बुद्धियों में ज्ञानों का प्रकाश करें
हे पिता ! हम ने सोमपान पाने की कामना के लिए साधना आरम्भ की है। एसे साधक हम आप की अन्तिकम में अत:वासी बन कर अत्यन्त समीप रहें . हम आपके अधिक से अधिक समीप रहने के लिए आप हमारे हृदयों में स्थान ग्रहणकर विद्यमान हों । इस प्रकार उत्तम मतियों , बुद्धियों में उत्तम विचारों व उत्तम ज्ञानों का प्रकाश हमें प्राप्त करावें ।
हमारी प्राचीन वैदिक परम्परा यह ही है कि गुरु के चरणों में बैठकर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं । शिक्षा काल में गुरु ही हमारा माता ,गुरू ही हमारा पिता होता है , वह ही हमारा भाई,मित्र तथा अन्य भी जितने शिक्षात्मक सम्बन्ध होते हैं ,वह सब गुरु ही होता है । विद्यार्थी जितना गुरु के समीप रहेगा , उतना ही अधिक व उत्तम ज्ञान का प्रकाश उसे मिलेगा । इस लिए ही हम गुरुकुलीय शिक्षा को उत्तम मानते हैं क्योंकि शिक्षा काल में ब्रहमचारी ( जिसे आजकल विद्यार्थी कहते हैं ) गुरु के पास ही निवास करते हुए शिक्षा प्राप्त करता था । इस शिक्षा के ही परिणाम स्वरुप भारत में महान योद्धा ,महान विद्वान व महान विचारकों को पाते हैं । यह तो अंग्रेज ने शिक्षा की विधि में परिवर्तन कर इस देश का सत्यानाश कर दिया , इसे अपनी ही संस्कृति का दुश्मन बना दिया अन्यथा हमारी धरोहर विश्व की महान धरोहर थी, जिससे पैदा होने वाले इस देश के शूर्मा प्रत्येक क्षेत्र मे अग्रणी थे ।
उत्तम शिक्षा पाने के लिए गुरु के समीप निवास होने का आदेश मन्त्र ने दिया है । इसलिए ही भारतीय विद्यार्थी गुरु को अपने हृदय में स्थान देकर , उसके अन्त:वासी बनकर , उससे शिक्षा पाता था । इस तथ्य के आधार पर जब हम मानते हैं कि वह परमात्मा हमारा सब से उत्तम गुरु होने के कारण हमारी यह कामना है कि वह हमारे हृदय में निवास करे । हम उसे अपने हृदय में आसीन कर उससे उत्तम बुद्धियों को उत्तम ज्ञानों को व उत्तम विचारों का ज्ञान प्रतिक्षण प्राप्त करते रहते हैं तथा हे प्रभु ! आपको अपने हृदयस्थ करते हैं तथा अपने ही अन्दर विद्यमान होने के नाते आप के ज्ञान को पाने के लिए हम सदैव ही यत्न करते रहते हैं ।
इस सूक्त के दूसरे मन्त्र में भी यज्ञ करने , सोमपान तथा दान से यह बात ही संकेत की गई थी । जब हम यज्ञशील होंगे, जब हम अपने सोम अर्थात अपने वीर्य की , अपनी शक्ति की रक्षा के लिए संयमी जीवन बनाएंगे तथा दान करेंगे , इस सब से यह ही भाव प्रकट किया गया है कि हम परोपकार की भावना को सम्मुख रखते हुए संयमी बनकर अपनी शक्तियों की रक्षा करते हुए शिक्षा प्राप्त करें तथा फ़िर प्राप्त ज्ञान का दान करें । इस प्रकार हम लोभ की भावना से उपर उठेंगे तो हे प्रभू ! क्योंकि आप हमारे अन्त: स्थित हैं , आपके अन्त:स्थित होने के कारण जो प्रकाश आप हमारे अन्दर दे रहे हैं उसके दर्शन हम क्यों न करेंगे ? अवश्य करेंगे ।
२. प्रभु हमें दान का पात्र समझे
मन्त्र में दूसरी बात का जो उपदेश किया गया है , वह यह है कि वह प्रभु हमें छोडकर अन्यों को ही अपने ज्ञान का दान न करे । इस का भाव यह है कि प्रभु हमें दान का पात्र समझे । कहीं एसा न हो कि हमें अपात्र समझ कर छोड दे तथा दूसरों को ही यह उतम ज्ञान बांटने लग जावे । इसलिए यहां प्रार्थना की है कि हम प्रभु से, उसका ज्ञान पाने के पात्र बनें । हम पुरुषार्थ कर अपने आप को इस योग्य बनावें कि हम उस प्रभु से ज्ञान पाने
के अधिकारी बनें ।
३. प्रभु हमारे हृदय में निवास करें
मन्त्र के इस तीसरे व अन्तिम खण्ड में प्रार्थना करते हुए जीव कह रहा है कि हे प्रभु ! आपका हमारे हृदय में निवास बना रहे । जैसे कि उपर उपदेश किया गया है कि ज्ञान के अभिलाषी प्राणी को गुरु ( परमात्मा ) के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक है । जब हम उस पिता से ज्ञान की कामना करते है तो उस पिता के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक हो जाता है । अत्यधिक समीपता हृदय से ही होती है । इसलिए हम उसे अपने हृदय में स्थापित करते हैं ,अपना अंत:वासी करते है ताकि उसके निकट रहते हुए , उससे सदा ही उत्तम ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करते रहें । एसा करने से ही हमारे प्रभु से सम्पर्क हो सकता है । प्रभू का यह सम्पर्क ज्ञान प्राप्ति के लिए ही तो होता है ओर किस लिए होता है ?
जब हम प्रभु को अपने हृदयस्त कर लेंगे तो वह प्रभु ही हमारे आचार्य होंगे, हम उस प्रभु के विद्यार्थी , उस प्रभु के शिष्य बन जावेंगे , तब ही हमे सुमति रुपि ज्ञान प्राप्ति का लाभ मिलेगा तथा हम कभी भी उस प्रभु से मिलने वाले ज्ञान के प्रकाश से रहित न होंगे ।

डा. अशोक आर्य