(अ) स्वयवर विवाह का अधिकार
महर्षि मनु, युवतियों को वैवाहिक स्वतन्त्रता का अधिकार देते हैं। विवाह के विषय में मनु के विचार आदर्श हैं। वे कन्याओं के लिए सोलह वर्ष से अधिक आयु को विवाह-योग्य मानते हैं और सहमतिपूर्वक विवाह को उत्तम मानते हैं। मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयवर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी है (9.90-91)। विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है तथा साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (9.176, 9.56-63)। उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतः विवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है (3.51-54)। यिों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझााव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन और दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए (9.89)। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-
त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।
ऊर्ध्वं तु कालादेतस्मात् विन्देत सदृशं पतिम्॥ (9-90)
अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्।
नैनः किंचिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति॥ (9-91)
अर्थ-विवाह करने की इच्छुक कन्या स्वयवर विवाह कर सकती है। ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद तक वह विवाह की प्रतीक्षा करे। उसके बाद उसे स्वयं पति का वरण करके विवाह करने का वैधानिक अधिकार है।
उस अवस्था में यदि वह विधिवत् स्वयवर विवाह करती है तो न तो उस कन्या को दोषी माना जायेगा और न पति को दोषी माना जायेगा।
(आ) गुणहीन पुरुष से विवाह नहीं–
महर्षि मनु पुरुष-पक्षपाती और अन्धश्रद्धा पर आधारित आदेश-निर्देश देने वाले विधिदाता नहीं हैं। वे दुष्ट पति को भी पति-परमेश्वर मानने के पक्षधर बिल्कुल नहीं है। उनके आदेश यथायोग्य न्याय पर आधारित होते हैं। मनु का आदेश है कि कन्या चाहे आजीवन कुंवारी रह जाये किन्तु उसे गुणहीन पुरुष से न तो विवाह करना चाहिए और न ऐसे पुरुष को पति स्वीकारना चाहिए-
काममामरणात्तिष्ठेत् गृहे कन्यर्तुमत्यपि।
न चैवेनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥ (9.89)
अर्थ-ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष बीत जाने पर भी चाहे कन्या आजीवन कुंवारी रही रहे किन्तु गुणहीन पुरुष से उसको विवाह कदापि नहीं करना चाहिए।