वैदिक धर्म प्रचार की शैली क्या हो?
सम्पूर्ण समय में सब कुछ विकसित या सब कुछ अविकसित नहीं हो सकता। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि सदा सब कुछ एक जैसा नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि समय को चलाने के लिये उसका थोड़ा होना भी बहुत होता है। हम उसे समाज का मुख भी कह सकते हैं। वह ही संसार में आगे चलता है। जैसे शरीर में मुख के अतिरिक्त बहुत कुछ है, परन्तु सब ज्ञानेन्द्रियाँ मुख पर ही आश्रित हैं, सारा शरीर उसी से चलता है। समाज को सभी वर्णों की आवश्यकता होती है, परन्तु समाज को विद्या और विज्ञान जानने वाला वर्ग ही चलाता है। पहले भी ऐसा ही था, आज भी ऐसा ही है और आगे भी ऐसा ही होगा। यदि विद्या वाला वर्ग सोचे कि वह कुछ नया नहीं जानेगा और समाज का संचालन करेगा, तो यह सोचना गलत होगा। तब तक समाज में उसका स्थान दूसरे ले चुके होंगे। ज्ञान ही मनुष्य को संचालित करेगा, चाहे वह किसी भी दिशा से आये या किसी भी भाषा से आये। जब कभी कोई संसार में प्रगति को अवरुद्ध करता है, तब गति की दिशा और स्थान बदल जाते हैं, परन्तु गति बनी रहती है। संसार में निरन्तर ऐसा ही होता रहता है।
इस बात को एक और तरह से भी समझ सकते हैं। इस जीवित शरीर में चेतना होने पर ही जीवन रहता है। चेतना के समाप्त होने पर शरीर तो रह सकता है, परन्तु उसमें जीवन नहीं हो सकता, इसी कारण मनुष्य शरीर के लिये सब कुछ करके भी अपने को अपूर्ण अनुभव करता है। यह अपूर्णता हमें पूर्णता के लिये कुछ करने को विवश करती है। यह विवशता धार्मिकता के बिना दूर नहीं हो सकती, इसे रूढ़िवादी धर्म कभी भी पूरा नहीं कर सकते। वैदिक धर्म की वैज्ञानिकता ही इस शरीर और आत्मा के प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ है।
जो लोग बिना ज्ञान के चलना चाहते हैं, उन्हें उनका आग्रह समाज में पीछे धकेल देता है। प्रायः हम धर्म के नाम पर अपने को एक स्थान पर बाँध लेते हैं और जब बँध जाते हैं तो हमारी गति रुक जाती है। संसार में सबसे अधिक ईसाई और मुसलमान हैं, उन्होंने धर्म और विज्ञान से अपने को विचित्र तरह से जोड़ा। इस्लाम की विचाराधारा ज्ञान-विज्ञान पर रोक लगाने वाली है, वहाँ प्रगति के लिये कोई स्थान नहीं। ईसाइयत ने इसे दो भागों में बाँट लिया है, गति के लिये विज्ञान का आश्रय लिया है, परन्तु धर्म के बन्धन को भी नहीं छोड़ा है, इसलिये वह विज्ञान को स्वीकार करने पर भी अपने धर्म को वैज्ञानिक नहीं बना सका। वैदिक धर्म ने जब तक अपने ज्ञान-विज्ञान को जीवित रखा, तब तक वह विज्ञान-सम्मत था, गति करता रहा। जब वह वैज्ञानिक सोच से वञ्चित हो गया, प्रगति से शून्य हो गया।
इस युग में ऋषि दयानन्द का आगमन वैदिक धर्म को विज्ञान-सम्मत बनाने का प्रयास था। धर्मों की लड़ाई में ऋषि दयानन्द की वैज्ञानिकता ने वैदिक धर्म को गति दी। उनके अनुयायियों ने धर्म को तो अपनाया, परन्तु वैज्ञानिक सोच को भूल गये या वह उनसे छूट गया, परिणाम स्वरूप उनकी लड़ाई अन्य धर्म वालों के साथ रह गई, वैज्ञानिकों के साथ छूट गई। दूसरे शब्दों में आर्य समाज शिक्षा, विद्या एवं विज्ञान के क्षेत्र में अपना स्थान नहीं बना सका। वह उन्हीं धार्मिक लोगों से लड़ता रहा और आज भी लड़ रहा है। हमारी लड़ाई विज्ञान के बिना और वैज्ञानिक लोगों से न होकर रूढ़िवादी धार्मिक लोगों के साथ रह गई है, जो वैज्ञानिक सोच बिल्कुल नहीं रखते। ऋषि दयानन्द के समय हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे ले जा सकी थी, परन्तु आज हमारी धार्मिक लड़ाई हमें आगे क्यों नहीं ले जा पा रही है- इसके विषय में विचार करने की आवश्यकता है।
प्रगति के अवरुद्ध होने का जो कारण हमारी समझ में आता है, वह यह है कि ऋषि दयानन्द के समय संसार भर में धर्म का प्रभाव अधिक था, विज्ञान का विकास थोड़ा था, प्रभाव भी थोड़ा था, इसलिये धर्म के नाम पर कही गई वैज्ञानिक बातों को धार्मिक लोग आसानी से स्वीकार कर लेते थे, परन्तु आज विज्ञान का अनुयायी वर्ग संसार में बहुत बढ़ गया है और धार्मिक वर्ग प्रतिशत में अधिक होने पर भी पहले से बहुत घट गया है, ऐसी स्थिति में आर्य समाज या वैदिक धर्म की लड़ाई वर्तमान धार्मिक परिस्थितियों में पिछड़ गई है। इसका एक कारण है- इन धार्मिक संगठनों का प्रभाव क्षेत्र, उनका संगठन तथा प्रचार तन्त्र और उसके लिये प्राप्त उनके साधन हमारी तुलना में हजारों गुना अधिक हैं। हमारे पास वैज्ञानिक विचार तो हैं, परन्तु इन विचारों को गति देने वाला तन्त्र नहीं है। नये विचारक उत्पन्न करने के साधन नहीं हैं, प्रतिभाशाली लोगों तक पहुँचने के उपाय भी नहीं, व्यक्ति भी नहीं। इस स्थिति में हमारे किये जाने वाले प्रयास समुद्र के सम्मुख बिन्दु जैसे भी नहीं दीखते। ऐसी परिस्थिति में क्या किया जा सकता है और क्या किया जाना चाहिए?
प्रथम जिस परिवेश और समाज में हम लोग रह रहे हैं, उसमें दोनों प्रकार के लोग हैं, एक वे जो अपने को धार्मिक कहते हैं और दूसरे वे जो अपने को प्रगतिशील या वैज्ञानिक सोच का व्यक्ति मानते और समझते हैं। वैदिक विचारों के लिये जो अवसर पहले था, आज भी वही है। विज्ञान कितना भी आगे क्यों न बढ़ गया हो, कितना भी विकसित क्यों न हुआ हो, आज भी शरीर के स्तर से आगे नहीं बढ़ा है। मनुष्य के लिये शरीर ही अन्तिम नहीं है। यहाँ आकर व्यक्ति अपने को वैज्ञानिक विचारधारा वाला मान कर स्वयं को धर्म से- रूढ़िवादिता से दूर कर लेता है, परन्तु अपने-आपको विज्ञान की खोज से सन्तुष्ट नहीं कर पाता। ऐसे लोग अपने को वैज्ञानिक मानते हैं, परन्तु धार्मिकता की परम्पराओं से स्वयं को दूर रखते हुए विज्ञान के अन्दर जो अभाव है, उसे पूरा करने के लिये अपने को अध्यात्मवादी कहते हैं। उनका मानना है कि भले ही वे धर्म के नाम पर पाखण्ड को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं, परन्तु सोचते कुछ और हैं, जिसे विज्ञान से अभी तक समझा नहीं जा सका है। इसी कारण वे अपने को धार्मिक (रिलीजियस) न कहकर अध्यात्मवादी (स्प्रिच्युलिस्ट) कहते हैं।
ऋषि दयानन्द ने अपने विचार समाज के बुद्धिजीवी वर्ग में ही रखे थे। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन काल में जितना प्रचार किया, साहित्य लिखा, उसका सम्पर्क तत्कालीन बुद्धिजीवी लोगों से रहा, जिसके कारण उनके विचारों का प्रभाव समाज के बुद्धिजीवी वर्ग पर देखा जा सकता है। राजा-महाराजा हों, न्यायाधीश, पत्रकार, विद्वान्, लेखक हों। सभी उनके विचारों से परिचित थे, चाहे लोग स्वामी जी के विचारों से सहमत हों या असहमत हों। इसी चर्चा के कारण देश में ही नहीं, देश के बाहर भी उनके विचारों की चर्चा, उनके जीवन काल में हम देख सकते हैं।
धीरे-धीरे आर्य समाज की चर्चा समाज में तो रही, परन्तु उसके केन्द्र से बुद्धिजीवी वर्ग बाहर होता गया, उस वर्ग के लोगों को आर्य समाज के विचार और सिद्धान्तों से परिचित होने का अवसर कम होता गया। इसके दो कारण रहे- एक तो शिक्षा के क्षेत्र में पठन-पाठन क्रम का पाश्चात्य विचारधारा वाले लोगों के हाथ में जाना, सरकार द्वारा इसी को स्वीकार करना। इस प्रयास से शिक्षा का प्रचार-प्रसार तो हुआ, परन्तु पूरा समाज दो भागों में बंट गया। एक अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित वर्ग अभिजात्य श्रेणी में आ गया, देसी भाषा में शिक्षा लेने वाले बहुसंख्यक शेष लोग पीछे रह गये। आर्य समाज का क्षेत्र जनसामान्य का क्षेत्र रहा, उनमें प्रचार तो हुआ, परन्तु विचारों का प्रसार नहीं हो सका, क्योंकि नई पीढ़ी के लोग इस देश में सामान्य लोग श्रोता तो हो सकते हैं, समाज के संचालक नहीं हो सकते, अतः संचालक तथाकथित शिक्षित वर्ग रहा। किसी भाषा के बोलने वाले बहुत हैं, इसलिये उनकी आवाज सत्ता पर प्रभावकारी हो, यह अनिवार्य नहीं है। अंग्रेज तो एक प्रतिशत भी नहीं थे, परन्तु उनकी सत्ता अंग्रेजी से चलती थी, आज यह संख्या समाज में पाँच प्रतिशत से भी अधिक है, अतः सत्ता ही मजबूत हुई है, समाज नहीं। शिक्षा में जो लोग हैं, उनतक वैदिक विचारों की पहुँच शून्य स्तर पर है, अतः समाज पर हम अपना विशेष प्रभाव डाले, ऐसी सम्भावना कम है।
सामान्य वर्ग परम्परागत धर्म व रुढ़िवाद के साथ बंधा है। उसे मन्दिर, मस्जिद, चर्च ने अपने साथ बांध रखा है, जिसका विकल्प आर्य समाज के पास नहीं है। उनसे बहुत परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती। शिक्षित और बुद्धिजीवी लोग भी उसी प्रकार धार्मिक अन्धविश्वास और परम्पराओं से बंधे हुए हैं, परन्तु उनको वैज्ञानिक विचारों से परिचित कराने पर उनमें स्वीकृति की सम्भावना अधिक होती है और उनकी स्वीकृति समाज पर प्रभावकारी होती है।
महर्षि दयानन्द का धर्म-वेद का धर्म, अध्यात्म और विज्ञान को एक साथ देखता है। आत्मा की अनुभूति की ओर जाने वाले मार्ग को वह धर्म कहता है और ज्ञान की प्राप्ति के मार्ग को विज्ञान कहता है। हम धर्म को विज्ञान समझे बिना ग्राह्य नहीं बना सकते। हमारी समस्या है- हम जिन्हें धार्मिक कहते हैं, वे सब विज्ञान विरोधी हैं, चाहे वे इस्लाम या ईसाइयत के अनुयायी हों या रूढ़िवादी हिन्दू कहलाने वाले लोग। जो कोरे वैज्ञानिक हैं, उन्हें धर्म के नाम से भी चिढ़ है और जो कट्टर धार्मिक हैं, उन्हें विज्ञान से सम्बन्ध रखने की इच्छा भी नहीं है। अब वे शेष रहते हैं, जो धर्म को नहीं मानते, पर वैज्ञानिक दृष्टि रखते हैं तथा विज्ञान सम्मत धार्मिक विचारों को सुनने के लिये और स्वीकार करने के लिये तैयार हैं। वे ही हमारे कार्य के क्षेत्र में होने चाहिए। इन लोगों का कोई परिभाषित या चिह्नित वर्ग नहीं है। प्रत्येक स्थान पर जिनकी वैज्ञानिक बुद्धि में जिज्ञासा विद्यमान है, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाये तो वे इन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। आज उनको केन्द्र में रखकर प्रचार करने की आवश्यकता है।
किसी भी विचारधारा के प्रचार-प्रसार में व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन लाना आवश्यक है। विज्ञापनों से प्रचार उन बातों का हो सकता है, जो मनुष्य की आवश्यकता है। चाहे फिर तेल, साबुन आदि या अन्य, उपभोग की वस्तु जिनके प्रति किसी भी मनुष्य का स्वाभाविक आकर्षण होता है। भाषणों से प्रचार तात्कालिक प्रभाव के लिये उपयोगी रहता है। आप कोई आन्दोलन चला रहे हैं, चुनाव लड़ रहे हैं, तब सार्वजनिक सभा, व्याख्यान अनिवार्य हो जाता है, केवल समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर या लेख देकर या पत्रक बाँटकर काम नहीं चलता, ये बातें सम्पर्क करने में सहायक अवश्य होती हैं, परन्तु इनसे प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती।
मत, सम्प्रदाय धार्मिक विचारों का प्रभाव तो व्यक्ति के साथ निकट सम्पर्क से ही पड़ता है। सार्वजनिक सभा वार्ता कथा सत्संग मनुष्य को निकट लाने के लिये साधन है। सत्संग, सभा, कथा, वार्ता से थोड़े समय के लिये मनुष्य के विचारों पर प्रभाव पड़ता है, परन्तु इसकी निरन्तरता के लिये कर्मकाण्ड की आवश्यकता होती है। कोई मनुष्य आपकी बात सुनके क्या करे? जिससे आप के द्वारा बताये गये लाभ उसे प्राप्त हो सके। इस कर्मकाण्ड में भी ऐसे आचार्य गुरुओं का भक्तों और शिष्यों से निरन्तर सम्पर्क रहना आवश्यक है। गुरु लोग यजमानों के घर पर जायें अथवा यजमान गुरुओं के आश्रम पर पहुँचकर अपने विचारों को पुष्ट करें। जहाँ आचार्य शिष्य या साधु, सन्त, भक्तों का सम्पर्क बनता है, वहाँ धार्मिक परम्परा चलती है। इसके स्थापित होने में बहुत समय लगता है और इसका क्षेत्र भी बहुत लम्बा नहीं हो पाता फिर आज के वातावरण में आर्य समाज या वैदिक विचारों को केवल प्रचार करने मात्र से नहीं फैलाया जा सकता। जिन लोगों की आजीविका, व्यापार या स्वार्थ पुरातन परम्परा से जुड़ा है, उनके द्वारा इन विचारों से परिचित होने पर उचित मानने पर भी स्वीकार करना कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में वैदिक धर्म या विचार के प्रचार-प्रसार करने का क्या उपाय हो?
हमें एक बात स्मरण रखनी चाहिए- समाज के तीन प्रतिशत लोग ही समाज को संचालित करते हैं, परन्तु इन तीन प्रतिशत लोगों का ज्ञानवान और समर्थ होना आवश्यक होता है। समाज में बुद्धिजीवी लोग यदि किसी बात को स्वीकार कर लेते हैं, तब शेष लोगों को उसे स्वीकार करने में संकोच या कठिनाई नहीं होती। जो स्थापित है, उनको समझाना सबसे कठिन है। विचारों के प्रचार के लिये सबसे सरल मार्ग है- बुद्धिजीवी युवकों को, जो अभी ऊँच शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनको इन विचारों से परिचित कराया जाय, वे बुद्धिजीवी होने के साथ युवा होने के कारण जो विचार उन्हें उचित लगते हैं, विचारों को अपनाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होती। यदि शिक्षा संस्थानों को विशेष रूप से महाविद्यालय विश्वविद्यालय को केन्द्र बना कर सर्वोच्च बुद्धि वाले युवकों को विचारों से जोड़ा जाय तो यह कार्य कुछ वर्षों में प्रभावकारी हो सकता है। पाँच से दस वर्षों में समाज पर प्रभाव परिलक्षित होने लगेगा तथा बीस वर्ष में आप इससे यथेच्छ परिणाम भी प्राप्त कर सकते हैं।
यह कार्य केवल कल्पना नहीं है अपितु महाराष्ट्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने जीवन के साठ वर्ष से अधिक समय इस पद्धति का प्रयोग कर इसकी सफलता का अनुभव किया है। किसी विचारधारा या संगठन के लिये दस-बीस वर्षों का समय बहुत नहीं होता। आवश्यकता है- योजना और निष्ठा से इस कार्य को करने की और धर्म का मूल वेद बुद्धिमानों के ही समझ में आ सकता है और उन्हीं के द्वारा इसका विस्तार भी हो सकता है।
हम कितने जिज्ञासुओं तक अपना समाधान पहुँचा सकते हैं, इस पर ही हमारी सफलता निर्भर करती है। ऋषि दयानन्द के विचार ही वैदिक धर्म को जीवित रख सकते हैं, ऐसा धर्म मनुष्यता को जीवित रख सकता है, जिससे वर्तमान और भविष्य दोनों का कल्याण हो। इसीलिये कहा है-
यतोऽभ्युदय निः श्रेयस् सिद्धिः स धर्मः।
– धर्मवीर