जब हम यह कहते हैं कि ‘मनुस्मृति’ विश्व का सर्वप्रथम संविधान है और मनु स्वायंभुव आदिराजा, आदि धर्मप्रवक्ता, आदिविधिप्रणेता है तो कुछ लोगों को यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। किन्तु है यह सत्य। प्राचीन बृहत्तर भारतवर्ष में, साथ ही दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में समाजव्यवस्था एवं दण्डव्यवस्था के निर्धारण में प्राचीन समय में मनुस्मृति के विधानों का वर्चस्व रहा है; इसका ज्ञान हमें प्राचीन भारतीय साहित्य, भाषाविज्ञान तथा अंग्रेजी शासनकालीन इतिहासों के उल्लेखों से होता है। सन् 1932 में, मनु और मनुस्मृति को प्राचीनतम शास्त्र बताने वाला एक चीनी भाषा का दस्तावेजाी प्राप्त हो चुका है जिसके अनुसार मनुस्मृति का अस्तित्व कम से कम 12-13 हजार वर्ष पूर्व था (देखिए अध्याय 1.5 में प्रमाण संया ‘क’ का विवरण)। वैदिक साहित्य में मनुस्मृति के रचयिता मनु स्वायभुव को केवल भारतीयों का ही नहीं अपितु मानवों का प्रमुख आदिपुरुष माना गया है। इसी कारण मनु स्वायंभुव को आदिविधि प्रणेता (First Law-giver)और उसके द्वारा रचित ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव धर्मशास्त्र’ को आदि संविधान (First Constitution) माना जाता है, क्योंकि स्वायंभुव मनु आदि सृष्टि की कालावधि का राजर्षि था।
प्राचीन भारतीय साहित्य के आधार पर
यदि हम कालनिर्धारण के आंकड़ों के गणित में न पड़कर केवल निष्कर्ष ही प्रस्तुत करें तो उसके अनुसार सभी भारतीय और पाश्चात्य वैदिक विद्वान् इस मान्यता पर एकमत हैं कि ‘ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ है।’ वेदों के बाद मिलने वाले समस्त भारतीय साहित्य में मनु की और उनके उपदेशों की चर्चा है। अतः स्पष्ट है कि वेदों के बाद समस्त भारतीय साहित्य से मनु और मनुस्मृति प्राचीन हैं। मनु ने मनुस्मृति में अपने द्वारा विहित धर्म-विधानों का स्रोत वेदों को ही घोषित किया है और वर्णव्यवस्थााी वेद से ग्रहण की है। इसका सीधा-सा अभिप्राय यह निकलता है कि मौलिक मनुस्मृति के आधारभूत शास्त्र केवल वेद ही हैं उनके बीच में अन्य कोई साहित्य नहीं है। इस आधार पर वेदों के बाद मनुस्मृति का कालक्रम आता है।
(क) भारतीय इतिहास-परपरा के अनुसार श्री राम का काल लाखों वर्ष पुराना है। अमेरिका के नासा द्वारा प्रक्षेपित उपग्रह ने लंका के समुद्रतल स्थित पुल के आधार पर इसकी पुष्टि कर दी है। महर्षि वाल्मीकि भी राम के समकालीन थे। उसी समय उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की। आदिकाव्य व सर्वाधिक प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘वाल्मीकि-रामायण’ में मनु वैवस्वत की वंश-परपरा का उल्लेख आता है जो प्रथम स्वायभुव मनु की वंश-परपरा में सातवां मनु है। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति के कई श्लोक उसमें उद्धृत मिलते हैं। बालि-वध के प्रसंग में राम अपने वध-कर्म को उचित ठहराते हुए मनु के दो श्लोकों को मान्य कानून के रूप में उद्धृत करते हैं, वे श्लोक मनुस्मृति के अध्याय 8.316, 318 में उपलध हैं। रामायण में वे श्लोक इस क्रम से उद्धृत हैं-
राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।
निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥
शासनाद् वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।
राजा त्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्विषम्॥
(किष्किन्धा काण्ड 18.30, 32)
अर्थ-मनुष्य पाप या अपराध करने के बाद राजाओं के द्वारा दण्ड दिये जाने पर अच्छे आचरण वाले लोगों के समान माने जाते हैं। फिर वे दोषरहित सुखी जीवन जीते हैं। राजा द्वारा दण्ड देने के बाद अथवा निर्दोष समझकर छोड़ देने के बाद चोर चोरी के अपराध से मुक्त हो जाता है। यदि राजा अपराधी को दण्ड नहीं देता तो उसका दोष राजा का माना जाता है।
(ख) उसके पश्चात् संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचना काल आता है (भारतीय परपरानुसार 10-12 हजार वर्ष पूर्व और पाश्चात्य मतानुसार 3-4 हजार वर्ष पूर्व)। उन ग्रन्थों में मनु के विधानों को समान के साथ स्मरण करते हुए प्रशंसित किया है-
‘‘मनुर्वै यत्किञ्च-अवदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’
(तैत्तिरीय संहिता 2.2.10.2; ताण्डय ब्राह्मण 23.16.7)
अर्थात्-मनु ने अपनी स्मृति में (व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए) जो कुछ कहा है, वह औषधों का भी औषध है अर्थात् औषध के समान कल्याणकारी है।
(ग) महाभारत से कुछ प्राचीन ग्रन्थ (भारतीय परपरानुसार 5150 वर्ष पूर्व, आधुनिक मतानुसार 3500 वर्ष पूर्व) ‘निरुक्त’ में एक प्राचीन महत्त्वपूर्ण श्लोक उद्धृत मिलता है, जिसमें दो ऐतिहासिक तथ्यों का एक साथ उल्लेख है। एक-मनु मानवसृष्टि के आदिकालीन राजर्षि हैं, दो-उन्होंने दायभाग में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार विहित किया है। स्पष्ट है कि उस समय भी मनु के विधान सर्वप्राचीन और उल्लेखनीय माने जाते थे। वह श्लोक है-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।
मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥ (3.4)
अर्थात्-‘पुत्र और पुत्री में बिना किसी भेदभाव के पैतृक सपत्ति का बंटवारा होता है’ यह विधान स्वायभुव मनु ने मानवसृष्टि के आदि में किया था।’
(घ) वर्तमान मनुस्मृति में उपलध अनेक श्लोकों और श्लोकांशों को महाभारत में स्वायभुव मनु के विधान के नाम से उद्धृत किया है। उनसे ज्ञात होता है कि महाभारत से पूर्व मनुस्मृति मान्य थी और उसका रचयिता मनु स्वायभुव ही है। यथा –
‘‘प्राङ्नाभिवर्धनात् पुंसः जातकर्मः विधीयते॥’’
‘‘तदास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते॥’’
‘‘तावच्छूद्रसमो ह्येषः यावद् वेदे न जायते॥’’
तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥
(वनपर्व 180.30-35)
इनमें से पहली पंक्ति मनुस्मृति 2.29 में, दूसरी 2.170, में तीसरी 2.172 श्लोक में उपलध है।
महाभारत में अनेक प्रसंगों में वर्तमान मनुस्मृति में उपलध दो सौ के लगभग श्लोक उद्धृत मिलते हैं (यथा-आदिपर्व 73.8-9, शान्तिपर्व 36.5-6, 335.44-46; आदि)। अनेक स्थलों पर उन श्लोकों को मनुप्रोक्त कहकर उद्धृत किया गया है।
(ङ) उनसे अर्वाचीन ग्रन्थ स्मृतियां और पुराण हैं, जिनका रचनाकाल भारतीय परपरानुसार महाभारतोत्तर और बौद्ध पूर्व है जबकि पाश्चात्य मतानुसार कुछ शतादी ईसा पूर्व है। प्रायः सभी में मनु का इतिवृत्त है और मनुविधानों का उल्लेख समान के साथ मिलता है। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-
वेदार्थोनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।
मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥
तावच्छास्त्राणि शोभन्ते तर्कव्याकरणानि च।
धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावन्न दृश्यते॥
(बृहस्पति स्मृति, संस्कारखण्ड 13-14)
अर्थ-वेदों के अर्थों के आधार पर रचित होने के कारण मनु की स्मृति ही सब शास्त्रों में प्रधान है। मनु के विधानों के विपरीत जो स्मृति है वह आदरणीय नहीं है। तर्कशास्त्र, व्याकरण शास्त्र आदि शास्त्रों की शोभा तभी तक है जब तक मनु का शास्त्र (मनुस्मृति) वहां नहीं होती। धर्म-अर्थ-मोक्ष-उपदेष्टा मनु के शास्त्र के समक्ष सभी शास्त्र फीके पड़ जाते हैं, अर्थात् गौण हैं।