प्राचीन भारतीय इतिहास और साहित्य में जो आदितम वंशावलियां उपलध हैं, उनके अनुसार, सृष्टि का आदिपुरुष ब्रह्मा है, जिसका एक नाम ‘स्वयभू’ भी है। उसका एक पुत्र (कहीं-कहीं पौत्र) मनु था। ‘स्वयभू’ वंश का पुत्र होने के कारण ही इस आदि मनु का नाम ‘स्वायभुव मनु’ कहलाता है। प्रजाओं की प्रार्थना पर और पिता ब्रह्मा के आदेश से यह प्रथम मनु सृष्टि का प्रथम राजा बना। मनु ने क्षत्रियवर्ण को ग्रहण कर राजा बनना स्वीकार किया। इस प्रकार मनु क्षत्रिय था। राजा होते हुए भी वह शास्त्रों के स्वाध्याय में संलग्न रहता था तथा उसका ऋषिवत् आध्यात्मिक एवं निर्लिप्त जीवन था, अतः वह ‘राजर्षि’ था। धर्म आदि विद्याओं का विशेषज्ञ होने के कारण यह ‘महर्षि’ था। संस्कृत-साहित्य में मनु के ‘आदि राजा’ होने का विवरण अनेकत्र मिलता है। कुछ विवरण यहां प्रस्तुत हैं।
(क) पिता ब्रह्मा के आदेश से स्वायभुव मनु सृष्टि का पहला राजा नियुक्त हुआ। उससे पहले न कोई राजा था, न राज्य था। सत्वगुणी लोग आत्मानुशासन से ही परस्पर सद्व्यवहार करते थे। धीरे-धीरे मनुष्यों में रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि होने लगी, बलवान् निर्बलों को सताने लगे। तब लोगों ने ब्रह्मा के पास जाकर किसी ऐसे को राजा बनाने की प्रार्थना की जो सबको व्यवस्था में चला सके। तब ब्रह्मा ने मनु को राजा बनने का आदेश दिया। मनु ने सबके कर्त्तव्यों-अकर्त्तव्यों का निर्धारण किया और सारे समाज को व्यवस्थित किया। मनु ने निर्धारित विधानों के अनुसार अपने शासन को व्यवस्थित किया और चलाया। इस कारण उसे ‘आदिराजा’ कहा जाता है। महाभारत में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार आता है-
सहितास्तदा जग्मुः– असुखार्ताः पितामहम्।
अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश॥
यं पूजयेम सभूय यश्च नः प्रतिपालयेत्।
ततो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः॥
बिभेमि कर्मणः पापात् राज्यं हि भृशदुस्तरम्।
विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा॥
तमब्रुवन् प्रजा मा भैः कर्तृनेनो गमिष्यति।
ततो महीं परिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
शमयन् सर्वतः पापान् स्वकर्मसु च योजयन्॥
(महाभारत, शान्तिपर्व अ0 67, 20-23, 32)
अर्थ-अराजकता से पीड़ित प्रजाएं एक साथ मिलकर पितामह ब्रह्मा के पास गयीं और बोलीं-हे भगवन्! बिना राजा के हम प्रजाएं विनष्ट हो जायेंगी इसलिए किसी उपयुक्त व्यक्ति को राजा नियुक्त कीजिये, जिसका हम सर्वोच्च समान करें और वह हमारा पालन-पोषण तथा रक्षा किया करे। ब्रह्मा ने मनु (स्वायंभुव) को राजा बन जाने का आदेश दिया किन्तु मनु को प्रजाओं का प्रस्ताव रुचिकर नहीं लगा। उसने कहा- राज्य करना एक कठिन कार्य है, विशेष रूप से मिथ्याचारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों पर शासन करना। मैं इस बात से डरता हूं कि मुझसे कोई पाप या अन्याय न हो जाये। तब प्रजाओं ने कहा-आप बिल्कुल मत डरिये, पाप तो पापकारियों को ही लगेगा। तब मनु राजा बनने के लिए तैयार हो गये। वे अपने शासन में सबको अपने-अपने कर्त्तव्य में नियुक्त राते हुए और पापों को शान्त करते हुए सर्वत्र इस प्रकार विचरण करते थे जैसे बरसने वाले मेघ आकाश में घूम-घूम कर तपन को शान्त करते हैं।
(ख) महर्षि वाल्मीकि-रचित रामायण में भी मनु को ‘आदिराजा’ बताया गया है-
‘‘आदिराजो मनुरिव प्रजानां परिरक्षिता’’
(बालकाण्ड 6.4, पश्चिमोत्तर संस्करण)
अर्थात्-‘दशरथ, आदिराजा स्वायभुव मनु के समान स्नेह से प्रजाओं की रक्षा करते थे।’
(ग) विष्णुपुराण में स्वायभुव मनु को ब्रह्मा का पुत्र कहा है और ब्रह्मा द्वारा उसको राजा नियुक्त करने का उल्लेख किया है। वही सबसे पहला राजा था-
ततो ब्रह्मा आत्मसभूतं पूर्वं स्वायभुवं प्रभुः।
आत्मानमेव कृतवान् प्रजापाल्ये मनुं द्विजः॥ (1.7.16)
‘‘स्वायभुवो मनुः पूर्वम्’’ (3.1.6)
अर्थात्-तब ब्राह्मणवर्णधारी ब्रह्मा ने अपने सगे पुत्र स्वायभुव मनु को प्रजापालनार्थ पहले राजा के रूप में नियुक्त किया। पुत्र को राजा बनाने पर यह अनुभव हो रहा था जैसे प्रभु ब्रह्मा ने स्वयं को ही राजा बनाया हो अर्थात् मनु गुणों में ब्रह्मा के सदृश था। यह स्वायभुव मनु आदिराजा था।
(घ) भागवत महापुराण के वर्णन से यह ऐतिहासिक तथ्य और अधिक सिद्ध और स्पष्ट हो जाता है। इस संदर्भ में मनु का पर्याप्त परिचय वर्णित किया गया है। जैसे-मनु ब्रह्मा का पुत्र था, आदिराजा था, उसका चक्रवर्ती राज्य था। उसकी राजधानी ‘ब्रह्मावर्त’ प्रदेश में थी। यह भी स्पष्ट किया है कि उसी स्वायभुव मनु ने ऋषियों को वर्णाश्रमों के धर्मों का उपदेश किया था-
प्रजापतिसुतः सम्राट् मनुः वियातमंगलः।
ब्रह्मावर्तं योऽधिवसन् शास्ति सप्तार्णवां महीम्॥
यः पृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान् नानाविधान् शुभान्।
नृणां वर्णाश्रमाणां व सर्वभूतहितः सदा।
एतद् आदिराजस्य मनोश्चरितमद्भुतम्॥
(3.22.25, 38, 39)
अर्थ-प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र सुवियात, यशस्वी मनु सम्राट्
(= चक्रवर्ती राजा) था, जो ब्रह्मावर्त प्रदेश को राजधानी बनाकर सातद्वीपों वाली पृथ्वी का शासन करता था। उसी स्वायभुव मनु ने मुनिजनों द्वारा पूछने पर मनुष्यों के वर्णों और आश्रमों के धर्मों का उपदेश किया था। वह सभी प्राणियों का हितैषी था। यह आदिराजा मनु का अद्भुत चरित्र है।
यही विवरण अन्य पुराणों में उपलब्ध है। द्रष्टव्य हैं-ब्रह्माण्ड पुराण 2.13.105, मत्स्यपुराण 3.44.5, 4.344.145.90, वायुपुराण 3.2.35, 3.23.47 आदि।