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मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल बाह्य साक्ष्य के आधार पर:डॉ. सुरेन्द कुमार

(1) आधुनिक समीक्षकों द्वारा वेदों के बाद सबसे प्राचीन माने गये तैत्तिरीय संहिता और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मनु के वचनों को औषध के समान कल्याणकारी माना है। यह कथन इस बात का संकेत है कि उस काल तक मनु की धर्मशास्त्रकार के रूप में याति और प्रामाणिकता सुस्थापित हो चुकी थी-

(क) ‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’

(तैत्ति0 सं0 2.2.10.2, 3.1.9.4; तां0 ब्रा0 23.16.7)

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में मनुवंशी राजा शर्यात मानव के राज्या-भिषेक का वर्णन है (8.11)। यह सातवें मनु वैवस्वत के पुत्र इक्ष्वाकु का वंशज है। उसी ब्राह्मण में एक श्लोक आता है जो प्रायः मनु के श्लोक का रूपान्तर है या भावानुवाद है-

मनु–     कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्।

         कर्मस्वयुद्यतःत्रेता   विचरंस्तु कृतं   युगम्॥ (9.302)

तैत्तिरीय ब्राह्मण में

         कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः।

         उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं सपद्यते चरन्॥     (7.15)

(ग) इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में मनु के श्लोक का यथावत् भाव वर्णित है-

मनु–     आ हैव   स   नखाग्रेयः परमं   तप्यते   तपः।

         यः स्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्॥

(2.167)

    शतपथ में-‘‘अलंकृतः सुहितः सुहितः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव स नााग्रेयस्तप्यते। य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते।’’ (11.5.7.4) इससे सिद्ध होता है कि मनुस्मृति ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से प्राचीन है और वह मानव सृष्टि के आदिकाल की है।

    (2) इसी मान्यता को निरुक्त ने मनु का मत उदृत करते हुए एक श्लोक से पुष्ट किया है-

    अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

    मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्॥ 3। 4॥

    अर्थात्-‘दायभाग में पुत्र और पुत्री, दोनों का समान अधिकार होता है’, यह विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदि काल में स्वायभुव मनु ने कहा है। यह मत वर्तमान मनुस्मृति के 9.130, 192 श्लोकों में निर्दिष्ट है। यहां ‘‘विसर्गादौ=मानव सृष्टि के आदिकाल’’ शद विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

(3) विभिन्न स्मृतियों में तो मनु का उल्लेख भी है और प्रशंसा भी। अनेक सूत्रग्रन्थों में भी मनु के नाम का तथा उसके मत का उल्लेख प्राप्त होता है। इनमें आश्वलायन श्रौतसूत्र [9.7.2; 10.7.1], आपस्तब श्रौतसूत्र [3.1.7; 3.10.35], वासिष्ठ धर्मसूत्र [1.17] आपस्तब धर्मसूत्र [2.14.11] बौधायन धर्मसूत्र [4.1.14, 4.2.16] गौतम धर्मसूत्र [21.7] आदि उल्लेखनीय हैं।

(4) वाल्मीकि-रामायण किष्किन्धा काण्ड 18.30, 32 में मनु के नामोल्लेख पूर्वक दो श्लोक उद्धृत पाये जाते हैं-‘श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चरित्रवत्सलौ’ [वा0रामा0किष्कि0 18.30] यहां स्पष्टतः गीतौ=‘मनु द्वारा गाये’ पद पठित हैं।

(क) वे दोनों श्लोक अग्रिम प्रसंग में है। बालि-सुग्रीव

द्वन्द्व-युद्ध में राम दूर खड़े होकर छुपकर बालि की हत्या कर देते हैं। मरणासन्न बालि राम के इस कृत्य को अधर्मानुकूल बताता है। राम उसका उत्तर देते हुए मनु के निन दो श्लोक प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हुए अपने कृत्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। ये दोनों श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में किंचित् पाठभेदपूर्वक 8.316, 318 में पाये जाते हैं-

राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।

निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥

शासनाद्वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।

राजात्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्विषम्॥

(ख) इनके अतिरिक्त वाल्मीकीय रामायण अयो0 107.12 में एक और श्लोक मिलता है, जो मनु0 9.138 में प्राप्त है। चतुर्थ पाद में पाठभेद के अतिरिक्त यह ज्यों का त्यों है। वहां यह श्लोक मनु के नाम के बिना उद्धृत है-

पुनानो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुतः।

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः पितृन् यः पाति सर्वतः॥

भारतीय प्राचीन मान्यता के अनुसार वाल्मीकि-रामायण राम के समकालीन है और राम का काल लाखों वर्ष पूर्व माना जाता है। पाश्चात्य एवं आधुनिक भारतीय विद्वान् रामायण का रचनाकाल ई. पू. तीसरी शतादी से छठी ईस्वी पूर्व तक मानते हैं, जो कल्पित है।

इनकेअतिरिक्त, रामायण में वर्णित राज्यव्यवस्था और चातुर्वर्ण्यव्यवस्था मनुस्मृति के अनुसार मिलती है। मनुस्मृति के समान रामायण में आठ अमात्यों की नियुक्ति का उल्लेख है। (बाल0 7.2)। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की रक्षा का दायित्व राजा का विहित है

(सुन्दर0 35. 11)।

  1. महाभारत में, कई स्थलों पर स्वायंभुव मनु को एक धर्मशास्त्रकार के रूप में उद्धृत किया है और कुछ स्थलों पर उनके नामोल्लेख के साथ उनके मत और श्लोकों को भी उद्धृत किया है। वे सभी मत और श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में पाये जाते है-

(क) दुष्यन्त-शकुन्तला प्रेम-प्रसंग में आठ-विवाहों का विधानकर्त्ता स्वायंभुव मनु को बताया है। जो मनु0 3.20-34 में वर्णित हैं-

‘‘अष्टावेव समासेन विवाहा……..मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्’’

(आदि0 73.8-9)

(ख) शान्ति. 36 अध्याय में, मनु0 1। 1-4 श्लोकों की घटना का यथावत् वर्णन करते हुए बताया है कि ऋषि लोग धर्मजिज्ञासा के लिए स्वायंभुव मनु के पास पहुंचे। वहां मनु द्वारा दिये गये उत्तर में कुछ श्लोक ऐसे प्राप्त होते हैं जो वर्तमान मनुस्मृति में भी हैं, उनमें कोई-कोई तो यथावत् है, कोई किंचित् पाठान्तर से है, तो कोई यथावत् भाव वाला है।1

(ग) शान्ति0 67। 15-30 में, आदिकाल में लूटपाट, अराजकता आदि से तंग हुई प्रजा द्वारा मनु को राजा के रूप में वरण करने की घटना दी हुई है। वह मनु ब्रहमा का पुत्र है, अतः वह भी स्वायंभुव मनु की घटना है।2 मनु को राजा बनाने के बाद प्रजा द्वारा जो करनिर्धारण किया गया है, यथा-‘पशु और सुवर्ण का पचासवां भाग कर देंगे’ यह करव्यवस्था वर्तमान मनुस्मृति 7। 130 में मिलती है- ‘‘पञ्चाशद् भाग आदेयो राजा पशुहिरण्ययोः।’’

(घ) शान्ति0 335। 44, 46 में एक धर्मशास्त्रकार के रूप में स्वायभुव मनु का ही वर्णन है-‘‘तस्मात् प्रवक्ष्यते धर्मान् मनुः स्वायभुवः स्वयम्’’ (44) ‘‘स्वायभुवेषु धर्मेषु’’ (46) आदि।3

इसके अतिरिक्त महाभारत में अनेक स्थलों पर केवल मनु का नाम देकर उसके श्लोक या भाव उद्धृत किये हैं। उनमें से बहुत-से श्लोक वर्तमान मनुस्मृति में यथावत् मिलते हैं और भाव तथा उनका गठन भी यथावत् है। यथा – शान्तिपर्व 56.24 (मनु0 9.321), आदिपर्व 73.9-10 (मनु0 3.21 में) आदि। वहां मनु का नाम इस प्रकार स्मृत है- ‘‘मनुना चैव राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना।’’

(शान्ति0 56.33)

  1. महात्मा बुद्ध के प्रवचनों में मनुस्मृति के श्लोकों का यथावत् अनुवाद मिलता है, जो यह सिद्ध करता है कि बुद्ध के लिए मनुस्मृति समान्य थी। बुद्ध लगभग 2550 वर्ष पूर्व जीवित थे। (द्रष्टव्य है प्रमाण गत अ0 1.3 में ‘भारत में मनुस्मृति की प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता’ शीर्षक में प्रमाण ‘च’)
  2. बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ रचना में अपने विचारों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को उद्धृत किया है। यह राजा कनिष्क [78 ई.] का समकालीन था।1
  3. ईस्वी पूर्व के ग्रन्थों पर दृष्टिपात करते हैं तो, यद्यपि, याज्ञवल्क्य स्मृति में विषयों का वर्गीकण नये ढंग से किया है और बहुत सारे नये विषय भी अपनाये हैं, किन्तु मनु से मिलते हुए जो भी विषय हैं उनमें ऐसा लगता है जैसे मनुस्मृति को सामने रखकर ही उनका अपने शदों में संक्षेपीकरण किया हो।2 इसका काल 102 ई. पू. माना जाता है। इस विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं कि मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति से पर्याप्त प्राचीन रचना है।
  4. इसी प्रकार आचार्य कौटिल्य के अर्थशास्त्र को [100-300 ई.पू.] पढ़ने पर प्रतीत होता है कि अपने बहुत-से नये विषयों के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ प्राचीन बातों के वर्णन में मनुस्मृति को आधार बनाकर वर्णन किया है।3 बहुत-से स्थलों पर मनु के मत का नामपूर्वक उल्लेख है।4 वर्तमान मनुस्मृति में 7.105 पर पाया जाने वाला निन श्लोक कौटिल्य अर्थशास्त्रप्र 10.अ. 14 में लगभग उसी रूप में पाया जाता है-

नास्य छिद्रं परो विद्यात् विद्याच्छिद्रं परस्य तु।

गूहेत्कूर्म   इवांगानि   रक्षेद्विवरमात्मनः॥

  1. भासकृत ‘प्रतिमानाटक’ [200-300 ई.पू., कुछ के मत में 400-500 ई.पू.] में रावण के मुख से उच्चारित वाक्य से यह संकेत मिलता है कि मास से पूर्व ‘मानवधर्म शास्त्र’ एक प्रसिद्धिप्राप्त शास्त्र था। वह वाक्य है-

‘‘रावणः- काश्यपगोत्रोऽस्मि सांगोपांगवेदमधीये मानवीयं

धर्मशास्त्रं, माहेश्वरं योगशास्त्रम्……….च’’ (पृ. 79)

  1. शूद्रकरचित ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक को इतिहासकार ई. पू. तीसरी शतादी की रचना मानते हैं। इसमें मनु के किसी ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करते हुए ‘ब्राहमण अवध्य है’ मनु का यह मत मनु के नामोल्लेखपूर्वकदियाहै –

अयं हि पातकी विप्रो न वध्यो मनुरब्रवीत्।        

राष्ट्रादस्मात्तु निर्वास्यो विभवैरक्षतैः सह॥ मृच्छ. 9। 39॥

  1. विश्वरूप [790-850 ई.] ने अपने याज्ञवल्क्य स्मृति-भाष्य और यजुर्वेदभाष्य में मनुस्मृति के लगभग दो सौ श्लोक उद्धृत किये है।1
  2. इससे परवर्ती मिताक्षरा के लेखक विज्ञानेश्वर [1040-1100 ई.] ने भी अपने भाष्य में मनुस्मृति के सैंकड़ों श्लोक उदृत किये हैं।2
  3. शंकराचार्य ने अपने वेदान्तसूत्र भाष्य में मनुस्मृति के कई श्लोक अपने विचारों की पुष्टि के लिए ग्रहण किये और कुछ श्लोकों के साथ तो मनु के नाम का स्पष्ट उल्लेख है।3
  4. 500 ई. में [कुछ के मतानुसार 200-400 ई.] जैमिनिसूत्र भाष्य में शबरस्वामी द्वारा मनु के मतों का उल्लेख किया मिलता है।

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल अन्तःसाक्ष्य के आधार पर: डॉ. सुरेन्द कुमार

  1. मनुस्मृति की शैली-मनुस्मृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति की रचनाशैली ‘प्रवचनशैली’ है, अर्थात् मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है। बाद में मनु के शिष्यों ने उनका संकलन करके उसे एक शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया है। मनुस्मृति के ‘भूमिकारूप’ प्रथम अध्याय के पहले चार श्लोकों के ‘‘मनुम्…..अभिगय महर्षयः …….वचनमब्रुवन् (1। 1),‘‘ भगवन् सर्ववर्णानां……धर्मान्नो वक्तुमर्हसि’’ (1। 2) ‘‘त्वमेको अस्य सर्वस्य…..कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो’’ (1। 3) ‘‘प्रत्युवाच….महर्षीन् श्रूयताम् इति’’ (1। 4) आदि वचनों से ज्ञात होता है कि अपने मूलरूप में मनुस्मृति महर्षियों की जिज्ञासा का महर्षि मनु दिया गया उत्तर है, जो प्रवचनरूप में है। ये सभी श्लोक और विशेषरूप से ‘‘सः तैः पृष्टः’’ (1। 4) पदप्रयोग यह सिद्ध करता है कि इसे बाद में अन्य व्यक्ति ने संकलित किया है। मनुस्मृति की प्रवचन शैली और 1। 1-4 श्लोकों में वर्णित घटना, जिसमें कि महर्षि लोग केवल मनु के पास धर्मजिज्ञासा लेकर आते हैं और फिर मनु ही उसका उत्तर देते हैं, तथा सपूर्ण मनुस्मृति में प्रारभ से अन्त तक मनु द्वारा 1। 4 से प्रारभ की गई कहने-सुनाने की क्रियाओं का उत्तम पुरुष के एकवचन में प्रयोग, ये बातें यह सिद्ध करती हैं कि मनुस्मृति का प्रवक्ता मनु नामक राजर्षि और महर्षि है।
  2. प्राचीन काल से अद्यावधि पर्यन्त इस ग्रन्थ का मनुस्मृति ‘या’ ‘मानवधर्मशास्त्र’ नाम प्रचलित होना भी इसे मनुप्रोक्त सिद्ध करता है।
  3. यह मनु स्वायभुव ही है। इस बात को मनुस्मृति में स्पष्ट भी किया है और विभिन्न स्थलों पर मनु के साथ स्वायभुव विशेषण का प्रयोग भी किया है। प्रचलित मनुस्मृति में बीच-बीच में लगभग तीस स्थलों पर मनु का नामोल्लेखपूर्वक वर्णन है। उनमें छह स्थलों पर स्पष्टतः ‘स्वायभुव’ विशेषण का प्रयोग कियाहै।1 ये उल्लेख भी मनुस्मृति का प्रवक्ता स्वायभुव मनु को ही सिद्ध करते हैं।
  4. निन श्लोकों में मनुस्मृति का रचयिता स्वायंभुव मनु को बतलाया गया है-

    (क)   इदं शास्त्रं तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादितः।

          विधिवद् ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन्॥

          स्वायभुवस्यास्य मनोः षडवंश्या मनवोऽपरे॥

(1॥ 58,61॥

    (ख)   स्वायभुवो मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत्॥ 1। 102॥

यतोहि भृगु स्वायभुव मनु का शिष्य था। (1। 34-35,3। 194, 12। 2) अतः उसके शिष्य भृगु के वचनों में उल्लिखित मनु भी स्वायभुव मनु ही है, जिसको शास्त्र का कर्त्ता कहा है-

    (ग)   यथेदमुक्तवान् शास्त्रं पुरा पृष्टो मनुर्मया॥ 1। 119॥

    (घ)   एवं स भगवान् देवो लोकानां हिकायया।

          धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं सर्वमुक्तवान्॥12। 117॥

    (ङ)   ‘‘मानवस्यास्य शास्त्रस्य’’ 12। 107॥

    (च)   ‘‘एतन्मानवं शास्त्रम् भृगुप्रोक्तम्’’ 12। 126।

यद्यपि मेरे अनुसन्धानकार्य के आधार पर ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं, अतः मौलिकवत् प्रामाणिक नहीं है; किन्तु फिर भी इन्हें ऐतिहासिक सन्दर्भ में पारपरिक जनश्रुति के समान पोषक आधार के रूप में ग्रहण किया है। इन सबमें मनु स्वायभुव को मनुस्मृति का रचयिता कहा गया है।

  1. ऐतिहासिक ग्रन्थ, ब्रह्मावर्त प्रदेश में स्थित बर्हिष्मती नगरी को स्वायभुव मनु की राजधानी मानते हैं। मनुस्मृति में ब्रह्मावर्त प्रदेश को धर्मशिक्षा, सदाचार का केन्द्र घोषित करके सर्वोच्च महत्त्व दिया गया है। [1। 136-139 (2।17-20)]। इसी क्षेत्र में मनुस्मृति का प्रवचन-प्रणयन हुआ था। इससे भी मनुस्मृति का रचयिता स्वायभुव मनु होने का संकेत मिलता है।
  2. मनु के काल का अनुमान लगाने में मनुस्मृति तथा मनुस्मृति से भिन्न भारतीय साहित्य में प्राप्त वंशावलियां भी सहायक हैं। मनुस्मृति में तीन स्थानों पर मनु के वंश की चर्चा है-(क) ब्रह्मा से विराज, विराज से मनु, मनु से मरीचि आदि दश ऋषि उत्पन्न हुए (1। 32-35)। (ख) ब्रह्मा से मनु ने धर्मशास्त्र पढ़ा, मनु से मरीचि, भृगु आदि ने। यह विद्यावंश के रूप में वर्णन है। (1। 58-60)

(ग) हिरण्यगर्भ=ब्रह्मा के पुत्र मनु हैं और मनु के मरीचि आदि। (3। 194)। यद्यपि मनुस्मृति के प्रसंगों में ये तीनों ही स्थल प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, किन्तु पारपरिक जनश्रुति के रूप में यदि इन्हें स्वीकार करें तो स्वायभुव मनु, पुत्र के रूप में ब्रह्मा से दूसरी पीढ़ी में वर्णित है। यही तथ्य इसके स्वायंभुव (स्वयंभू=ब्रह्मा, उसका पुत्र) विशेषण से स्पष्ट होता है।

महाभारत तथा पुराणों में भी वंशावलियां प्राप्त हैं। उनमें भी मनु को ब्रह्मा का पुत्र बताया गया है अथवा शिष्य के रूप में उसका सीधा सबन्ध ब्रह्मा से वर्णित है (आदि0 1.32; शान्ति0 335.44)।

प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा को आदि सृष्टि में माना जाता है और भारत का प्रत्येक ज्ञात जन्म-वंश तथा विद्या-वंश ब्रह्मा से ही प्रारभ होता है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का काल भी आदिसृष्टि में स्थिर होता है।

  1. मनुस्मृति और उसकी भाषा – यह कहा जाता है कि मनुस्मृति की भाषा बड़ी सुबोध, सरल लौकिक भाषा है। वह पाणिनि के व्याकरण का अनुगमन करती है। अतः वर्तमान मनुस्मृति पर्याप्त अर्वाचीन है।

यह ठीक है कि मनुस्मृति की भाषा सुबोध और सरल लौकिक भाषा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इस कारण इसको अर्वाचीन भाषा कहा जाये। मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है, जिसका सबन्ध सर्वमान्य रूप से सभी जनों से है। इसमें लोगों के आचार-विचार से सबन्धित निर्देश हैं। अतः ऐसे ग्रन्थ की भाषा का सुबोध, सरल होना स्वाभाविक भी है, और आवश्यक भी। प्राचीन काल में साहित्यिक भाषा के रूप में वैदिक भाषा का प्रयोग था तो व्यवहार में लौकिक संस्कृत का प्रयोग था।

मनुस्मृति में कुछ पूर्वपाणिनीय प्रयोग भी मिलते हैं। इसमें पाये जाने वाले वैदिक प्रयोग और वैदिक प्रयोगशैली, इसे मूलतः पाणिनि पूर्व एवं वैदिकालीन संकलन सिद्ध करते हैं। यथा

    (क) ‘‘मेत्युक्त्वा’’ [8। 57] मे + इत्युक्त्वा’ सन्धि पाणिनीय नहीं है। इसमें इकार का पूर्वरूप छान्दस (वैदिक) है।

(ख) ‘‘हापयति’’ [3.71] का ‘छोड़ता है’ अर्थ है। यहां प्रेरणार्थक न होकर प्रकृत्यर्थ (मूल अर्थ) में ‘णिच्’ छान्दस है।

(ग) 2.169-171 श्लोकों में ‘मौञ्जीबन्धन’ और ‘‘मौञ्जिबन्धन’’ पदों के प्रयोग में विकल्प से ह्रस्व छान्दस प्रयोग है।

(घ) ‘उपनयनम्’ के अर्थ में ‘‘उपनायनम्’’ प्रयोग [2.36] पूर्व पाणिनीय है। यहां दीर्घ को, पाणिनि ने व्याकरणसमत न होते हुए भी शिष्टप्रयोग मानकर ‘‘अन्येषामापि दृश्यते’’ [अष्टा0 6.3.137] सूत्र में स्वीकार कर लिया है।

(ङ) 1.20 में ‘‘आद्याद्यस्य’’ प्रयोग है। यह ‘‘आद्यस्य-आद्यस्य’’ होना चाहिये था, किन्तु पहले ‘आद्यस्य’का सुप् लुक् छान्दस प्रयोग के कारण माना गया है (‘सुपां सुलुक्……’ अष्टा0 7.1, 39)।

    (च) वैदिक भाषा की प्रयोग शैली-‘‘आ हैव स नखाग्रेय :’’ [2.167], ‘‘पुत्रका इति होवाच’’ [2.151] ‘‘पितृणामात्मनश्च ह’’ [9.28] आदि प्रयोग वैदिक शैली के हैं।

इसकी भाषा के विषय में एक संभावना यह भी दिखायी पड़ती है कि पहले इसमें वैदिक प्रयोगों की अधिकता थी, जो धीरे-धीरे बदली जाती रही। क्योंकि यह सर्वसामान्य जनों से सबन्ध रखने वाला ग्रन्थ था, अत : इसकी भाषा में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहा। ऐसे उदाहरण हमारे सामने विद्यमान हैं, जिनसे यह संभावना पुष्ट होती है। वाल्मीकि-रामायण के दाक्षिणात्य, वंगीय और पश्चिमोत्तरीय, ये तीन संस्करण प्रसिद्ध हैं एवं प्रचलित हैं। इनमें दाक्षिणात्य पाठ में अभी भी वैदिक प्रयोगों का बाहुल्य है, जबकि अन्य संस्करणों में अधिकांश को बदलकर लौकिक कर दिया गया है। यही स्थिति मनुस्मृति के साथ भी संभव है। ऐसा इसलिए भी संभव प्रतीत होता है कि कालक्र म की दृष्टि से मनु सब ऋषियों से प्राचीन हैं और उनकी स्मृति सर्वाधिक प्रसिद्ध रही है।

  1. मनुस्मृति में केवल वेदों [1। 21, 23; 3। 2; 11। 262-264; 12। 111-112 आदि] और वेदांगों [2। 140, 241] का ही उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख भी एक विद्या के रूप में है न कि किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा रचित ग्रन्थ के रूप में। इसकी पुष्टि के लिए दो तर्क दिये जा सकते हैं-(क) इन विद्याओं के साथ न तो कहीं रचयिता का संकेत है और न ग्रन्थरूप का। (ख) 12। 111 में इन विद्याओं के ज्ञाताओं का ‘हेतुक : ‘तर्की’ ‘नैरुक्तः धर्मपाठकः’ आदि विद्याविशेषणों से परिगणन किया है, न कि किसी ग्रन्थविशेष के ज्ञाता के रूप में। एक-एक विद्या पर विभिन्न आचार्यों के ग्रन्थ प्राप्त हो रहे हैं। किसी भी ग्रन्थ का उल्लेख न होना और अन्य ब्राह्मण, उपनिषद् आदि विधाओं का उल्लेख न मिलना यह सिद्ध करता है कि यह स्मृति उन सबसे पूर्व की रचना है।

मनुस्मृति का आधार केवल वेद ही हैं। मनु सीधे वेद से विज्ञात बातों को ही धर्मरूप में वर्णित करते हैं और उसी को आधार मानने का परामर्श देते हैं [1.4, 21, 23; 2.128, 129, 130, 132; 12.92-93, 94, 97, 99, 100, 106, 110-112, 113 आदि]। वेद और मनुस्मृति के बीच अन्य किसी ग्रन्थ का उल्लेख न मिलना यह इंगित करता है कि यह मूलतः उस समय की रचना है जब धर्म में केवल वेदों को ही आधारभूत महत्त्व प्राप्त था, अन्य ग्रन्थों को इस योग्य प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं थी। यह समय अत्यन्त प्राचीन ही था।

मनुस्मृति प्रवक्ता और प्रवचनकाल: डॉ. सुरेन्द कुमार

मनुस्मृति के प्रवक्ता और उसके काल-निर्धारण सबन्धी प्रश्न का यह समाधान आज के लेखकों को सर्वाधिक चौंकाने वाला है। कारण यह है कि वे पाश्चात्य लेखकों द्वारा कपोलकल्पित कालनिर्धारण के रंग में इतने रंग चुके हैं कि उन्हें परपरागत सत्य, असत्य प्रतीत होता है; और कपोलकल्पित असत्य, सत्य प्रतीत होता है। आंकड़ों के अनुसार, परपरागत और पाश्चात्यों द्वारा निर्धारित मनुस्मृति के काल-निश्चय में दिन-रात या पूर्व-पश्चिम का मतान्तर है। यह तथ्य है कि भारतीय मत की पुष्टि एक सपूर्ण परपरा करती है। परपरागत सपूर्ण वैदिक एवं लौकिक भारतीय साहित्य ‘मनुस्मृति’ या ‘मानवधर्मशास्त्र’ को मूलतः मनु स्वायभुव द्वारा रचित मानता है और मनु का काल वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल मानता है। इस प्रकार आदिकालीन स्वायभुव मनु की रचना होने से मनुस्मृति का काल भी वेदों के बाद वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल है।

कुछ पाश्चात्य लेखक और उनकी शिक्षा-दीक्षा से अनुप्राणित उनके अनुयायी आधुनिक भारतीय लेखक मनुस्मृति का रचनाकाल 185-100 ई0 पूर्व ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग के जीवनकाल में मानते हैं। यह मत प्रो0 यूलर द्वारा निर्धारित है और तत्कालीन पाश्चात्य लेखकों द्वारा मान्य है। इस मतान्तर पर अपना निर्णय देने से पूर्व मैं यहा पाश्चात्यों द्वारा स्थापित मान्यताओं एवं कालनिर्धारण के मूल में उनकी मानसिकता, लक्ष्य एवं उसकी अप्रामाणिकता पर कुछ चर्चा विस्तार से करना अत्यावश्यक समझता हूं।

यह स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक और धार्मिक निहित लक्ष्य की पूर्ति हेतु, हजारों वर्ष पुराने भारतीय इतिहास और साहित्य की घोर उपेक्षा करके, केवल 150 वर्ष पूर्व, कपोलकल्पना द्वारा कुछ नयी मान्यताएं गढ़ीं और नये सिर से एक काल्पनिक कालनिर्धारण प्रस्तुत किया। भारतीय इतिहास को अपने स्वार्थ के अनुरूप परिवर्तित, विकृत और अस्त-व्यस्त किया। भारतीय इतिहास, संस्कृति, सयता, ऐतिहासिक व्यक्ति आदि प्राचीन सिद्ध न हों, इस कारण उन्हें ‘माइथोलॉजी’ ‘मिथक’ कहकर अप्रामाणिक बनाने का प्रयास किया। मैक्समूलर ने स्वयं स्वीकार किया है कि वैदिक साहित्य और वेद आदि का काल आनुमानिक है। आगे चलकर तो उन्होंने इनके कालनिर्धारण में असमर्थता भी प्रकट कर दी थी। फिर भी आज हम उनके कालनिर्धारण को प्रमाणिक मान रहे हैं और परपरागत भारतीय कालनिर्धारण को अप्रामाणिक कह रहे हैं, जबकि तटस्थ अंग्रेज और यूरोपियन लेखकों ने उनको प्रमाणिक नहीं माना है। वर्तमान में प्रचलित मनु और मनुस्मृति का कालनिर्धारण (185-100 वर्ष ई0 पू0) उपनिवेशवादी अंग्रेजों की ही कपोल-कल्पित देन है।

वास्तविकता यह है कि ज्यों-ज्यों पुरातत्व-विज्ञान, भाषाविज्ञान, भूगोल, ज्योतिष-संबंधी नवीन खोजें हुई हैं, त्यों-त्यों उन अंग्रेज लेखकों द्वारा स्थापित मान्यताएं एक-एक करके ढही हैं और भारतीय स्थापनाओं में बहुत की समग्रतः या अधिकांशतः पुष्टि हुई है। अंग्रेजों और उनके अनुयायियों ने बाइबल तथा डार्विन के विकासवाद के आधार पर मनुष्य की उत्पत्ति कभी दस हजार वर्ष पूर्व बताई थी और भारतीय साहित्य में वर्णित लाखों वर्ष पूर्व मानव के अस्तित्व विषयक संदर्भों को गप्प कहा था। आज के वैज्ञानिक दस हजार से हटकर दो लाख वर्ष पूर्व तक की मान्यता पर पहुंच गये हैं। पचास से पैंतीस हजार वर्ष पूर्व की तो अस्थियां भी पायी गई हैं। उन्होंने एक अरब छियानवे करोड़ के भारतीय सृष्टिसंवत् को सुनकर उसे महागप्प कहकर मखौल उड़ाया था। मैडम क्यूरी की रेडियम की खोज ने उसकी पुष्टि कर दी। अमेरिका की उपग्रह-संस्था ‘नासा’ ने पिछले दिनों उपग्रह के द्वारा भारत-श्रीलंका के बीच समुद्र में डूबे पुल को खोजा और उसका काल लाखों वर्ष पूर्व निर्धारित किया। एक गणना के अनुसार, यह रामायण के काल से मिलता है। महाभारत को काल्पनिक मानने वाले लोगों को, पाश्चात्य ज्योतिषी बेली ने ग्रहयुति के ज्योतिषीय आधार पर बताया कि महाभारत युद्ध 3102 ईसा पूर्व हुआ था।

महाभारत में वर्णित श्रीकृष्ण की ‘द्वारका’ नगरी को पुरातत्वविद् डॉ0 एस.आर. राव ने खोज निकाला। अमेरिका के मैक्सिको में मिले ‘मय-सयता’ के अद्भुत अवशेषों ने वैदिक काल के मय वंश को प्रमाणित कर दिया। ‘इंडिया इन ग्रीस’ में मिस्र के प्राचीन इतिहास के आधार पर बताया गया है कि वहां के निवासी हेमेटिक लोग ‘मनु वोवस्वत्’ (वैवस्वत) के वंशज हैं और उनके पिरामिडों में मिलने वाला सूर्यचिन्ह उस आदि पुरुष के सूर्यवंश का प्रतीक है। तुर्की और भारत में खुदाई में मिले वैदिक सयता के सूचक विभिन्न पुरावशेषों का काल पन्द्रह हजार वर्ष ईस्वी पूर्व तक आंका गया है।

कहने का अभिप्राय यह है कि नवीन खोजों के सन्दर्भ में, कुछ अंग्रेजों द्वारा प्रस्तुत कालनिर्धारण अर्थहीन और मूल्यहीन हो चुका है। आज वे कल्पित स्थापनाएं धराशायी हो चुकी हैं। ऐसे में उनको स्वीकार करने का औचित्य ही नहीं बनता। हां, यह कटु सत्य है कि कुछ लोग और वर्ग अपने नकारात्मक पूर्वाग्रहों, निहित स्वार्थों और निहित सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए उपनिवेशवादी अंग्रेजों द्वारा कल्पित मान्यताओं एवं काल-सीमाओं को बनाए रखना चाहते हैं।

अधिकांश विचारक इस मत से सहमत हैं कि मनुस्मृति का मूल प्रवक्ता मनु है और वह भी आदिकालीन ब्रह्मा का पुत्र स्वायभुव मनु ही है। इस मत को वर्णित करने वाली एक सपूर्ण साहित्यिक परपरा मिलती है। मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं। इस सबन्ध में प्राप्त सामग्री के आधार पर दो प्रकार से विचार किया जा सकता है-