अंग्रेजी शासन में कुछ शासनभक्त लेखकों को जब संस्कृत भाषा को विश्व की अधिकांश भाषाओं की जननी मानने और मनु व्यक्तिवाचक शद को मानव आदि नामों का मूल मानने में जब यह आभास हुआ कि इससे तो भारतवासी हमसे प्राचीन और सय माने जायेंगे तो उन्होंने इन मान्यताओं में भ्रान्ति पैदा करके इन्हें बदल डाला। कहा गया कि संस्कृत जननी नहीं अन्य भाषाओं की बहन है, जननी तो कोई अन्य भाषा थी, जिसका नाम ‘भारोपीय भाषा’ कल्पित किया गया। इसी प्रकार कहा गया कि मानव आदि नामों का मूल मनु चिन्तनार्थक शद है, व्यक्तिवाचक नहीं।
इस नयी भ्रामक स्थापना का समाधान संस्कृत की वैज्ञानिक पद्धति से हो जाता है। संस्कृत व्याकरण की सुनिश्चित प्रक्रिया है, जो नियमों में बंधी है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘मनु’ शद से जो प्रत्यय जुड़कर ‘मानव’ आदि शद बने हैं वे व्यक्तिवाचक शद से पुत्र या वंशज अर्थ में जुड़े हैं, अतः उनका व्याकरणिक अर्थ ‘मनु के पुत्र या वंशज’ ही होगा, अन्य नहीं। जैसे-मनु से ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘मानव’ बना है, ‘षुग्’ आगम और ‘यत्’ प्रत्यय होकर ‘मनुष्य’ तथा ‘अञ्’ प्रत्यय और ‘षुग्’ आगम होकर ‘मानुष’, मनु के साथ ‘जन्’ धातु के योग से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘मनुज बना है। यहां चिन्तन अर्थ प्रासंगिक नहीं बनता।
वंशज होने की पुष्टि प्राचीन भारतीय इतिहास, विदेशी इतिहास वैदिकसाहित्य के उल्लेख भी कर रहे हैं। वंशावली भी इसी तथ्य का समर्थन करती है। अतः कुछ लेखकों द्वारा स्थापित नयी मान्यता सर्वथा गलत है।