पाश्चात्य तथा आधुनिक लेखकों के मतानुसार वेदों के बाद संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल आता है। ये वैदिक साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इन वैदिक ग्रन्थों से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक भारत में मनु और मनुस्मृति की सर्वोच्च प्रतिष्ठा, प्रामाणिकता तथा वैधानिक मह ाा रही है। देश-विदेश के लेखकों के अनुसार, महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित, नियमबद्ध, नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पद्धति सिखायी है। वे मानवों के आदिपुरुष हैं, वे आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज व्यवस्थापक और राजनीति-निर्धारक, आदि राजर्षि हैं। मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का जनता में प्रवर्तन किया। उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज ‘मनुस्मृति’के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है। अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों और राजाओं की मिलती है, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है।
(क) प्राचीनतम वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है-
‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भैषजम्’’
(तै िारीय संहिता २.२.१०.२; ताण्डय ब्राह्मण २३.१६.७)
अर्थात्-मनु ने जो कुछ कहा है, वह मानवों के लिए भेषज=औषध के समान कल्याणकारी एवं गुणकारी है।
संहिता-ग्रन्थों का यह वचन यह सिद्ध करता है कि उस समय मनु के धर्मशास्त्र को सर्वोच्च प्रामाणिक माना जाता था। धर्मनिश्चय में उसका सर्वाधिक मह व था। एक ही रूप में कई ग्रन्थों में पाया जानेवाला यह वाक्य इस बात की ओर भी इंगित करता है कि मनु का धर्मशास्त्र उस समय इतना लोकप्रिय हो चुका था कि वह औषध के तुल्य हितकारी और कल्याणकारी-गुणकारी के रूप में स्वीकृत था। इसी कारण उसके विषय में उपर्युक्त उक्ति भी प्रसिद्ध हो चुकी थी।
(ख) निरुक्त में, महर्षि यास्क ने दायभाग में पुत्र-पुत्री के समान-अधिकार के विषय में किसी प्राचीन ग्रन्थ का श्लोक उद्धृत करके मनु के मत का प्रमाण रूप में उल्लेख किया है। वह श्लोक है-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।
मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.४)
अर्थ-‘कानून के अनुसार, दायभाग के विभाजन में, पुत्र-पुत्री में कोई भेद नहीं होता अर्थात् उन्हें समान दायभाग मिलता है।’ यह विधान, मानवसृष्टि के आरम्भिक काल में मनु स्वायम्भुव ने किया था।
मनु का यह समानाधिकार सम्बन्धी मत प्रचलित मनुस्मृति के ९। १३०, १९२, २१२ श्लोकों में वर्णित है। यथा-
यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥ (९। १३०)
जैसी अपनी आत्मा है, वैसा ही पुत्र होता है और पुत्र के समान ही पुत्री होती है, उस आत्मारूप पुत्री के रहते हुए कोई दूसरा धन को कैसे ले सकता है, अर्थात् पुत्र के साथ पुत्री भी धन की समान अधिकारिणी होती है।
(ग) वाल्मीकि-रामायण में, बालि और सुग्रीव के परस्पर युद्ध के अवसर पर, राम द्वारा बालि पर प्रहार किये जाने पर घायल बालि राम के उस कृत्य को अनुचित एवं अधर्मानुकूल ठहराता है। तब राम अपने उस कृत्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए मनुस्मृति के वचनों को प्रमाणरूप में प्रस्तुत करते हैं और दो श्लोक उद्धृत करके अपने कार्य को धर्मानुकूल सिद्ध करते हैं। वे दोनों श्लोक प्रचलित मनुस्मृति में किञ्चित् पाठान्तर से ८। ३१६, ३१८ में पाये जाते हैं। उन वचनों से भी ज्ञात होता है कि राम के समय मनुस्मृति को धर्मनिश्चय में अत्यधिक प्रामाणिकता, प्रसिद्धि, मान्यता और मह ाा प्राप्त की थी। (श्लोक आगे पृ० ५८ पर उद्धृत)
(घ) महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु को विशिष्ट प्रामाणिक स्मृतिकार के रूप में वर्णित किया है। महाभारत के निम्न श्लोक से ज्ञात होता है कि उस समय मनु के वचनों को कुतर्क आदि के द्वारा अखण्डनीय माना जाता था-
पुराणं मानवो धर्मः वेदाः सांगाश्चिकित्सकम्।
आज्ञासिद्धानि चत्वारि, न हन्तव्यानि हेतुभिः॥
(महा० अनु० अ० ९२)
अर्थ-‘पुराण अर्थात् ब्राह्मणग्रन्थ, मनु द्वारा प्रतिपादित धर्म, सांगोपांग वेद और आयुर्वेद, इनका आदेश सिद्ध है। इन चारों का हेतुशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि के द्वारा खण्डन नहीं करना चाहिए।’
(ङ) आचार्य बृहस्पति ने तो अपनी स्मृति में स्पष्ट श दों में मनुस्मृति को सर्वोच्च मान्य स्मृति घोषित किया है। उसकी प्रामाणिकता और मह ाा की उद्घोषणा करते हुए और उसकी प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं-
वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।
मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥
तावच्छास्त्राणि शोभन्ते तर्कव्याकरणानि च।
धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावत्र दृश्यते॥
(बृह० स्मृति संस्कारखण्ड १३-१४)
अर्थात्-वेदार्थों के अनुसार रचित होने के कारण सब स्मृतियों में मनुस्मृति ही सबसे प्रधान एवं प्रशंसनीय है। जो स्मृति मनु के मत से विपरीत है, वह प्रशंसा के योग्य अथवा ग्राह्य नहीं है। तर्कशास्त्र, व्याकरण आदि शास्त्रों की शोभा तभी तक है, जब तक धर्म, अर्थ, मोक्ष का उपदेश देने वाला मनु-धर्मशास्त्र उपस्थित नहीं होता अर्थात् मनु के उपदेशों के समक्ष सभी शास्त्र मह वहीन और प्रभावहीन प्रतीत होते हैं।
(च) महात्मा बुद्ध अपने उपदेशों में मनुस्मृति के श्लोकार्थ उद्धृत कर मनु को सम्मान देते थे। धम्मपद बौद्धों का धर्मग्रन्थ है। उसमें महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं। महात्मा बुद्ध का काल लगभग २५०० वर्ष पूर्व है। मनु के श्लोकों का पालि भाषा में रूपान्तरण धम्मपद में मिलता है। इसका भाव यह है कि मनुस्मृति बौद्धों में भी मान्य रही है। दो उदाहरण देखिए-
मनु– अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥ (२.१२१)
धम्मपद में–
‘‘अभिवादनसीलस्स निच्चं बुढ्ढापचायिनो।
च ाारो धम्मा वड्ढन्ति आयु विद्दो यसो बलम्॥’’ (८.१०)
मनु– न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। (२.१५६)
धम्मपद में– ‘‘न तेन थेरोसि होति येनस्स पलितं सिरो।’’ (१९.५)
(छ) बौद्ध महाकवि अश्वघोष ने, जो राजा कनिष्क का समकालीन था, जिसका कि समय प्रथम शता दी माना जाता है, अपनी ‘वज्रकोपनिषद्’ कृति में अपने पक्ष के समर्थन में मनु के श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है।१
(ज) विश्वरूप ने अपने यजुर्वेदभाष्य और याज्ञवल्क्य स्मृति भाष्य में मनु के अनेक श्लोकों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया हैं।
(झ) शंकराचार्य ने वेदान्तसूत्रभाष्य में मनुस्मृति के पर्याप्त प्रमाण दिये हैं।
(ञ) ५०० ई० में जैमिनि-सूत्रों के भाष्यकार शबरस्वामी ने अपने भाष्य में मनु के अनेक वचनों का उल्लेख किया है।
(ट)याज्ञवल्क्य स्मृति के एक अन्य भाष्यकार विज्ञानेश्वर ने याज्ञवल्क्य-स्मृति के श्लोकों की पुष्टि के लिए मनु के श्लोकों को पर्याप्त संख्या में उद्धृत किया है।
(ठ) गौतम, वशिष्ठ, आपस्तम्ब, आश्वलायन, जैमिनि, बौधायन आदि सूत्रग्रन्थों में भी मनु का आदर के साथ उल्लेख है।
(ड) आचार्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में बहुत से स्थलों पर मनुस्मृति को आधार बनाया है और कई स्थलों पर मनु के मतों का उल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त भी बहुत सारे ऐसे ग्रन्थ हैं, जिन्होंने अपनी प्रामाणिकता और गौरव बढ़ाने के लिए अथवा मनु के मत को मान्य मानकर उद्धृत किया है।
(ढ) वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया है।
(ण) बादशाह शाहजहां के लेखकपुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई, मुसलमान ‘आदम’ कहकर पुकारते हैं।
(त) गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया है। उन्होंने ‘दशम ग्रन्थ’ में एक पूरा काव्य संदर्भ मनु के विषय में वर्णित किया है।
(थ) आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में सर्वाधिक प्रमाण माना है।
(द) श्री अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रूप में सम्मान दिया है।
(ध) श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, भारत के राष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन्, भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को ‘आदि लॉ गिवर’ के रूप में उल्लिखित किया है।
(न) अनेक कानूनविदों- जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दू लॉ-सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथॉरिटी’ घोषित किया है।
(प) मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं० नेहरू ने, तथा जयपुर में डॉ० अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर.वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था।
(फ) सभी स्मृति-ग्रन्थों एवं धर्मशास्त्रों में, प्राचीनकाल से लेकर अब तक सर्वाधिक टीकाएं एवं भाष्य, मनुस्मृति पर ही लिखे गये हैं और अब भी लिखे जा रहे हैं। यह भी मनुस्मृति की सर्वोच्चता एवं सर्वाधिक प्रभावशीलता का द्योतक है।
आजकल भी पठन-पाठन, अध्ययन-मनन में मनुस्मृति का ही सर्वाधिक प्रचलन है। हिन्दू कोड बिल एवं हिन्दू विधान का प्रमुख आधार मनुस्मृति को माना जाता है। अनेक संदर्भों में, आजकल भी न्यायालयों में न्याय दिलाने में मनुस्मृति का मह वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के प्रसंग में मनुस्मृति का उल्लेख अनिवार्य रूप से होता है और इससे मार्गदर्शन भी प्राप्त किया जाता है।