संसार के प्रथम विधिनिर्माता महर्षि मनु ने पैतृक सपत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है। उनका यह मत मनुस्मृति के 9.130, 192 में वर्णित है। मनु के उस मत को प्रमाण मानकर आचार्य यास्क ने निरुक्त में इस प्रकार उद्धृत किया गया है-
(क) अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।
मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥ (3.4)
अर्थात्-‘सृष्टि के प्रारभ में स्वायभुव मनु ने यह विधान किया है कि धर्म अर्थात् कानून के अनुसार दायभाग = पैतृक सपत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है।’ इसी प्रकार मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृद्धि की है (9.131)। इस विषय में महर्षि मनु का स्पष्ट मत यह है-
(ख) यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।
तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥ (9.129)
अर्थ-‘पुत्र अपने आत्मा का ही एक रूप होता है, उस पुत्र के समान ही पुत्री भी आत्मारूप होती है, उनमें कोई भेद नहीं। जब तक आत्मारूप पुत्र और पुत्री जीवित हैं तब तक माता-पिता का धन उन्हें ही मिलेगा, अन्य कोई उसका अधिकारी नहीं है।’
(ग) एक अन्य धन-विभाजन में माता और भाई के धन में क्रमशः पुत्र-पुत्रियों और भाई-बहनों का समान भाग वर्णित किया है –
जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः।
भजेरन् मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥ (9.192)
सोदर्या विभजेरन् तं समेत्य सहिता समम्।
भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥ (9.212)
अर्थ-‘माता के देहान्त के पश्चात् सभी सगे भाई और सगी बहनें मातृधन को बराबर बांट लें।’
‘इसी प्रकार किसी अविवाहित भाई के मर जाने पर सभी सगे भाई व बहनें मिलकर उसके धन को बराबर बांट लें।’
इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि मनु ऐसे पहले संविधान-निर्माता हैं जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के पुत्र-पुत्री को समान माना है और बराबर दायभाग प्रदान किया है।