उपप्रयन्तोऽअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्रये।
आरेऽअस्मे च शृण्वते।।
-यजु. ३/११
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि गौतम है और देवता अग्रि=जगदीश्वर है। मन्त्र का विषय निरूपित करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘अथेश्वरेण स्वस्वरूपमुपदिश्यते’ अर्थात् इस मन्त्र में ईश्वर ने अपने स्वरूप का उपदेश किया है। ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इस बात का ज्ञान हमें इस मन्त्र द्वारा होता है। मन्त्र में परमेश्वर को यथार्थ श्रोता कहा गया है। वह सबकी स्तुतियों, प्रार्थनाओं, याचनाओं को यथार्थरूप में सुनता है। यह विचारणीय है कि उसके सुनने के साधन क्या हैं और कैसे सुनता है? क्या ईश्वर को सुनने के साधन हम जीवात्माओं के समान श्रोत्रादि हैं? इसका सीधा उत्तर नहीं में है।
जीवात्माओं को तो शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और अन्त:करण चतुष्टय प्राप्त हैं। उन्हीं के द्वारा जीवात्मा अपना सब व्यवहार सम्पादित करता है, परन्तु परमेश्वर को जीवात्मा जैसे शरीरादि की आवश्यकता नहीं है। वह तो इन साधनों के बिना सब कार्य बड़ी कुशलता से निष्पादित करता है, क्योंकि वह अशरीरी (निराकार), सर्वज्ञ, सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी तथा परमैश्वर्यवान् है। अब यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि परमेश्वर श्रोत्रादि साधन के बिना कैसे सुनता है? सुनना तो श्रोत्रेन्द्रिय से ही होता है, फिर श्रोत्रेन्द्रिय के बिना सुनना कैसे हो सकता है? इस आशंका का समाधान यह है कि वह व्यापक और सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् होने से सब कुछ देखता, सुनता, जानता है।
‘यत्तददृश्यम्’ इस मुण्डकोपनिषद् के वचन से यह विदित होता है कि वह अदृश्य, निराकारादि स्वरूप वाला है। महर्षि ने यह वचन ऋ. भा. भूमिका के वेद विषय विचार के अन्तर्गत उद्धृत किया है। वहाँ प्रकरण वेद और ईश्वर का है। इस वचन के साथ और भी अनेक वेद, शास्त्रों, उपनिषदों के प्रमाणों को प्रस्तुत किया है। मुण्डकोपनिषद् के इस वचन के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाणों का अर्थ संस्कृत एवं भाषाभाष्य में उपलब्ध होता है, परन्तु मुण्डकोपनिषद् के उद्धृत वचन का न तो संस्कृत में और न ही भाषाभाष्य में अर्थ मिलता है। सम्भवत: सुगमार्थ (सरलार्थ) होने से अर्थ नहीं किया होगा। ऐसा भूमिका में अन्यत्र भी दृष्टिगोचर होता है, जैसे ऋ. भा. भूमिका के सृष्टिविद्या विषय के अन्तर्गत ‘न मृत्युरासीत्’ इत्यादि मन्त्र सुगमार्थ हैं इसलिये इनकी व्याख्या भी यहाँ नहीं करते, किन्तु भाष्य में करेंगे। अत: मुण्डकोपनिषद् के वचन को सरलार्थ (सुगमार्थ) मानकर वहाँ अर्थ न दिया होगा।
पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने उक्त मुण्डकोपनिषद् के वचन के अर्थ विषय में भावार्थ यथास्थान कोष्ठक के अन्दर बढ़ाते हुए लिखा है कि ‘यत्तददृश्यम्’ अर्थात् उस ब्रह्मा का ज्ञानेन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता, हस्त से पकड़ा नहीं जा सकता, उसका कोई गोत्र वा वर्ण नहीं, वह नेत्र और कर्णरहित है, उसके हाथ और पाँव नहीं, वह नित्य है, व्यापक है, सर्वान्तर्यामी है, सुसूक्ष्म है, नाशरहित है……।
अतएव इस औपनिषदिक वचन से विदित होता है कि परमेश्वर निराकार, चक्षुरादि इन्द्रियरहित होने पर भी सबका दृष्टा, श्रोता है, क्योंकि वह सर्वगत अर्थात् सर्वत्र व्याप्त होने से सब कुछ देखता सुनता व जानता है। बृहदारण्यकोपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे गार्गी! उस अक्षर ब्रह्म के विषय में विद्वान् लोग कहते हैं कि वह ‘अस्थूलम् अनणु…….अचक्षुम्…….अश्रोत्रम्’…….. इत्यादि विशेषणयुक्त है। अचक्षुकम् का अभिप्राय यह है कि वह अविनाशी, सर्वज्ञ अक्षर ब्रह्मं चक्षुरादि इन्द्रियों से भिन्न होने से ‘अचक्षुकम्’ कहा है। वह सर्वगत (व्यापक) होने से बिना चक्षु के सब कुछ देखता है। चक्षु का अर्थ पंचमहायज्ञ विधि में लिखा है कि
‘एष एवैतेषां प्रकाशकलात् बाह्याभ्यन्तरयो:
चक्षु:’ ‘चक्षु:’ ‘सर्वदृक्’
अर्थात् वह परमात्मा बाहर और अन्दर सबका द्रष्टा है। विश्वतश्चक्षु: पद का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि ‘सर्वस्मिञ्जगति चक्षुर्दर्शनं यस्य स:’ अर्थात् सब जगत् पर चक्षु-दृष्टि रखने वाला है।
परमेश्वर का कर्तृत्व:- सत्यार्थ प्रकाश में परमेश्वर के कर्तृत्व को समझाते हुए उन्होंने लिखा है कि
पूर्व.- जब परमेश्वर के श्रोत्र, नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं है, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?
उत्तर-अपाणिपादो जवनोग्रहीता पश्यत्यचक्षु: स शृणोत्यकर्ण:।
स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रं पुरुषं पुराणम्।।
यह उपनिषद् (श्वेता ३-१९) का वचन है। परमेश्वर के हाथ नहीं, परन्तु अपने शक्तिरूप हाथ से सब रचन, ग्रहण करता, पग नहीं, परन्तु व्यापक होने से सब अधिक वेगवान्, चक्षु का गोलक नहीं, परन्तु सबको यथावत् देखता, श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बात सुनता, अन्त:करण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्त:करण से होने वाले काम अपने सामथ्र्य से करता है।
वह ब्रह्म अश्रोत्र है। अक्षर, ब्रह्म, श्रोत्र-भिन्न है। तुलसीदास ने उक्त वचन का काव्यानुवाद करते हुए कहा है कि ‘बिनु पग चलै सुनै बिनु काना’ प्रकृत वेदमन्त्र तो यह भाव ‘शृण्वते’ पद से अभिव्यक्त कर रहा है कि विज्ञान स्वरूप, सबका अन्तर्यामी, व्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर सबके अन्दर-बाहर व्याप्त हो रहा है। उसकी व्याप्ति के बिना कोई वस्तु नहीं है। अग्रिस्वरूप परमेश्वर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने से सबको देखता, जानता व सुनता है। इसलिये सब मनुष्यों को वेदमन्त्रों द्वारा उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी चाहिये।
वर्तमान समय में पाखण्ड का बोलबाला है। ईश्वर की उपासना में भी ढोंग चल रहा है। जो अविद्वान् व अयोगी हंै, वे लोग ही ईश्वर की पूजा (उपासना) आदि का मूर्ति रचकर प्रपंच करते हुए भोली जनता का पाखण्ड से द्रव्यहरण कर रहे हैं। इसी प्रकार यज्ञादि में भी नाना प्रकार का आडम्बर (ढोंग) का बाहुल्य हो रहा है। अवैदिक कृत्यों का समाज में बहुत प्रचार होता जा रहा है। यज्ञों में वेदमन्त्रों के स्थान पर मनुष्य रचित ग्रन्थों के श्लोकों, वाक्यों को पढक़र आहुतियाँ दी जा रही हैं। इस प्रकार यज्ञीय पाखण्ड फैल रहा है। यजुर्वेद का यह मन्त्र यह बतला रहा है कि यज्ञीय सब शुभकर्म वेद-मन्त्रों के द्वारा ही सम्पादित करने चाहिएँ।
महर्षि दयानन्दकृृत मन्त्रार्थ:
(अध्वरम्) क्रियामय यज्ञ को (उप प्रयन्त:) उत्तमरीति से सम्पादित (निष्पादित) करते हुए और जानते हुए हम लोग (अस्मे) हमारे (आरे) दूर और (च) चकार से समीप भी (शृण्वते) यथार्थ सत्यासत्य को सुनने वाले (अग्रये) विज्ञानस्वरूप अन्तर्यामी जगदीश्वर के लिये (मन्त्रम्) विज्ञान के निमित्त वेदमन्त्रों को (वोचेम) उच्चारण करें। अर्थात् वेदमन्त्रों से जगदीश्वर की स्तुति करें।
भावार्थ:- मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति का यज्ञानुष्ठान करके एवं जो ईश्वर अन्दर और बाहर व्यापक होकर सब सुन रहा है, उससे डरकर अधर्म करने की कभी इच्छा भी न करें। जब मनुष्य इस ईश्वर को जानता है, तब यह उसके समीपस्थ तथा जब इसको नहीं जानता, तब दूरस्थ होता है, ऐसा समझें।
ईश्वरस्वरूप दर्शन:- प्रस्तुत मन्त्र का देवता अग्रि=जगदीश्वर है। परमेश्वर अग्रि के समान सर्वत्र सबके अन्दर और बाहर व्यापक हो रहा है। इसी कारण उसको अन्तर्यामी कहा जाता है। विज्ञानस्वरूप होने के कारण वह सबकी सुनता व सब कुछ जानता है। इस कारण उससे डरकर अधर्म, पापाचरण कभी न करना चाहिए। जब मनुष्य ईश्वर को अच्छी प्रकार जानता है, तब वह उसके समीप होता है और जब ईश्वर के स्वरूप को नहीं जानता अथवा ईश्वर को नहीं जानता, तब वह उससे दूर होता है।
विशिष्ट पद विचार:- १. आरे:- आचार्य यास्क ने इस पद को निघण्टु ३/३६ में ‘दूर’ नामों में पढ़ा है। इस कारण महर्षि ने इस पद का अर्थ ‘दूर’ किया है।
२. अध्वर:- निरुक्त शास्त्र में यास्काचार्य ने इस ‘अध्वरम्’ पद की निरुक्ति करते हुए लिखा है कि
‘अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध:’
अर्थात् ‘अध्वर’ यह यज्ञ नाम है। जिसका अर्थ हिंसा-रहित कर्म है। चारों वेदों में यज्ञ के पर्याय अथवा कहीं-कहीं विशेषण के रूप में अध्वर पद का प्रयोग पाया जाता है।