भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून बनाने का दायित्व राज्य का होगा। यह एक सलाह के रूप में उल्लिखित है। यह संविधान 1950 में लागू किया गया और तब से आज तक विभिन्न प्रकार की समितियाँ, आयोग इत्यादि गठित किए गए लेकिन समर्थन और प्रतिरोध दोनों के बीच में भारत के सभी नागरिकों के लिए समान व्यवस्था का कोई भी सर्वसम्मत निर्णय नहीं लिया जा सका है।
आज का ज्वलन्त प्रश्न मुस्लिम महिलाओं के लिए तीन तलाक है। उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में काशीपुर निवासी 42 वर्षीया सायरा बानो ने सबसे पहले सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक, निकाह-हलाला तथा बहु-विवाह के प्रावधानों को चुनौती दी। यही वह याचिका थी जिससे केवल मुस्लिम समाज में ही नहीं अपितु तथाकथित धर्म-निरपेक्षता का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ और उनके पोषक बुद्धिजीवियों में हाहाकार मच गया। मुस्लिम समाज के प्रमुख मौलवी, उलेमा इस बात का दावा करते हैं कि ये परम्पराएँ शरीयत के अन्तर्गत हैं और इनमें परिवर्तन से उसके मूलभूत अधिकारों का अतिक्रमण होगा। ध्यातव्य है कि शरीयत में संशोधन आजादी से पूर्व कितनी ही बार हो चुका है। सन् 1772 में वारेन हेस्टिंग्स के समय में मुस्लिम कोड बिल तैयार किया गया तो काजी के स्थान पर अंगेे्रज जजों ने उस अधिकार को लिया। सन् 1843 में शरीयत में उल्लिखित गुलाम-प्रथा को समाप्त किया गया। सन् 1860 में इस्लामी अपराध कानून के स्थान पर भारतीय दण्ड संहिता (इंडियन पेनल कोड) को लागू किया गया। सन् 1861 में जाब्ता फौजदारी कानून (क्रिमिनल प्रोसिजर कोड) तथा 1872 ई. में साक्षी अधिनियम (एविडेंस एक्ट) लागू किया गया। यही नहीं मुस्लिम महिलाओं की गवाही पुरुषों की गवाही के बराबर मानने का प्रावधान भी किया गया। पहले दो महिलाओं की समान गवाही को एक पुरुष की गवाही के बराबर माना जाता था। 1882 ई. में जाब्ता दीवानी (सिविल प्रोसिजर कोड) तथा सम्पत्ति हस्तान्तरण अधिनियम (ट्रान्सफर प्रॉपर्टी एक्ट) सभी के लिए बनाया गया। ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व के कितने ही मुस्लिम देश शरीयत को विदाई दे चुके हैं। इण्डोनेशिया में एक प्रान्त को छोडक़र शेष भाग में हॉलैण्ड के डच बोर्ड के आधार पर सिविल लॉ बनाया गया। तुर्की में स्विस कोर्ट के आधार पर कानून बनाया गया। जबकि मिस्र के कानून फ्रांस के आधार पर बने हैं। ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान एवं पश्चिम अफ्रीका के कई मुस्लिम देशों में शरीयत लागू नहीं होती। ईरान, पाकिस्तान, सीरिया, लेबनान और ट्यूनीशिया में भी व्यापक स्तर पर परिवर्तन किए गए हैं और भारत के गोवा प्रान्त में तो एक समान नागरिक कानून मुसलमानों सहित सभी जनता पर लागू है….. रूस, चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका, म्यांमार, यूरोपीय देशों और अमेरिका को मिलाकर 150 से अधिक देशों में सब पंथों, धर्मों के लोग समान कानून के अंतर्गत रहते हैं, फिर भारत में क्यों नहीं रह सकते।
यह देखा गया है कि इस्लाम में तलाक को निन्दनीय और अवांछनीय माना गया है। जिसमें तलाक के उपरान्त तलाकशुदा स्त्री के भरण-पोषण और बच्चों के विकास के लिए उचित प्रबन्ध होना चाहिए। लेकिन वर्तमान में मोबाइल, स्पीड पोस्ट से, पत्र द्वारा या दूरभाष पर ही तलाक-तलाक-तलाक कहकर शरीयत कानून के तहत तलाक की इतिश्री समझ ली जाती है। आज मुस्लिम महिलाओं के हक-हकूकों के साथ गहराई और व्यापकता के साथ विचार-विमर्श किया जा रहा है और यह तब और प्रासंगिक हो गया है जबकि केन्द्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है जिसमें उन्होंने चुनाव प्रचार के मध्य तीन तलाक पर विचार किए जाने का उल्लेख किया था। मानवीय दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो पुरुष और नारी के मध्य बराबरी का हक है इसलिए केवल तलाक-तलाक-तलाक मात्र कह देने से जीवनसाथी को पृथक् किया जाना वर्तमान परिप्रेक्ष्य में न्यायसंगत नहीं होगा। अत: बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, धर्म-सुधारकों और सोशल एक्टिविस्टों को इस विषय में जागरूक होकर इसका न्यायसंगत समाधान निकालना ही होगा। विधि आयोग के अध्यक्ष एवं पूर्व न्यायमूर्ति बलवीर सिंह चौहान द्वारा वर्तमान समय में इसे प्रासंगिक मानते हुए संविधान के अनुच्छेद 21 पर बहस किये जाने का सुझाव दिया गया है। क्योंकि इसके अंतर्गत नागरिकों के जीवन के संरक्षण और उनकी निजता की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाती है।
संविधान में जब धर्म, पंथ, जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव न किए जाने का प्रावधान किया गया है तब सायरा बानो की याचिका पर अक्टूबर 2015 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संज्ञान लिया गया। यह आज के ज्वलंत प्रश्न की प्रासंगिकता को स्वयं रेखांकित कर देता है। यह भी आश्चर्य का विषय है कि केन्द्र सरकार के अतिरिक्त अन्य दलों ने इस विषय में लिखित में अपना मत न तो विधि आयोग को प्रस्तुत किया और न ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय को ही प्रेषित किया है। यह स्पष्टत: उनकी इस विषय पर अवधारणा को स्पष्ट करता है, जो वर्तमान परिप्रक्ष्य में समीचीन नहीं कही जा सकती।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यदि भारत में समान आचार संहिता पर सर्वसम्मति से विचार किया जाता है तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करके मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट 1937 के अनुच्छेद 2 की संवैधानिक स्थिति पर सवाल खड़ा किया है। यही वह एक्ट है जिसके जरिए शरीयत एक से ज्यादा शादियों, तीन तलाक और निकाह हलाला जैसी रवायतों को जायज ठहराती है। याचिका में मुस्लिम विवाह एक्ट 1939 के बेमानी होने की बात भी कही गई है।
यह वास्तव में चिन्तनीय प्रश्न है कि मुस्लिम महिलाओं की प्रस्थिति अन्य भारत की महिलाओं के समान क्यों नहीं होनी चाहिए, यह मानवाधिकार के अन्तर्गत आता है। भारतीय संस्कृति प्राचीन काल से महिला और पुरुषों को समान अधिकार के रूप में स्वीकार करती रही है। यहां तक कि विवाह-विच्छेद (तलाक) का स्पष्ट शब्द वहाँ उल्लिखित नहीं है। हाँ, विशेष शर्तों के साथ एक विवाह के बाद दूसरा विवाह करने की परम्परा मौर्य काल में प्रचलन में थी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा केन्द्र सरकार से इस बाबत मांगी गई टिप्पणी में केन्द्र सरकार ने स्पष्ट सूचित किया कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं की गरिमा (डिग्निटी) सामाजिक स्तर (सोशल स्टेटस) पर प्रभाव डालता है जिससे संविधान में मिले उनके मूलभूत अधिकारों की अनदेखी होती है। भारत की कुल आबादी में मुस्लिम महिलाओं की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत है। केन्द्र सरकार ने यह भी कहा कि लैंगिक असमानता का बाकी समुदायों पर दूरगामी असर होता है। यह बराबर की साझेदारी को रोकती है और संविधान में दिए गए हक से भी रोकती है। मुस्लिम महिलाएं तीन तलाक और ज्यादा शादियों के भय से डर और खतरे में जीती हैं। केन्द्र सरकार ने तीन तलाक निकाह, हलाला और कई शादियों जैसी प्रथाओं का विरोध किया है। इस विषय में इस्लामिक देशों में अपनाये जा रहे कानून का भी केन्द्र सरकार ने उल्लेख किया है।
इस सम्बन्ध में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने उक्त प्रावधानों से शरीयत का बचाव किया है। उसने तर्क दिया है कि महिला की हत्या होने की अपेक्षा उसे तलाक दिया जाये, यही ठीक है और धर्म में मिले हुए हकों पर कानून की अदालत में सवाल नहीं उठाये जा सकते। स्पष्टत: मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा अन्य संस्थाएं तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह की परम्परा को शरीयत के अनुसार ठीक मानती हैं।
यह भी जानने के योग्य है कि शिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने केन्द्र सरकार द्वारा दी गई राय का समर्थन किया है। उन्होंंने कहा है कि शिया पर्सनल लॉ बोर्ड महिलाओं की गरिमा और उनकी सामाजिक स्थिति को बराबरी की दृष्टि से मानता है।
महर्षि दयानन्द ने संस्कारविधि में 16 संस्कारों के अंतर्गत 13वें संस्कार में विवाह संस्कार का विस्तार से विवरण दिया है। जिसमें उन्होंने तलाक जैसी किसी प्रथा को स्वीकार न करते हुए एक पत्नीव्रत की परम्परा को मानते हुए नारी के सम्मान और उसकी गरिमा को अक्षुण्ण रखने का संदेश दिया है। आर्य समाज अपनी मान्यताओं में भी केवल हिन्दू महिलाओं की ही नहीं अपितु सभी नारियों के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखते हुए उनकी गरिमा को किसी भी प्रकार क्षति पहुंचाने को स्वीकार नहीं करता। आज इसी विचार की आवश्यकता है कि हम मुस्लिम समाज के अधिकृत मौलानाओं, उलेमाओं और मुफ्तियों को वैचारिक दृष्टि से संतुष्ट करने का प्रयास करें कि वे आगे आएँ और आज 21वीं सदी में बहन-बेटियों पर होने वाले एतद्विषयक अत्याचारों एवं कष्टों से उन्हें बचायें तथा स्वेच्छा से उसमें संशोधन करें ताकि मुस्लिम महिलाएँ गरिमा और सामाजिक सम्मान की दृष्टि से अपने जीवन को समान रूप से व्यतीत कर सकें। यद्यपि 11 मई से सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ में यह सुनवाई होगी ताकि इन प्रथाओं की संवैधानिक वैधता पर विचार किया जा सके।
विधि आयोग ने भी इस बाबत सभी नागरिकों, मुस्लिम संगठनों आदि से 16 सवाल किए हैं-
- क्या आप जानते हैं कि अनुच्छेद-44 में प्रावधान है कि सरकार समान नागरिक आचार संहिता लागू करने का प्रयास करेगी?
- क्या समान नागरिक आचार संहिता में तमाम धर्मों के निजी कानूनों प्रथागत या उसके कुछ भाग शामिल हो सकते हैं, जैसे शादी, तलाक, गोद लेने की प्रक्रिया, भरण-पोषण, उत्तराधिकार और विरासत से सम्बन्धित प्रावधान?
- क्या समान अधिकार आचार संहिता में निजी कानूनों और प्रथाओं को शामिल करने से लाभ होगा?
- क्या समान नागरिक आचार संहिता से लैंगिक समानता सुनिश्चित होगी?
- क्या समान नागरिक आचार संहिता को वैकल्पिक किया जा सकता है?
- क्या बहुविवाह प्रथा, बहुपति प्रथा, मैत्री करार आदि को खत्म किया जाए या फिर नियंत्रित किया जाए?
- क्या तीन तलाक की प्रथा को खत्म किया जाए या रीति-रिवाजों में रहने दिया जाए या फिर संशोधन के साथ रहने दिया जाए?
- क्या यह तय करने का उपाय हो कि हिन्दू स्त्री अपने सम्पत्ति के अधिकार का प्रयोग बेहतर तरीके से करे, जैसा पुरुष करते हैं? क्या इस अधिकार के लिए हिन्दू महिला को जागरूक किया जाए और तय हो कि उसके सगे-सम्बन्धी इस बात के लिए दबाव न डालें कि वह सम्पत्ति का अधिकार त्याग दे।
- ईसाई धर्म में तलाक के लिए दो साल की प्रतीक्षा अवधि सम्बन्धित महिला के अधिकार का उल्लंघन तो नहीं है?
- क्या तमाम निजी कानूनों में उम्र का पैमाना एक हो?
- क्या तलाक के लिए तमाम धर्मों के लिए एक समान आधार तय होना चाहिए?
- क्या समान नागरिक आधार संहिता के तहत तलाक का प्रावधान होने से भरण-पोषण की समस्या हल होगी?
- शादी के पंजीकरण को बेहतर तरीके से कैसे लागू किया जा सकता है?
- अंतरजातीय विवाह या फिर अंतर्धर्म विवाह करने वाले युगलों की रक्षा के लिए क्या उपाय हो सकते हैं?
- क्या समान नागरिक आचार संहिता धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है?
- समान नागरिक आचार संहिता या फिर निजी कानून के लिए समाज को संवेदनशील बनाने के लिए क्या उपाय हो सकते हैं?
ये सभी बिन्दु भी विचार-विमर्श की अपेक्षा रखते हैं।
मुस्लिम मत के विद्वानों को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि वे यद्यपि कुरान शरीफ को ईश्वरीय ग्रन्थ मानकर उसे अपरिवर्तनीय मानते हैं, परन्तु उससे इतर मुख्यत: हदीसों के आधार पर निर्मित शरीयत कानूनों पर उन्हें हठ और दुराग्रह त्याग देना चाहिए। ऐसी स्थिति में तो और भी कि जब विश्व के अनेक इस्लामी देश और शिक्षा सम्प्रदाय इसे उचित नहीं मानता। ध्यान रहे कि प्रकृति स्वयं अन्याय सहन नहीं करती और समयानुसार स्वत: न्याय कर देती है। बहुत पहले अकबर इलाहाबादी ने कहा था-
बिठाई जाएँगी पर्दों में बीवियाँ कब तक।
बने रहोगे तुम घर में ‘मियाँ’ कब तक।।
स्त्री-पुरुष समानता का उपदेश प्राकृतिक एवं शाश्वत है। अत: शास्त्रों का यह उपदेश अत्यन्त समीचीन है-
अर्धं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतम: सखा
एवम्
यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्।
तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:।।
– (महाभारत)
एक ही समाज में साथ-साथ रहने वाले नागरिकों (स्त्रियों) में एक को विशेष अधिकार प्राप्त हों और दूसरे को पैर की जूती समझा जाए, तो लोकतन्त्र में विद्रोह के स्वर मुखर होने और क्रान्ति होने की संभावना को कोई रोक नहीं सकता। मुस्लिम महिलाएँ हिन्दू महिलाओं और अन्य मतों की महिलाओं को गृहस्वामिनी और ‘साम्राज्ञी’ के पद पर आसीन देखेंगी और स्वयं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक अपने घर में, अपने मज़हब के अनुसार पाएँगी, तो स्वाभाविकत: विद्रोह की भावना प्रबल होगी। धर्म और मज़हब यदि मनुष्य को उन्नति और समानता का पाठ नहीं पढ़ाते तो वे अप्रासंगिक हैं।
आर्यसमाज यद्यपि वेदज्ञान को शाश्वत मानता है, जिसमें सभी के यथायोग्य कत्र्तव्यों एवं अधिकारों का समुचित वर्णन है, पुनरपि आधुनिक भारत के संविधान के अंतर्गत उल्लिखित नियमों-विनियमों की बाध्यता भी स्वीकार करता है, क्योंकि यह संविधान लोककल्याणकारी और हमारे द्वारा अंगीकृत है। लेकिन यदि संविधान की कुछ धाराएँ अस्पष्ट और विभेदकारी हैं और सरकार उसमें जनकल्याण की दृष्टि से कुछ संशोधन करना/कराना चाहती है, तो हमें उसे स्वीकार करना चाहिए। इसमें असमानता के आधार पर आधी जनसंख्या को प्रताडि़त करने जैसा कुछ नहीं होना चाहिए।