जाकिर नाईक – देशद्रोही क्यों?
इस समाज की समस्या है कि यहाँ सत्य से सामना करने का किसी में साहस नहीं है। जो लोग कुछ जानते नहीं उनको हम दोषी नहीं मान सकते, उनके सामने तो जो भी कोई अपनी बात को अच्छे प्रकार से रखेगा, वे उसी को स्वीकार कर लेते हैं। जिनके पास अच्छा-बुरा पहचानने की क्षमता है, वे स्वार्थ के वशीभूत सत्य कहने से बचते हैं। इसी अज्ञान के वातावरण में इस्लाम का जन्म हुआ है। इस्लाम के जन्म के समय जो लोग थे, वे मूर्त्ति पूजक थे। पैगबर मोहमद ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया। मन्दिर तोड़े, लोगों को मूर्ति-पूजा से दूर रहने के लिये कहा। पैगबर मोहमद का यह प्रयास पहले से अधिक घातक और अज्ञानता को बढ़ाने वाला रहा। पहले लोग मूर्ति-पूजा के अज्ञान में अनुचित कार्यों को करते थे। अब इसमें और अधिक अज्ञानता और उसके प्रति दुराग्रह उत्पन्न हो गया।
इस्लाम में जो सबसे अमानवीय बात है, वह मनुष्य को स्वविवेक से वञ्चित करना है। प्रायः सभी गुरु, नेता, पण्डित इस उपाय का आश्रय लेते हैं, परन्तु इस्लाम में दूसरे के विचार की उपस्थिति ही स्वीकार नहीं की गई। पैगबर ने शिष्यों, अनुयायियों को निर्देश दिया कि मेरे अतिरिक्त किसी की बात सुननी ही नहीं। विरोधी की बात सुनना भी पाप है, मानना तो दूर की बात है। दूसरे का विचार सुनने को पाप (कुफ्र) माना गया। जो कुछ मोहमद साहब ने किया और कहा, वही आदर्श है, जो कुछ कुरान में लिखा गया, वह अल्लाह का अन्तिम आदेश है।
इस विषय में इस्लाम पर शोध करने वाले विद्वान् अनवर शेख लिखते हैं- कुरान अल्लाह का वचन नहीं हैं, बल्कि (पैगबर) मुहमद की रचना है, जिसके लिये उसने अपनी पैगबरता बनाये रखने के लिये अल्लाह को श्रेय दिया है। इसके अनेकों प्रमाण हैं- (सम आस्पेक्ट्स ऑफ कुरान, पृ. 17, 18, 21)
दूसरी सपूर्ण मानव समाज के प्रति हानि पहुँचाने वाली बात- दुनिया में एक ही दीन है और वह है इस्लाम और इसके अतिरिक्त संसार में किसी भी विचार का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं है। वह विचार दूसरा नहीं है बल्कि विरोधी और शत्रु है। इस संसार में रहना हो तो उसे मुसलमान बनकर ही रहना चाहिए। सोचने की बात है कि क्या किसी अन्य पर किसी का इतना अधिकार हो सकता है कि वह उसके जीने के और स्वतन्त्रता के अधिकार को ही समाप्त कर दे? इस्लाम या मोहमद साहेब को यह अधिकार किसने दिया? किसी ने भी नहीं दिया। यह अधिकार उनका स्वयं का उपार्जित है। परन्तु संसार बड़ा विचित्र है, उस अधिकार को ऐसे बताया जा रहा है, जैसे भगवान ने उन्हें ही यह अधिकार देकर भेजा है।
इस्लाम के संस्थापक ने जहाँ इस्लाम को एक मात्र संसार का वास्तविक धर्म घोषित किया, वहाँ इस विचार के लिये, इसको मानने वाले को यह भी अधिकार दिया कि किसी भी उपाय से वे इस धर्म का प्रचार-प्रसार करें। इसके लिये लोभ, लालच, धोखा, हिंसा, बलात्कार, किसी भी उपाय का सहारा क्यों न लेना पड़े। पैगबर ने अपने धर्म को बढ़ाने-फैलाने के लिये सत्ता का सहारा लिया और तलवार के बल पर अपने देश में और दूसरे देशों में उसको फैलाया। इसको जिहाद कहा गया। मुसलमानों के लिये जिहाद एक प्रेरणा और आवश्यक कर्त्तव्य होने के कारण इस्लाम अहिंसक नहीं हो सकता। एक मुसलमान के लिये किसी गैर-मुसलमान के विरुद्ध जिहाद से मुकर जाना एक महापाप है। जो ऐसा करेंगे वे जहन्नुम की आग में पकेंगे। डॉ. के.एस. लाल (थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस ऑफ मुस्लिम स्टेट इन इण्डिया, पृ. 286)
इस धर्म को सुरक्षित और बलवान बनाने के लिये एक और सिद्धान्त प्रतिपादित किया- ‘‘संसार में राज्य करने का अधिकार केवल मुसलमान को है।’’ पैगबर की मान्यता के अनुसार मुसलमान और अन्य धर्मावलबी में राज्य करने का अधिकार इस्लाम के मानने वाले का है। यदि दो व्यक्ति मुसलमान हैं तो राज्य का अधिकार अरब के मुसलमान का है, अरब से बाहर के मुसलमान को नहीं। यदि सत्ता का विभाजन अरब के दो मुसलमानों के बीच होना है, तो यह अधिकार मक्का के मुसलमान को ही मिलना चाहिये। यदि दोनों मुसलमान मक्का के ही हों, तो यह अधिकार कुरैश को मिलना चाहिए। अपने आपको ही ठीक और श्रेष्ठ मानने के इस विचार को कुछ भी करके प्राप्त करने की स्वतन्त्रता ने इस्लाम के अनुयायी को अपराध की ओर प्रेरित किया।
इस्लाम को धर्म की श्रेणी में रखने की आवश्यकता खुदा और जन्नत के कारण है। ये दोनों वस्तुएँ तो इस संसार में मिलती नहीं है, अन्यथा इस्लाम का धर्म से कोई सबन्ध नहीं है। सभी धर्म अंहिसा और संयम के बिना नहीं चलते, क्योंकि धर्म के यात्रा-रथ के ये दोनों पहिये हैं। इनके बिना धर्म का रथ चलेगा कैसे? परन्तु इस्लाम ने इन दोनों को ही समाप्त कर दिया है। इसलिये सारे मुस्लिम इतिहास में हिंसा और महिलाओं के प्रति अत्याचार को बढ़ावा मिला है।
इस विचार ने मनुष्य को अपराध करने का अधिकार दे दिया। यह व्यक्ति नहीं, विचार का परिणाम है। इस्लाम की मान्यता को सत्य सिद्ध करने के प्रयास को जाकिर नाईक के कथन में देखा जा सकता है। एक संवाद में जाकिर नाईक से प्रश्न किया गया है कि इस्लामी देशों में मन्दिर चर्च आदि क्यों नहीं बनाने दिया जाता, जबकि गैर मुस्लिम देशों में मस्जिद बनाने और उनकी परपरा का पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। इस पर नाइक का उत्तर है- यदि तीन व्यक्तियों को अध्यापक बनाने के लिये बुलाया गया हो और उनसे प्रश्न पूछा जाये कि चार और तीन कितने होते हैं? एक का उत्तर हो- चार-दो सात होते हैं, दूसरे का उत्तर हो, चार और चार सात होते हैं और तीसरे का उत्तर हो चार और तीन सात होते हैं। जिसका उत्तर ठीक होगा, उसे ही अध्यापक बनाया जायेगा, वैसे ही जो धर्म शत-प्रतिशत ठीक है, उसी को हमारे देश में स्थान दिया जाता है, दूसरे को नहीं। धर्म इनका, निर्णय भी इनका, परीक्षा की आवश्यकता नहीं। जब बिना परीक्षा के ही निर्णय करना है तो शेष लोगों का धर्म ठीक क्यों नहीं? आप कहते हैं- मेरा धर्म ही ठीक है, कहने से तो कोई ठीक नहीं होता, परन्तु इस्लाम में यही सिखाया जाता है। एक ही दीन ठीक है और उसे ही रहना चाहिये। दूसरे को संसार में रहने का अधिकार नहीं है।
जाकिर नाईक को आर्य समाज ने सदा ही चुनौती दी है। लिखित भी, मौािक भी। वह ‘आप और हम दोनों मूर्ति पूजक नहीं हैं’ कहकर पीछे हट जाता है। जाकिर नाईक दूसरों की मान्यता पर तर्क करता है, प्रश्न उठाता है, परन्तु इस्लाम पर प्रश्न उठाने को अनुचित कहता है। वह हिन्दू धर्म पर चोट करते हुये कहता है- ‘जो शिव अपने बेटे गणेश को नहीं पहचानता, वह मुझे कैसे पहचानेगा।’ परन्तु पैगबर द्वारा अंगुली से चाँद के दो टुकड़े करने को ठीक मानता है।
वह धर्म की रक्षा के लिये मानव बम बनकर शत्रु को नष्ट करने को उचित ठहराता है। जब कोई आतंकवादी देशद्रोही सेना के हाथों मारा जाता है, तो उससे पीछा छुड़ाने के लिये कहा जाता है- आतंकी का कोई धर्म नहीं होता। फिर उसकी अन्तिम यात्रा धार्मिक रूप से क्यों निकाली जाती है? हजारों लोग उसे श्रद्धाञ्जलि क्यों देते हैं? उसके लिये जन्नत की कामना क्यों करते हैं?
इस्लाम में दोजख का भय और जन्नत का आकर्षण इतना अधिक है कि सामान्य व्यक्ति भी अपराध के लिये प्रेरित हो जाता है। जन्नत में हूरें, शराब, दूध की नदियाँ, वह सब जो इस दुनिया में नहीं मिल सका, जन्नत में मिलेगा। केवल उसे पैगबर का हुकुम मानना है। उसे पता है- जीवन चाहे जैसा हो, यदि वह एक काफिर को मार डालता है, तो उसे जन्नत बशी जायेगी। कुछ जो उस मनुष्य ने संसार में चाहा, परन्तु उसके भाग्य में नहीं था, फिर वह सब कुछ जन्नत में इतनी सरलता से पा सकता है, तो वह क्यों नहीं प्राप्त करना चाहेगा।
इसी प्रकार दोजख का भय भी एक मुसलमान को कोई दूसरी बात सोचने से भी डराता है। उसे सिखाया जाता है- जो कुरान को न माने, पैगबर को न माने, वह काफिर है, उसकी सहायता करना गुनाह है, अपराध है और अपराध का दण्ड दोजख है। कुरान में लिखा है- ‘जो लोग ईमान लाते हैं, अल्लाह उनका रक्षक और सहायक है। वह उन्हें अन्धेरे से निकाल कर प्रकाश की ओर ले जाता है। रहे वे लोग, जिन्होंने इन्कार किया, तो उनके संरक्षक बढ़े हुये सरकश हैं, वे उन्हें प्रकाश से निकाल कर अन्धेरे की ओर ले जाते हैं। वे ही आग (जहन्नुम) में पड़ने वाले हैं।’ (2.257, पृ. 40)
जिसे अल्लाह मार्ग दिखाये, वह ही मार्ग पाने वाला है और वह जिसे पथ-भ्रष्ट होने दे, तो ऐसे लोगों के लिये उससे इतर तुम सहायक नहीं हो पाओगे। कयामत के दिन हम उन्हें औंधे मुँह इस दशा में इकट्ठा करेंगे कि वे अन्धे, गूंगे और बहरे होंगे। उनका ठिकाना जहन्नुम है। जब भी उसकी आग धीमी पड़ने लगेगी, तो हम उसे उनके लिये और भड़का देंगे। (17.97, पृ. 247)
यदि कोई मुसलमान अपने धर्म का त्याग करे, तो उसके लिये कहा गया है-
और तुम में से जो कोई अपने दीन से फिर जाय और अविश्वासी होकर मरे, तो ऐसे लोग हैं, जिनके कर्म दुनिया और आखिर में नष्ट हो गये और वही आग (जहन्नुम) में पड़ने वाले हैं। वे उसी में सदैव रहेंगे। (2:217, पृ. 33)
जहन्नुम जिसमें वे प्रवेश करेंगे, तो वह बहुत ही बुरा विश्राम-स्थल है। यह है, उन्हें अब इसे चखना है- खौलता हुआ पानी और रक्त-युक्त पीप और इसी प्रकार की दूसरी चीजें, यह एक भीड़ है, जो तुहारे साथ घुसी चली आ रही है। कोई आरामगाह उनके लिये नहीं, वे तो आग में पड़ने वाले हैं। (38:56-58, पृ. 405)
भला इस परिस्थिति में इस्लाम के मानने वाले में कहाँ से इतना साहस आयेगा कि वह गैर-मुस्लिम की सहायता करने की सोचे।
इस प्रकार के इन धार्मिक आदेशों के कारण इस्लाम जहाँ अन्य सप्रदायों के साथ समन्वय नहीं कर पाता, वहीं इस्लाम में जो सत्तर से अधिक प्रशाखायें हैं, उनमें भी परस्पर इसी प्रकार का संघर्ष देखने में आता है।
मुसलमान किसी भी देश में वहाँ के संविधान का पालन करने में समर्थ नहीं है। यदि वे किसी गैर-मुस्लिम देश में हैं, तो वह ‘दारुल हरब’ है। उसमें रहकर उन्हें उस देश को ‘दारुल इस्लाम’ बनाना है, यह उसका धार्मिक कर्त्तव्य है। और एक मुसलमान के लिए देश, समाज, परिवार से ऊपर धर्म है, अल्लाहताला का हुक्म है। फिर वह कैसे किसी संविधान का आदर करेगा? कैसे उसको मान्यता देगा? यह वैचारिक संघर्ष उसे कभी शान्ति से बैठने नहीं देता, यही देश की अशान्ति का मूल कारण है। भारतीय संस्कृति कहती है- मनुष्य मनुष्य का रक्षक होना चाहिए, प्राणिमात्र की रक्षा की जानी चाहिये। वेद मनुष्य मात्र को परमेश्वर का पुत्र कहता है, रक्षा करने का उपदेश देता हैं।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः
पुमान् पुमान्सं परिपातु विश्वतः।।
– धर्मवीर