कुछ कार्य बाहर से देखने पर तो बड़े अच्छे और कल्याणकारी प्रतीत होते हैं, पर उनके पीछे छिपा स्वार्थ उतना ही भयावह होता है। हमारी दृष्टि केवल थोड़ा ही देख पाती है, पर उसकी जडं़े कहाँ तक हैं, ये शायद हम सोच भी नहीं पाते।
तमिलनाडु के पारम्परिक खेल ‘जल्लीकट्टू’ का एक गैर-सरकारी संस्था क्कश्वञ्ज्र द्वारा किया गया विरोध भी कुछ ऐसा ही है।
पहले इन गैर-सरकारी संस्थाओं (हृत्रह्र)की पृष्ठभूमि और उनके उद्देश्य को समझ लें तो बाकि अपने आप समझ में आ जायेगा।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच आगे बढऩे की प्रतियोगिता रहती है। दूसरे देशों को पिछड़ा और गरीब बनाये रखने के लिये कुछ विकसित देश जिन तरीकों का उपयोग करते हैं, उनमें एक तरीका है-एन.जी.ओ.। बाहर से दिखने में ये संस्थायें समाज, पशु, मानव, प्रकृति की हितैषी लगती हैं, परन्तु इनका मूल उद्देश्य समाज और सरकारों को अस्थिर करना होता है, जिससे देश में कोई प्रगति का कार्य ना हो सके और वह देश वैश्विक मंच पर पिछड़ा बना रहे। प्राकृतिक संतुलन का मुखौटा ओढक़र बांध न बनने देना, सडक़ों उद्योगों का विरोध करना, पिछड़े दलित वर्ग को भडक़ाकर उन्हें देश के विरोध में खड़ा कर देना आदि इनके माध्यम होते हैं।
जल्लीकट्टू के विरोध के पीछे कितनी गहरा और दूरगामी षडय़न्त्र है, इसके बारे में जानना प्रत्येक भारतीय के लिये आवश्यक है।
क्या है ‘जल्लीकट्टू’?- ‘जल्लीकट्टू’ भारतीय गायों की नस्लों का संवर्धन करने वाली एक प्रतियोगिता है। जैसे मनुष्यों में योग्यताओं को बढ़ाने के लिये कुश्ती आदि खेल होते हैं, ठीक वैसे ही। इस प्रथा में केवल भरतीय नस्लों को ही लिया जाता है। किसी समय इस खेल में ६ नस्लों को बैलों के लिया जाता था। अब एक प्रजाति ‘अलामबादी’ विलुप्त हो चुकी है, बाकी प्रजातियाँ भी विलुप्ति के कगार पर हैं। १९९० में कंगायम प्रजाति के १० लाख बैल थे, अब वह संख्या मात्र १५००० रह गई है। प्रतियोगिता में सभी पशुपालक अपने बलिष्ठ बैलों को लाते हैं। बैलों को बड़ी चारदीवारी में छोड़ दिया जाता है, फिर उन्हें नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है, जिन बैलों को वश में नहीं किया जा सकता, उन्हें वंशवृद्धि के लिये प्रयोग किया जाता है। बाकि बैलों को खेती के कार्य में लिया जाता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जाता है कि सबसे ताकतवर बैल ही गोधन की वृद्धि के लिये प्रयुक्त हो, जिससे होने वाला पशु भी बलिष्ठ, रोगों से लडऩे वाला और अधिक दूध देने वाला होता है। यह एक परम्परागत, व्यावहारिक तरीका है, जिससे किसान अच्छे जीन को सुरक्षित व देशी नस्ल की वृद्धि कर सकते हैं। किसानों को इस स्पर्धा से पशुओं का अच्छा मूल्य भी मिलता है। इस कारण भी यह प्रथा महत्त्वपूर्ण है। यदि यह प्रतियोगिता ना हो तो पशुपालकों का उत्साह गिरेगा, जिससे कि लोग पशु पालना, खरीदना कम कर देगें। फलस्वरूप गाय व बैलों का मूल्य कम हो जायेगा और इसका सीधा-सीधा लाभ कत्लखानों को मिलेगा।
२०११ में इस परम्परा पर तब विवाद शुरु हुआ, जब एक पशु अधिकार संस्था ने उच्चतम न्यायालय में ‘जल्लीकट्टू’ पर रोक लगाने की माँग की। उनकी अपील का आधार जानवरों के साथ क्रूरता का व्यवहार था। उच्चतम न्यायालय ने २०१४ में फैसला सुनाते हुए इस प्रथा पर रोक लगा दी।
‘जल्लीकट्टू’ के विरोध का अन्तर्राष्ट्रीय कारण- इस प्रथा के विरोध का कारण पशुओं पर होने वाली क्रू रता नहीं, बल्कि व्यापारिक स्वार्थ है।
गाय के दूध में दो प्रकार के क्चद्गह्लड्ड ष्टड्डह्यद्गद्बठ्ठ प्रोटीन पाये जाते हैं- ए१ व ए२। अधिकतर लोग मानते हैं कि ए२ प्रोटीन ज्यादा लाभकारी है। भारत में देशी गाय की ३७ नस्लें हैं (१०० वर्ष पहले १५०० नस्लें थीं)। इनमें से ३६ में ए२ प्रोटीन पाया जाता है। माना जाता है कि ए१ प्रोटीन दीर्घकालिक बीमारियों जैसे-टाइप १ डायबिटीज़ और ऑटिज्म को जन्म देता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी जो ए२ प्रोटीन वाले दूध का उत्पादन करती है, उसकी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में उपस्थिति है। इस कम्पनी के पास ए१/ए२ प्रोटीन वाले जीन के परीक्षण का पेटेंट है। समस्या यह है कि इसी कम्पनी के पास ए२ जीन वाले बैल से कृत्रिम गर्भाधान का पेटेंट भी है। उनके पास इस प्रयोग का पेटेंट भी है, जिससे ए२ जीन को प्रभावशाली बनाकर ए१ जीन को प्रमुख होने से रोका जा सकता है। अगर भारत की सभी देसी नस्लें नष्ट हो जायें, तब या तो हमें ए१ प्रोटीन वाला हानिकारक दूध पीना पड़ेगा या बहुत मूल्य देकर इस कम्पनी की पेटेंट तकनीक का उपयोग करके ए२ दूध प्राप्त करना पड़ेगा।
नियम के अनुसार यह पेटेंट सिर्फ एक प्रजाति ‘बोस टॉरस’ (क्चशह्य ञ्जड्डह्वह्म्ह्वह्य) पर ही लागू होता है। और ‘बोस टॉरस’ से भी शुद्ध प्रजाति ‘बोस इण्डिकस’ (क्चशह्य ढ्ढठ्ठस्रद्बष्ह्वह्य) तमिलनाडु की है, जो कि ‘जल्लीकट्टू’ में प्रयोग की जाती है, पर यह प्रजाति पेटेंट में नहीं आती। इसलिये जब तक यह प्रजाति सुरक्षित है, तब तक कम्पनी अपना व्यापार पूरी तरह भारत में फैलाने में असमर्थ है। इसके समाप्त होते ही ए२ प्रोटीन का दूध लेने के लिये हमें विदेशी कम्पनियों पर आश्रित होना पड़ेगा। यही समस्या तमिलनाडु के किसानों को परेशान कर रही है।
‘जल्लीकट्टू’ पर रोक लगने से पहले तमिलनाडु में गाय-बैल का अनुपात ४:१ था, परन्तु अब यह बढक़र ८:१ हो गया है। इसके अतिरिक्त अब बैलों को कसाइयों को बेचा जा रहा है। इसलिये यह प्रथा देसी नस्ल के गाय-बैल के अनुपात को स्वस्थ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखती है, इससे देसी नस्ल को ही प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रथा का विरोध करने वाले ‘पेटा’ का मुख्य तर्क है कि इसमें पशुओं की पूँछ तोडऩा, घायल करना, शराब पिलाना, आदि क्रूरता की जाती है और कई बार पशु मर भी जाते हैं।
इस पर मदुरई निवासी श्री पंडीयन रंजीत (पशु-पालक) का कहना है कि वह पिछले २० वर्षों से इस प्रथा के लिये बैलों को तैयार कर रहे हैं। उन्होंने इस खेल में मनुष्यों को तो चोट खाते देखा है, पर बैलों को कभी नहीं। प्रतिभागियों और आयोजकों का ये कहना कि ‘‘यदि इस आयोजन में किसी पशु के खून की एक बँूद भी गिरती है तो खेल को रोक दिया जाता है’’ उनके पशुप्रेम का परिचायक है।
स्थानीय नेता व राज्य सरकार इस प्रथा की अनिवार्यता को देखते हुए इसके पक्ष में है, लेकिन केन्द्र और न्यायालय की मजबूरी क्या है-ये विचारणीय है।
ये कोई पहली घटना नहीं, इससे पहले भी मुम्बई में चलने वाली विक्टोरिया घोड़ा गाडिय़ों पर भी प्रतिबन्ध इसी ‘पेटा’ द्वारा लगवाया गया था। मिर्जापुर का कालीन उद्योग, भारतीय सर्कस, फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग भी इन्हीं हृ.त्र.ह्र. की भेंट चढ़ गया। भारत की भूमि में सदियों से उगाये जाने वाले बासमती चावल का पेटेंट आज अमेरिका के पास है। उत्तर प्रदेश में बैलों की दौड़ पर प्रतिबन्ध भी ऐसे ही षडय़न्त्रों का हिस्सा रहा है, आज वहाँ बैलों की कीमत नाममात्र की रह गई है। तर्क यही था-पशुओं पर अत्याचार।
विदेशों के दान और उनके इशारों पर चलने वाली इन संस्थाओं को पशुओं व समाज की इतनी ही चिन्ता है तो वह ईद जैसे हिंसक त्यौहार पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग क्यों नहीं करती? पशुओं को हलाल होते देख क्यों अपनी आँखें मूंद लेती है? सौन्दर्य प्रसाधनों के लिये निरीह जीवों को तड़पते वक्त उनकी चीख इन संस्थाओं को दिखाई नहीं देती। कत्लखानों में कटते छोटे-छोटे पशुओं के बच्चे इनके विरोध के दायरे में क्यों नहीं आते?
पशुहिंसा ना हो ये आवश्यक है, लेकिन उनके संवर्धन को हिंसा नाम देना कहाँ तक उचित है?
कमियाँ तो कहीं भी ढूँढी जा सकती हैं, आपत्ति कहीं भी हो सकती है। एक महिला जब प्रसव पीड़ा झेलती है तो उसे भी हिंसा घोषित किया जा सकता है। सैनिक सीमा पर खड़ा होकर जान को जोखिम में डालता है। एक मजदूर भवन निर्माण में जो मेहनत करता है, क्या उसे भी क्रूरता कहा जायेगा?
नहीं, क्योंकि ये सब अनिवार्य हैं, हित के लिये हैं। भारतीय संस्कृति की नींव अनिवार्यता पर टिकी है, आवश्यकता व संतुलन ही उसका आधार है, विलासिता, हिंसा और उपद्रव नहीं। यहाँ का त्यौहार, हर खानपान, ऋतु, फसल, प्रकृति से अनिवार्यता से जुड़ा है, जिनका उद्देश्य व्यक्ति व समाज को उन्नति प्रदान करना है। दुनिया के हर कार्य में कष्ट हैं। अच्छाई है, तो कुछ समस्यायें भी हैं, पर हम हर कार्य को प्रतिबन्धित नहीं कर सकते। यदि कार्य का उद्देश्य व विधि सही है तो कुछ समस्याएं होते हुए भी कार्य सही होगा, क्योंकि समस्या और कार्य परस्पर साथी हैं, परन्तु यदि किसी कार्य का उद्देश्य गलत है तो उसकी दलीलें सही प्रतीत होते हुए भी वह कार्य गलत ही होगा। बाहर से अच्छा दिखने वाला यह कार्य समाज व राष्ट्र के लिये अहितकर ही होगा।