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डॉ. अम्बेडकरजी की लाला लाजपतराय जी को श्रद्धांजली

यह तथ्य अंकित करते हुए हमें बहुत ही दुःख हो रहा है कि देशभक्त लाला लाजपतराय का विगत मास की 17 तारीख को अचानक हृदय क्रिया बन्द हो जाने से देहान्त हो गया। साइमन कमीशन के लाहौर आने पर उसे वापिस जाने के लिए कहनेवालों का जुलूस स्टेशन पर था, उसके अग्रिम भाग पर लाला जी उपस्थित थे। भीड़ को पीछे हटाने का प्रयत्न करते समय एक पुलिस अधिकारी ने लालाजी की छाती पर लाठी का वार किया। डॉक्टरों का यह मत है कि लाठी का वार ही लालाजी की हृदय क्रिया बन्द पड़ने का कारण सिद्ध हुआ। यदि यह सही है तो ऐसे उन्मत्त और राक्षसी वृत्ति के पुलिस अधिकारी की जितनी भी निन्दा की जाए, वह कम ही होगी।

खैर, वह कुछ भी हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि लालाजी की मौत के कारण देश का एक कर्मठ कार्य कुशल नेता नामशेष हो गया। भारतवर्ष में राजनीतिक नेताओं की कभी भी कमी नहीं रही, पर लालाजी जैसे प्रामाणिक वृत्ति के स्वार्थ त्यागी तथा कृतसंकल्प कार्य के लिए तन-मन-धन अर्पित करनेवाले नेता अत्यन्त ही कम थे। नेतागिरी के लिए ललचाए और उसके लिए अपनी सदसद् विवके बुद्धि शैतान या आसुरी प्रवृत्तियों को बेचनेवाले बहुत अधिक थे। इन नेताओं की कथनी-करनी की विसंगति लोगों के ध्यान में आती, तो ये उसे ’मेंटल रिजर्वेशन‘ की बात कहकर उससे छुटकारा पा लेते थे, पर लालाजी के जीवनक्रम में इस प्रकार की स्थिति नजर नहीं आती। श्री नरसिंह चिन्तामणि केलकर जैसे दोहरे व्यक्तित्ववाले तथा श्री आयंगर छाप जैसे नेताओं की अभद्रता से लालाजी कोसों दूर थे। उनकी कार्यक्षमता अप्रतिम और महान् थी। लालाजी के चरित्र की विशेषता इस बात में है कि वे अधिक बड़बड़ और गड़बड़ न करते हुए बहुत ही सोच-विचारपूर्वक धैर्य से स्वीकार किये हुए कार्य को सम्पन्न करते थे।

लालाजी का जन्म सन् 1865 में पंजाब प्रान्त के एक निर्धन वैश्य कुल में हुआ। उनके पिता आर्यसमाजी थे। इसलिए उन्हें प्रारम्भ से ही उदारमतवाद की घुट्टी पिलायी गई थी। आज आर्यसमाज को सनातन धर्म ने निगल लिया है, पर उस समय आर्यसमाज और सनातन धर्म का हमेशा का वैर या जानी दुश्मनी थी, क्योंकि इस युग में आर्यसमाज मुसलमानों के आक्रमणों की अपेक्षा हिन्दू समाज के अन्तर्गत जातिभेदादि दोषों की ओर ही ज्यादा ध्यान देता था। इसलिए वह रूढ़िबद्ध पौराणिक लोगों को स्वाभाविक रूप से ही अप्रिय था।

पुराणमतवाद और आर्यसमाज के इस समर में लालाजी ने आर्यसमाज का पक्ष लिया था और उस समाज के सिद्धान्तों को सुदृढ़ और व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने कुछ मित्रों के सहयोग से सन् 1886 में ’दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज (डी0 ए0 वी0)‘ की स्थापना की थी। उनके सार्वजनिक जीवन का प्रारम्भ इसी घटना के साथ शुरु हुआ था। इस संस्था को शक्तिशाली बनाने के लिए उन्होंने अनथक मेहनत की थी और पुष्कल मात्रा में स्वार्थ त्याग भी किया था। आज पंजाब में इस संस्था की गणना एक प्रमुख शिक्षण संस्था के रूप में की जाती है।

इसके बाद वे राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेने लगे, पर उन्होंने अन्य राजनीतिक आन्दोलनों के नेताओं की तरह राजनीतिक और सामाजिक कार्यों के इतेरतराश्रित आपसी सम्बन्धों का विच्छेद कर अपने अपंगत्व का प्रदर्शन कभी भी नहीं किया। दोनों भी दृष्टियों से वे क्रान्तिकारी थे। यह बात ध्यान में रखने लायक है कि राजनीतिक आन्दोलन में कदम रखने के कारण सरकार ने जब उन्हें अण्डमान की जेल में भेजा, तब बहुत से पुराणमतवादी लोगों को हर्ष हुआ था। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार और पौराणिक इन दोनों के विरोध को सहन करते हुए लालाजी ने अपना सार्वजनिक कार्यक्रम संचालित किया था। पंजाब के कुछ स्पृश्यवर्गीय नेताओं द्वारा चलाये गये अस्पृश्यों के स्पृश्यीकरण (दलितोद्धार) के आन्दोलन में वे अन्तःकरण पूर्वक सहभागी होते थे। स्पृश्यवर्गीय लोगों द्वारा संचालित ’अस्पृश्योद्धार‘ के आन्दोलन से यदि हमें पूर्णतया सन्तोष न भी प्रतीत होता हो, फिर भी हमें इस बात में सन्देह नहीं कि लालाजी की सहानुभूति प्रामाणिकता से ओत-˗प्रोत थी। हमारी दृष्टि से वह परिपूर्ण न भी हों, फिर भी अविश्वसनीय तो बिलकुल भी नहीं थी।

लालाजी उत्तम लेखक भी थे। सामाजिक और राजनीतिक विषयों से सम्बद्ध उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। ’दी पीपल‘ नामक अंग्रेजी पत्र भी वे निकालते थे। दयानन्द एंग्लोवैदिक कॉलेज के अतिरिक्त उनके द्वारा स्थापित दूसरी संस्था का नाम ’सर्वेंटस् ऑफ इण्डिया‘ है। ’सोसाइटी‘ की तरह इस संस्था की नियमावली बनाने के बावजूद इन दोनों में अंतरंग दृष्टि से महत्वपूर्ण अन्तर है। मुम्बई की ’सोसाइटी‘ ’नरम दल‘ के कब्जे में होने के कारण उनके समस्त कार्यक्रम शांत एवं मंदगति से चालू हैं। राजनीतिक विषय में भी मंदगति और सामाजिक विषय में भी मंथर गति। एक कदम आगे बढ़ाने से पहले उस पर दस घण्टे तक विचार-विमर्श। कुछ इसी प्रकार का इस संस्था का कार्यक्रम है। इस संस्था के कतिपय सभासद व्यक्तिगत रूप से ’गरम‘, ’अग्रगामी‘ और ’प्रगतिशील‘ होंगे, पर सामूहिक रूप से उन्हें नरम दल की चैखट में ही घुटन महसूस करते हुए रहना अनिवार्य है। उसके विपरीत लाहौर की सोसाइटी को लालाजी जैसा तड़पदार-तेजस्वी नेतृत्त्व मिलने के कारण उसे सर्वांगीण प्रगतिपरक स्वरूप प्राप्त हुआ है। यह सोसाइटी सामाजिक और राजनीतिक विषय में एक जैसे प्रगतिशील कार्यकत्र्ता निर्माण करने का कार्य उत्साह और साहस के साथ कर रही है। इस संस्था के विकास के लिए उन्होंने काफी कष्ट सहन किये हैं। इस प्रकार लाला लाजपतरायजी का चरित्र विविधांगी है। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक आदि समस्त क्षेत्रों में वे अपना अनमोल योगदान दे गये हैं और उनके कालवश हो जाने के उपरांत भी उनके बहुमुखी रचनात्मक कार्य उनके सचेतन स्मारक के रूप में चिरस्थायी एवं अमर रहेंगे।

सन्दर्भ: (1) डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर चरित्र, खण्ड-2, पृष्ठ-197 लेखक-चांगदेव भवानाव खैरमोडे-द्वितीय आवृत्ति-14 अक्टूबर 1991, मूल्य-90.00, प्रकाशक-सुगावा प्रकाशन-पुणे-महाराष्ट्र।

(2) बहिष्कृत भारत (मराठी साप्ताहिक): सम्पादक: डॉ0 भीमराव अम्बेडकर, दिनांक: 7 दिसम्बर 1928।

(3) अनुवाद-कुशलदेव शास्त्री।