ओ३म्
‘अथर्ववेद मे यथार्थ स्वर्ग का वर्णन’
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
अथर्ववेद के मन्त्र 6/120/3 में यथार्थ स्वर्ग का वर्णन हुआ है। लोगों ने पुराणों के आधार पर मिथ्या स्वर्ग की कल्पना कर रखी है और उसी को मानते हैं। वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि पुराण वर्णित स्वर्ग संसार व ब्रह्माण्ड में कहीं नहीं है। हम एकमात्र यथार्थ वैदिक स्वर्ग पर पहले आर्यजगत के एक महान संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का संक्षिप्त वेदव्याख्यान दे रहे हैं। इसके बाद वेदमन्त्र व उसके पदों वा शब्दों का अर्थ भी प्रस्तुत है।
यथार्थ स्वर्ग का व्याख्यान
स्वर्ग किसी देशविशेष (स्थान विशेष) या लोकविशेष का नाम नहीं है, वरन् उस अवस्था को स्वर्ग कहते हैं, जिस अवस्था मे मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक, पारिवारिक आदि सब प्रकार के सुख प्राप्त हैं, जिस अवस्था में मनुष्य को कोई शारीरिक क्लेश, मानसिक पीड़ा नहीं सताती, माता–पिता तथा सन्तान का सुख प्राप्त हो, शरीर सुन्दर तथा सुडौल हो, कोई त्रुटि न हो, इसकी प्राप्ति का साधन सद्विचार तथा उत्तम सदाचार है। दूसरे शब्दों में रोग, दुःख, अंग–भंग, कुरूप शरीर आदि पापों का फल है। संक्षेप में ‘सुखविशेष भोग तथा उसकी सामग्री’ का नाम स्वर्ग है। (यह स्वर्ग मनुष्य के अपने भीतर, अपने निवास, परिवार, समाज व देश में ही होता है व माना जा सकता है। वाल्मिीकी रामायण में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम लक्ष्मण जी से कहते हैं कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ पूरे श्लोक का भाव है कि मैं जानता हूं कि लंका सोने की है परन्तु फिर भी मुझे यह अच्छी नहीं लगती। क्योंकि अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। यह इसलिए कि जो सुख विशेष अपनी माता और अपनी जन्म व देश भूमि में मनुष्य को प्राप्त होता व हो सकता है, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता। –लेखक)
अथर्ववेद का मन्त्र संख्या 6/120/3
यात्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः।
अश्लोणा अंगैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ च पुत्रान्।।
मन्त्र का पद वा शब्दार्थ
यत्र=जिस अवस्था में सुहार्दः=उत्तम हृदयवाले अपने तन्वः=शरीर के रोगम्=रोग को विहाय=छोड़कर, अर्थात् पूर्णतया नीरोग होकर अंगैः अश्लोणाः=अंग-भंगरहित, अर्थात् पूर्णांगवयवयुक्त शरीरवाले तथा अह्रुताः=शरीर, आत्मा तथा मन की कुटिलता से विरहित हुए मदन्ति=सुखी रहते हैं तत्र स्वर्गे=उस स्वर्ग में हम पितरौ=माता-पिता च=और पुत्रान्=पुत्रों-सन्तान को पश्येम=देखें, अर्थात् हमारे माता-पिता तथा सन्तान सदा सुखी रहे।
–मनमोहन कुमार आर्य
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