भारत में वैदिक युग के सूत्रधार – स्वामी विरजानन्दजी दण्डी
(जन्म-1778ई. – निर्वाण 1868 ई.)
– आचार्य चन्द्रशेखर
1.आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती के विद्यादाता एवं पथ-प्रदर्शक महान गुरु विरजानन्द दण्डी (बचपन का नाम व्रजलाल) का जन्म पूज्य पिता श्रीनारायणदत्त के भरद्वाज गोत्र सारस्वत ब्राह्मणकुल में 1778 ई. में करतापुर, जिला जालन्धर (पंजाब) में हुआ था।
- 2. पाँच वर्ष की आयु में चेचक के कारण नेत्र-ज्योति चली गई, परन्तु विधाता की कृपा से बुद्धि विलक्षण स्मरणशक्ति के रूप में प्राप्त हुई। आठ वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार एवं गायत्री दीक्षा के बाद पिता से संस्कृत का ज्ञानार्जन प्रारभ किया। बारहवें वर्ष में माता-पिता की मृत्यु के बाद तो सदा के लिए घर छोड़ दिया।
- 3. ऋषिकेश में तीन वर्ष तक साधना व एक लाख गायत्री मन्त्र का जप गंगा के पावन जल में आकंठ करने से अद्भुत प्रतिभा का वरदान प्राप्त हुआ। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा 1798 ई. में प्राप्त करके संस्कृत व्याकरण पढ़ना प्रारभ किया। पूर्णानन्दजी ने विरजानन्दजी को महाभाष्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
- 4. हरिद्वार से वे कनखल पहुँचे और कनखल शबद का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा- को न खलस्तरति कनखलो नाम। सोरों और गंगा के किनारे स्थित नगरों का भ्रमण करते हुए सन् 1800 ई. में काशी पहुँचे। भिक्षाटन न करने के कारण दो-तीन दिन निराहार रहना पड़ा। महाभाष्य, मनोरमा, शेखर, न्यायमीमांसा और वेदान्त का अध्ययन किया। इस तरह अनेक शास्त्रों का अध्ययन किया और विद्वानों में प्रतिष्ठा प्राप्त की। उनके गुरु पं. विद्याधर और गौरीशंकर थे। वे 21 वर्ष की आयु में काशी गये काशी के विद्वानों में उनकी गणना थी। वे ‘‘प्रज्ञाचक्षु’’ की उपाधि से विभूषित हुये। जाने-आने के लिए पालकी व्यय तथा दक्षिणा मिलने लगी। दक्षिणा को वो अपने शिष्यों में बाँट देते थे।
- 5. बनारस से गया की यात्रा के बीच जंगल में लुटेरों ने लूटने की कोशिश की। ग्वालियर रियासत ने अपने सैनिक भेजकर स्वामीजी की रक्षा की और अपने डेरे पर पाँच दिन तक ठहराया और उन पंडित के साथ ज्ञान चर्चा की। दण्डी स्वामी ने गया में एक वर्ष तक ठहर कर वेदान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया।
- 6. गया से कोलकाता जाकर साहित्य दर्पण, काव्य प्रकाश, रस गंगाधर, कुवलयानन्द आदि काव्य शास्त्रों के अध्ययन के साथ दर्शन, आयुर्वेद, संगीत, वीणा-वादन, योगासन तथा फारसी भाषा का ज्ञान अर्जित किया। कोलकाता में स्वामीजी के अध्ययन-अध्यापन की योग्यता की प्रशंसा विद्वानों में हुई।
- 7. कोलकाता से ‘सोरों’ आकर संस्कृत पढ़ाने लगे। मई 1832 ई. में दण्डी जी गंगा में खड़े होकर विरचित विष्णुस्तोत्र का पाठ कर रहे थे। उनके शुद्ध उच्चारण से प्रभावित होकर अलवर के राजा विनय सिंह आपको श्रद्धा के साथ संस्कृत पढ़ाने के लिए अलवर ले गये। अलवर में कुछ माह रहकर स्वामी जी ने राजा को स्वलिखित शबदबोध (1832 ई. के उत्तरार्ध), लघुकौमुदी, विदुर-प्रजागर, तर्कसंग्रह, रघुवंश आदि पढ़ाये और राजा संस्कृत में सामान्य संभाषण करने लगे थे। फिर दण्डी जी ने अलवर छोड़ने का निश्चय कर लिया। विदाई के समय राजा ने ढाई हजार रुपये देकर समान के साथ विदा किया। कालान्तर में राजा ने अपने पुत्र शिवदान सिंह के जन्म (14 सितबर, रविवार) के शुभ अवसर पर दण्डी जी को हजार रुपये और पंद्रह रुपये मासिक सहयोग भी किया।
- 8. स्वामी जी अलवर से भरतपुर के शासक बलवन्त सिंह के यहाँ (1836 ई. के लगभग) पहुँचे और विश्राम किया। राजा ने स्वामी जी की विद्या से प्रभावित होकर रुकने को कहा, परन्तु स्वामी जी के चलने के आग्रह पर 400 रुपये एक दुशाला भेंट में दिया। स्वामी जी भरतपुर से मथुरा पहुँचे। फिर मुरसान (राजा टीकम सिंह) का आतिथ्य स्वीकार करके वहाँ से बेसवाँ जाकर (राजा गिरिधर सिंह) के अतिथि रहकर सोरों में पढ़ाने लगे। कुछ वर्षों के बाद रुग्ण हो जाने पर अचेत तक हो गये।
- 9. सोरों से मथुरा जाने का निश्चय किया। सेवक और बैलगाड़ी चालक को किराया भाड़ा देने तक के रुपये नहीं थे। ईश्वर का विश्वास कर चल पड़े। बिलराम निवासी धनपति दिलसुख राय (1857 ई. में अंग्रेज सरकार की सहायता के कारण राजा की उपाधि) ने स्वामी जी को पाँच अशर्फियाँ और आठ रुपये भेंट किये।
- 10. मथुरा में स्वामी जी का आगमन 1846 ई. में हुआ और 1868 ई. तक (22वर्ष) संस्कृत पठन-पाठन किया। दण्डी जी के गुरुभाई पं. किशनसिद्ध चतुर्वेदी और शिवानन्द मथुरा में रहते थे। यहाँ रहकर पढ़ाना प्रारभ किया। योगेश्वर श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में युगद्रष्टा स्वामी विरजानन्द ने आर्ष पठन-पाठन, वैदिक साहित्य के संरक्षण व अध्ययन, पाखण्ड और कुरीतियों के निवारण तथा भारत के स्वाभिमान और स्वतन्त्रता के रक्षण का संकल्प अपनी पाठशाला से प्रारभ किया। देश के 1857 ई. के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में स्वामी जी के विचारों का प्रभावशाली योगदान रहा। हिन्दू समाज व मुसलमान स्वामी जी को अपना मुखिया (बुजुर्ग) मानते और समान करते थे। स्वामी वेदानन्द सरस्वती ने माना था कि दण्डी जी के शिष्यों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था। चौधरी कबूलसिंह ने मीर मुश्ताक मीर इलाही मिरासी का उर्दू में लिखा दस्तावेज पत्रिका को दिया था, जिसका हिन्दी अनुवाद पत्रिका में छपा। इसके अनुसार 1856 ई. में मथुरा के जंगलों में दण्डी जी की अध्यक्षता में एक पंचायत हुई थी, जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की रचना की गयी थी। मथुरा निवासी शिष्य नवनीत कविवर के स्वामी दण्डी जी विषयक कवित्त से उनके अंग्रेजी सत्ता के प्रति विद्रोह-भावना का पता लगता है सप्रदायवाद वेदविहित विवर्जित पै, शासन विदेशिन को नासन प्रचण्डी ने। अगारे ही उदण्ड भय उठाय दण्ड, चण्ड हवै प्रतिज्ञा करी। प्रज्ञाचक्षु दण्डी ने 1859 ई. में आकर कौमुदी के स्थान पर अष्टाध्यायी पढ़ाने का निश्चय किया और वैष्णव विचारधारा, मूर्तिपूजा, भागवत का खंडन करने लगे। उन्होंने इस समय वाक्य मीमांसा 1859 ई. में लिखी और बाद में उन्होंने पाणिनी सूत्रार्थ प्रकाश की रचना की । स्वामी दयानन्द के उदयपुर प्रवास के समय मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या को बताया था कि स्वामी विरजानन्द जी को अष्टाध्यायी पढ़ाने की प्रेरणा देने वाले स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती थे । दण्डी जी ने बनारस और मथुरा में दाक्षिणात्य ऋग्वेदी ब्राह्मण के मुख से अष्टाध्यायी के सूत्र सुने और सुनकर कंठस्थ किये।
- 11. गुरु विरजानन्द की इस पाठशाला में स्वामी दयानन्द सरस्वती का विद्या प्राप्ति हेतु आना नवबर 1860 (1917 वि. कार्तिक मास शुक्ल पक्ष द्वितीया बुधवार को हुआ। महान गुरु विरजानन्द दंडी और पढ़ने वाले तेजस्वी शिष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती) के परस्पर सममिलन से भारत में प्राचीन वैदिक संस्कृति के सरंक्षण के क्रांतिकारी युग का सूत्रपात हुआ।
- 12. स्वामी विरजानन्द दंडी अद्भुत विलक्षण प्रतिभा- सपन्न, व्याकरण, शास्त्रके, सूक्ष्म-द्रष्टा, विद्या-विलासीगुरु, राजाओं को नीति, संस्कृति और राष्ट्र की शिक्षा देने वाले तथा भारतीय संस्कृति का गुणगान करने वाले राष्ट्र-प्रेमी और राष्ट्र-भक्त महात्मा थे।
- 13. दंडी स्वामी का निर्वाण 14 सितबर 1868 ई. को मथुरा में हुआ था। उनके देहावसान का समाचार सुनकर प्रिय शिष्य दयानन्द ने कहा- आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया। यह स्वामी दयानन्द की अपने गुरु के प्रति सच्ची भावना थी। अपने गुरु को दिये वचन के अनुसार अपना सपूर्ण जीवन संस्कृति के सरंक्षण और भारत माता के उत्थान में लगा दिया।
- 14. भारत माता के यह महान् प्रज्ञा-चक्षु, तेजस्वी संन्यासी संसार से जाते हुए एक दिव्यज्योति दयानन्द के रूप में दे गए। भारतीय इतिहास में विरजानन्द दंडी का नाम सदा सूर्य की भाँति प्रकाशित रहेगा।
ऐसे महान गुरु को हमारा श्रद्धा के साथ शत्-शत नमन।
– नईदिल्ली
चलभाष- 09871020844
Respected Arya Ji,
Have you met ever in your life journey with a Yog who reached in state of Asprajyat Samaadhi ?
You can meet with Swami Vivekanand Saraswati at Prabhat Ashram , meerut. Mob.8447158085
Kis sandarbh mn kah rahe ho manywar
प्रभात आश्रम भोला झाल टिकरी में एक संत रहते है , स्वामी विवेकानंद !
Mob. 8447158085
बिंदु संख्या 2 >>>>तीन वर्ष तक साधना और एक लाख गायत्री मंत्र का जप गंगा जल में आकंठ करना ये समझ नहीं आया ………. ये सत्य है जरा समझाने का कष्ट कीजिये !