हरियाणा प्रान्त आर्य समाज का गढ़ रहा है। इसके प्रचार-प्रसार का मुय कारण यहाँ के निवासियों का व्यवसाय रहा है, जिसमें एक कृषि करना तथा दूसरा युद्ध करना। इसका भी मुय कारण है- शहर की न्यूनता। यहाँ के लोग परिश्रमी, साहसी, सरलचित्त और भावुक हैं, अतः इनके लिए रूढ़ियों को तोड़ना बहुत सरल है। हरियाणे में आर्य समाज का प्रचार आरभ बहुत शीघ्रता से हुआ। रोहतक और हिसार आर्य समाज के प्रमुख के न्द्र रहे हैं। जब लाला लाजपतराय को 1909 में निर्वासन का दण्ड दिया गया तो उस समय हरियाणा के आर्य समाजियों में असन्तोष की लहर दौड़ गई। इस असन्तोष की लहर ने अंग्रेज शासकों को चौकन्ना कर दिया और वे आर्य जनता को अनेक प्रकार से तंग करने लगे। रोहतक जिले में सरकारी अधिकारियों ने जब आर्य समाजियों पर दमन चक्र चलाया तो उस समय वहाँ के प्रमुख आर्य समाजियों ने एक शिष्ट मण्डल महात्मा मुन्शीराम जी से मिलने के लिए गुरुकुल काँगड़ी भेजा। शिष्ट मण्डल ने महात्मा मुन्शीराम को अंग्रेज सरकार की दमनकारी नीति कह सुनाई। उस समय मुन्शीराम जी ने पं. ब्रह्मदत्त (स्वामी ब्रह्मानन्द) को रोहतक जिले में आर्य समाज के प्रचारार्थ भेजा।
जन्म-स्थान तथा कार्यक्षेत्र- स्वामी ब्रह्मानन्द जी का जन्म बिहार प्रान्त के आरा जिले के डुमरा ग्राम में सं. 1925 वि. (सन् 1868)माघ शुक्ला पंचमी को माता श्रीमती देवमूर्ति की कोख से श्री रामगुलाम सिंह के घर पर हुआ। ब्राह्मणों ने नामकरण संस्कार में आपका नाम ब्रह्मदत्त रखा जो बाद में संन्यास लेने के उपरान्त संन्यास गुरु स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती रखा। आपके माता-पिता दोनों ईश्वरभक्त, धर्मपरायण एवं सद्विचारों के थे। स्नेहमयी माता की गोद में लोरी के साथ-साथ विशुद्ध धर्म-परायणता घुट्टी के रूप में मिली। यही कारण है जब आप आरा के हाईस्कूल में शिक्षा अर्जित कर रहे थे, तब आपको किसी आर्य विद्वान् से सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को मिला। आपका मन सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर सत्य-असत्य का निर्णय करने में तल्लीन हो गया। तभी से आप वैदिक धर्म, महर्षि दयानन्द एवं आर्य समाज के दीवाने हो गए।
शिक्षा-अर्जित करने के उपरान्त सर्व प्रथम श्री ब्रह्मदत्त जी ने सन् 1890 ई. में ‘‘आर्यावर्त’’ नामक साप्ताहिक पत्र के सपादन का कार्य निर्भ्रान्त एवं सुचारु रूप सें किया। अपने सपादकत्व काल में आपने ‘‘आर्यावर्त’’ पत्र के द्वारा आर्य समाज के सिद्धान्तों का बहुत ही उत्कृष्टता से प्रचार-प्रसार किया और सामयिक परिस्थितियों पर लेख लिखकर पाठकों के हृदयों को उद्वेलित किया। जो भी लेख पढ़ता था, वह आपके अग्रिम लेखों का इन्तजार करता था। इसके उपरान्त आप कलकत्ते से निकलने वाले हिन्दी पत्र ‘‘भारत मित्र’’ के सपादक बन गये। इस पत्र को भी आपने आर्य सिद्धान्तों का संवाहक पत्र बना दिया। इसमें महर्षि दयानन्द के भी लेख छपते थे। आपके लेखों की माँग उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। हरियाणा के गुडियानी ग्राम (तब झज्जर) के निवासी बाबू बालमुकुन्द गुप्त को भी इस पत्र का सपादक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। कलकत्ते में रहते हुए पं. ब्रह्मदत्त जी आर्य सिद्धान्तों की पुष्टि में व्यायान भी देते रहे। आपकी वाणी में मधुरता एवं गाभीर्य था। आपको इतिहास का काफी ज्ञान था।
दुर्भाग्य से उन दिनों पं. दीनदयाल व्यायान वाचस्पति के कुछ अनुयायी आपके साथ ‘‘भारत मित्र’’ में कार्य करने के लिए आ गये। उनके विचारों से आप सहमत नहीं हो सके, क्योंकि उन्होंने इस पत्र पर पौराणिक प्रभाव डालना चाहा। आप किसी भी कीमत पर आर्य सिद्धान्तों से समझौता नहीं करना चाहते थे। अन्त में आपने वहाँ से त्याग-पत्र दे दिया। आप वहाँ से गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार में महात्मा मुन्शीराम के पास आ गये। वहाँ से आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करने के लिए पंजाब व हरियाणा में चले गये। हरियाणा प्रान्त में आपने पानीपत, रोहतक और हिसार में वैदिक धर्म और आर्य सिद्धान्तों का बहुत प्रचार किया। यहाँ पर आपने लगभग दस हजार नए आर्य समाजी बनाए। सन् 1918 में भक्त फूलसिंह पटवारी अपनी धर्मपत्नी श्रीमती धूपा देवी के साथ स्वामी ब्रह्मानन्द जी से वानप्रस्थाश्रम की दीक्षा लेने के लिए गए। वहीं से दीक्षित होकर भक्त फूलसिंह व माता धूपा देवी ने सर्वमेघ यज्ञ करके सपूर्ण जीवन गुरुकुल और गरीब जनता के लिए अर्पित कर दिया। आपने गुरुकुल भैंरुवाल, गुरुकुल झज्जर व गुरुकुल चित्तौड़ में मुयाधिष्ठाता एवं आचार्य पद पर अनेक वर्षों तक कार्य किया।
सन् 1925 में आपने स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती से संन्यास आश्रम की दीक्षा ली। उसके उपरान्त ही आप पं. ब्रह्मदत्त से स्वामी ब्रह्मानन्द नाम से वियात् हुए। आपकी कार्य-क्षमता बुद्धिमत्ता एवं बृहद्ज्ञान को देखकर रायबहादुर रामविलास शारदा ने आपको ‘‘वैदिक यन्त्रालय’’अजमेर के मैनेजर पद पर कार्य करने के लिए बुला लिया। आपने बड़ी निष्ठा एवं श्रद्धा से यहाँ कार्य किया।
महात्मा मुन्शीराम जी अपने साप्ताहिक पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ को उर्दू से बदलकर हिन्दी में निकालना चाहते थे। इस कार्य के सपादन के लिए आप अजमेर से जालन्धर चले गए। ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ पत्र थोड़े दिनों के उपरान्त जालन्धर से गुरुकुल काँगड़ी चला गया, अतः आप भी काँगड़ी पहुँचे, लगभग पाँच वर्ष तक आप गुरुकुल काँगड़ी में रहे। ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ पत्र ने आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में अपना अमिट योगदान दिया। जब आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की बागडोर लाला मुन्शीराम के हाथों में आ गई, तब तो यह पत्र एक प्रकार से सभा का मुापत्र ही बन गया था। इस प्रकार लेखन क्षेत्र में जो योगदान स्वामी ब्रह्मानन्द जी का रहा, वह सार्वजनिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक क्षेत्र में भी कम नहीं रहा। आर्य समाज द्वारा उस काल में चलाये गये साी आन्दोलनों में आपकी अहम भूमिका रही। हैदराबाद सत्याग्रह के समय तो आपने भक्त फूलसिंह जी के साथ ग्राम-ग्राम में जाकर ऐसा माहौल बनाया कि हजारों की संया में सत्याग्रही आपके साथ रोहतक से हैदराबाद के लिए रवाना हुए। भक्त फूलसिंह जी ने जब मोठ ग्राम के दलितों (चमारों) के कुएँ के लिए नारनौद ग्राम में अनशन व्रत किया, तब आपने घूम-घूमकर अनशन व्रत के पक्ष में वातावरण तैयार किया। आपको अनेक कठिनाइयों, संकटों का सामना भी करना पड़ा, परन्तु आप अपने कर्त्तव्य से कभी विमुख नहीं हुए। आपका हरियाणा में प्रचार का इतना प्रभाव पड़ा कि वहाँ के आम जन आपको ‘‘जाट गुरु’’ कहते थे। आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से आपने लगभग 12 वर्ष तक हरियाणा में वैदिक धर्म व आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। रोहतक जिले में तो आपने आर्य समाज की अमर बेल को उस समय सींचा, जबकि उसे विचार रूपी रस की सर्वाधिक आवश्यकता थी। लेखनी और वाणी के धनी स्वामी ब्रह्मानन्द जी जैसे-जैसे उमर ढलती गई, रुग्ण अवस्था के जाल में फँसते गये। इस प्रकार आयु के अन्तिम दिनों में आप आर्य समाज दीवानहाल में रहने लगे। आपका स्वास्थ्य वहाँ पर दिन प्रतिदिन गिरने लगा। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। वहाँ से आपके सुयोग्य सुपुत्र डॉ. अनन्तानन्द जी, जो कि गुरुकुल काँगड़ी में आयुर्वेद महाविद्यालय के आचार्य थे, गुरुकुल में ले गये। वहाँ पर आपका काफी उपचार हुआ, परन्तु आप स्वस्थ नहीं हो सके। वहाँ सन् 1948 में 80 वर्ष की आयु में आपका देहावसान हो गया। आर्य जनता में शोक की लहर छा गई। महर्षि दयानन्द सरस्वती की आर्य समाज रूपी वाटिका का पुष्प और मुरझा गया, परन्तु यह वाटिका उनके त्याग-तप से और भी पल्लवित हुई है। मुझे यह लिखने में संकोच नहीं है कि आज जो आर्य समाज बचा हुआ है, वह ऐसे ही महापुरुषों के तप और त्याग का फल है। उनका यश रूपी शरीर हम सबके हृदयों में सुगन्धित है। यह सुगन्ध हम सबके लिये प्रेरणादायी बनी रहे। भगवान हम सब आर्यों को शक्ति व सद्बुद्धि दे कि हम अपने महापुरुषों के अधूरे कार्यों को पूरा कर सकें। अन्त में मैं डॉ. धर्मवीर कुण्डू रोहतक व श्री बलबीर शास्त्री भैंसवाल का आभारी हूँ कि आपने श्रद्धेय स्वामी ब्रह्ममानन्द का चित्र उपलध करवाने में सहयोग प्रदान किया, जिससे में दो शद स्वामी जी के बारे में लिख सका।
पवित्र अनशन की समाप्ति पर महात्मा गाँधी का जो धन्यवाद पत्र भक्त फूलसिंह को मिला, वह इस प्रकार था….
हरिजन सेवक 26/10/1940
मुझे श्री वियोगी हरि जी के पत्रों से भक्त फूलसिंह जी के पवित्र अनशन व्रत का समाचार मिला। भक्त जी के हृदय में हरिजनों के प्रति किए गये अन्याय का गहरा दुःख था। उन की दोनों पक्षों के प्रति शुभकामना थी। हरिजनों को पीने के पानी का बड़ा कष्ट था, इसे दूर करने के लिए उन्हें अनशन व्रत करना पड़ा।
इनका अनशन व्रत मोठ के मुसलमान रांघड़ों तथा जाटों को अपने पवित्र प्रेम से उन्हें सच्चा रास्ता दिखाने का था। यह व्रत केवल धर्म-बुद्धि से तथा ईश्वर विश्वास पर किया गया था। व्रत काल में अनेक बार असफलता के बादल मँडलाए, परन्तुाक्ति जी का धैर्य और ईश्वर विश्वास प्रबल था। भगवान की ज्योति में वे अपनी सफलता देखते थे। समय आया, वे अपने व्रत में सफल हुए। मेरे राजकोट के अनशन व्रत में विश्वास की कमी थी। प्रतिकूल स्थिति ने मेरे मन को हिला दिया, जिससे मैं अपने व्रत में असफल रहा। –एम.के. गाँधी
– 1325/38, ‘ओ3म् आर्य निवास’,
गली नं. 5, विज्ञान नगर, आदर्श नगर, अजमेर
swami brahmanand ji