जीवन की सुवासः– स्वामी आत्मानन्द जी महाराज एक बार आर्यसमाज देहरादून के एक कार्यक्रम में आमन्त्रित किये गये। समाज के अधिकारियों को यह पता था कि उन्हें रक्तचाप का रोग है। समाज के सज्जनों ने स्वामी जी महाराज से बड़ी श्रद्धा भक्ति से कहा कि सब अतिथियों के भोजन की समुचित व्यवस्था कर दी गई है। आपको रक्तचाप रहता है। आपको वही भोजन मिलेगा जो डाक्टरों ने आपके लिये निर्धारित कर रखा है। अब आप बतायें डाक्टर ने आपको क्या लेने केलिए कहा है। वैसा ही भोजन बन जायेगा।
स्वामी जी ने कहा, मैं भी वही भोजन लूँगा जो अन्य सज्जन लेंगे। मेरे लिये पृथक् से कुछ न बनाया जाये। समाज के अधिकारियों ने बार-बार आग्रह पूर्वक स्वामी जी से अपनी बात कही। यह भी कहा कि हमें इसमें असुविधा नहीं । आप बता दें कि क्या बनाया जावे।
स्वामी जी ने क हा,‘‘मैं जानता हँॅू कि आपका समाज सपन्न है। आपमें सामर्थ्य है परन्तु मैं साधु हूँ। मुझे छोटे बड़े सब समाजों में जाना पड़ता है। यदि अपनी इच्छा के अनुसार भोजन की मांग करुंगा तो लोग क्या कहेंगे? यह साधु तो अपने ही ढंग का भोजन चाहता है। इससे क्या सन्देश जाायेगा? मैं भोजन तो वही लूँगा जो सब लेंगे। जो वस्तु अनुकूल नहीं होगी वह थोड़ी लूँगा।’’
इस घटना को आधी शतादी से भी अधिक समय हो गया। यह प्रेरक प्रसंग श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने सुनाया। वह इसके प्रत्यक्षदर्शी हैं। इस प्रसंग से एक आदर्श संन्यासी, एक महामुनि, यशस्वी दार्शनिक के जीवन की सुवास आती है।स्वामी जी ने देहरादून के आर्यों पर अपने जीवन की अमिट व गहरी छाप छोड़ी । सार्वजनिक जीवन में कार्य करने वाले सब छोटे बड़े व्यक्तियों के लिये यह घटना एक बहुत बड़ी सीख है।