स्वावलंबी को सर्वत्र प्रतिष्ठा व सम्मान मिलता है डा अशोक आर्य
यह वैदिक ही नहीं सामाजिक नियम है कि जो व्यक्ति स्वावलंबी है , जो व्यक्ति दूसरों पर निर्भर न हो कर अपने सब कार्य,सब व्यवसाय आदि स्वयं करता है , समाज उसे आदर की दृष्टि से देखता है , उसे सम्मान देता है | स्वावलंबी व्यक्ति जहाँ भी जाता है , उसका खूब आदर सत्कार होता है | ऐसे व्यक्ति द्वारा अपना कम स्वयं करने से उसका अनुभव दूसरों से अधिक होता है , उसकी कार्यकुशलता भी अन्यों से कहीं अधिक होती है तथा वह जो कार्य करता है , उसे करने में उसकी गति भी तीव्र होती है | इस तथ्य को ऋग्वेद में बड़े ही सुन्दर विधि से इस मन्त्र में स्पष्ट किया गया है :
स्वःस्वायधायसेकृणुतामृत्विगृत्विजम्।
स्तोमंयज्ञंचादरंवनेमाररिमावयम्॥ ऋ02.5.7
मन्त्र कहता है कि हे मानव ! स्वावलंबन को तुम अपनी पिष्टी के लिए धारण करो | हे यज्ञमान ! तुम ऋतु के अनुकूल यज्ञ करो | हमने दान दिया है , अत: हम अधिक प्रशंसा और यज्ञ ( संमान ) को प्राप्त करें |
मन्त्र में सर्वप्रथम स्वावलंबन पर बल दिया गया है | आगे बढ़ने से पूर्व स्वावलंबन के सम्बन्ध में जानकारी होना आवश्यक है , इसे जाने बिना हम मन्त्र के भाव को ठीक से नहीं समझ सकते | अत: आओ हम पहले हम स्वावलंबन शब्द को समझें : –
स्वावलंबन क्या है ? :-
स्वावाकंबन से अभिप्राय स्वत्व की अनुभूति और उसका प्रकाशन से होता है | जब मानव स्व को ही भूल जावे तो उसका अवलंबन भी कैसे करेगा ? एक पौराणिक कथा के अनुसार पवन पुत्र हनुमान को एक शाप के अंतर्गत स्वत्व से उसे भुला दिया गया था , इस कारण अत्यंत शक्तियों का स्वामी होने पर भी हनुमान जी निष्क्रीय से ही रहते थे | वह स्वशक्ति से अनभिज्ञ ही रहते थे | इस कारण सदा भयभीत से , भीरु से होकर भटकते रहते थे | जब उन्हें उनकी शक्तियों का स्मरण दिलाया गया तो उन्हें पुन:पता चला कि वह तो शक्ति का भण्डार है , बस फिर क्या था वीरों की भांति उठ खड़े हुए तथा शस्त्र हाथ में लिए , शत्रु के संहार को चल पड़े, जिधर भी निकले , शत्रु को दहलाते चले गए , उनका नाम सुनकर ही शत्रु कांपने लगे | इससे स्पष्ट होता है की जब तक हम स्व को नहीं जानते , तब तक हम कुछ भी नहीं कर पाते इस लिए स्व की जानकारी, स्व का परिचय ,स्व का ज्ञान होना आवश्यक है , किन्तु यह स्व किसे कहते हैं , इसे भी जानना आवश्यक है |
स्व का अर्थ है –
स्व से भाव होता है आत्मा या जीवात्मा | स्व का भाव स्पष्ट होंने से हम स्वालंबन का अर्थ भी सरलता से कर सकते है | स्व के अर्थ को आगे बढ़ाते हुए हम कह सकते हैं कि स्वावलंबन का अर्थ हुआ — उस आत्मा अथवा जीवात्मा के प्रकाश का आश्रय लेना अथवा उस आतंरिक शक्ति का उपयोग और प्रयोग करना | जब कोई व्यक्ति स्व का अवलंबन करता है तो उस में किसी प्रकार की स्वार्थ भावना नहीं रहती | सब प्रकार के स्वार्थों से वह ऊपर उठ जाता है |वह अपने पण को स्वाहा कर देता है , इदं न मम आर्थात यह मेरा नहीं है , की भावना उसमें बलवती होती है | इससे स्पस्ट होता है कि आत्मिक शक्ति का अवलंबन ही स्वावलंबन होने से वेद में स्वाहा और सवधा शब्दों का अत्यधिक व सम्मान से प्रयोग होता है | यग्य में हम जो भी पदार्थ डालते हैं यग्य अग्नि उसे अपने पास न रख कर सूक्षम कर आगे बढा देता है , इसे बढ़ने के पश्चात आगे बांटने के इए वायु मंडल को दे देता है | जब मानव अपने जीवन को यग्य मय बना लेता है तो वह भी दो हाथों से कमाता है तथा हजारों हाथों से बांटने लगता है . आप कहेंगे दो हाथों से कमा कर हजारों हाथों से बांटने के लिए तो सामग्री ही उसके पास न रहे गी , इसका अर्थ क्या हुआ ? इसका भाव है कि हे मानव ! तू इतना म्हणत कर , तू इतना पुरुषार्थ कर, इतना यत्न कर कि जो तू ने कमाया है वह तेरी शक्ति से कहीं अधिक होगा क्योंकि तुने आकूत प्रयत्न किया है , इससे तेरे पास इतनी सम्पति होगी कि जो हजारों हाथों से भी बांटने पर भी समाप्त न होगी अपितु निरंतर बढती ही चली जावेगी . यह ही मानव की यज्ञ रूपता है |
” इदं न मम” का अर्थ : –
जब हम स्वाहा शब्द का प्रयोग करते हैं तो साथ ही बोलते हैं ” इदं न मम”. अर्थात जो कुछ मैंने यग्य, में डाला है उसमें मेरा कुछ नहीं है , सब कुछ समाज का दिया हुआ होने के कारण उस समाज का ही है , इस त्याग बुद्धि की उत्पत्ति ही स्वाहा – बुद्धि है | इस शब्द के प्रयोग से हम में नम्रता आ जाती है , सेवा का भाव जागृत होता है, साथ ही यह भी हम जान जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है , वह हमारा नहीं है, हम तो मात्र रक्षक हैं , तो किसी को कुछ भी देते समय हमें कष्ट के स्थान पर गर्व होगा |
स्वधा स भाव : –
एक और तो स्वार्थ भाव को छोड़ना है तो दूसरी ओर स्वधा शब्द दिया गया है |जिसका भाव है — स्व – आत्मप्रकाश , मनोबल, आत्मिक बल को , ढ – धारण करना | तुच्छ स्वार्थ – बुद्धि को छोड़ना चाहिए ओर अपने अन्दर स्वधा या आत्मिक बल को धारण करना चाहिए | यही स्वाहा ओर स्वधा का वास्तविक अर्थ है | अतएव मन्त्र में कहा गया है कि स्व अर्था | अतएव आत्मा के ज्ञान के लिए स्वधा ( आत्मिक बल ) को प्राप्त करो | इससे स्पस्ट होता है कि स्वधा का अर्थ है आत्मिक बल | यह आत्म बल ही है जो मानव में नवशक्ति का संचार करता है , यह आत्मिक बल ही है , जिससे मानव बड़े महान एवं दुर्घर्ष कार्य करने में भी सफल हो जाता है , इसके बिना मानव कुछ भी नहीं कर सकता, वह अधूरा होता है . अत: आत्मबल अर्थात स्वधा के द्वारा ही मानव में यज्ञीय भावना आती है ,परोपकार की अग्नि उसमें प्रदीप्त होती है , दान देने में प्रवृति होती है ओर दूसरों के सहयोग की भावना जागृत होती है | इससे उसे यश मिलता है , उसे कीर्ति मिलती है तथा सर्वत्र उसका गुणगान होता है
डॉ.अशोक आर्य