भारत की गोत्रपद्धति नृवंश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली अद्भुत परपरा है। इससे मूलपिता तथा मूल परिवार का ज्ञान होता है। वर्तमान में ब्राह्मण-जातियों, क्षत्रिय-जातियों, वैश्य-जातियों और दलित-जातियों में समान रूप से पाये जाने वाले गोत्र, उस ऐतिहासिक वंश-परपरा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि वे सभी एक ही पिता के वंशज हैं। पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे। बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा। किसी क्षेत्र में किसी गोत्र-विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया। कालक्रमानुसार जन्म के आधार पर उनकी जाति रूढ़ और स्थिर हो गयी।
आज हम देखते हैं कि सब वर्णों के गोत्र प्रायः सभी जातियों में हैं। कौशिक ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी। कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी, पिछड़ी जाति वाले भी। वसिष्ठ ब्राह्मण भी हैं, दलित भी। दलितों में राजपूतों और जाटों के अनेक गोत्र हैं। सिंहल-गोत्रीय क्षत्रिय भी हैं, बनिये भी। राणा, तंवर, गहलोत-गोत्रीय जाटाी हैं, राजपूत भी। राठी-गोत्रीय जन जाट भी हैं, बनिये भी। गोत्रों की यह एकरूपता सिद्ध करती है कि कभी ये लोग एक पिता के वंशज या एक वर्ण के थे। व्यवस्थाओं और परिस्थितियों ने उनको उच्च-निन स्थिति में ला दिया और जन्मना जातिवाद ने उसे सुस्थिर कर दिया।