स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-३३

असपत्ना सपत्नध्नी जयन्त्यभि भूवरी

यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च।

मन्त्र का उत्तरार्ध कहता है- मैं केवल अपने पति के लिये ही स्वीकार्य या मान्य हूँ, ऐसा नहीं है। मैं अपने साथ रहने वाले सभी मनुष्यों के लिये स्वीकार्य हूँ। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि कोई व्यक्ति जब अपने आपको शक्तिशाली, महत्त्वपूर्ण और अधिकार सम्पन्न समझता है, उस समय वह अपने लिये महत्त्वपूर्ण हो सकता है, परन्तु सबके लिये स्वीकार्य होना तभी सम्भव है, जब वह सामर्थ्यवान होकर भी सर्वोपकारी हो, सर्वसुलभ हो। ऐसी अवस्था में ही वह सर्वजन स्वीकार्य और सर्वजन मान्य हो सकता है।

विवाह में शिलारोहण के साथ लाजा होम किया जाता है, तब इन्हीं दो बातों के विषय में वर-वधू को ध्यान दिलाया जाता है कि हमें अपने  वैवाहिक जीवन में दृढ़ता रखनी है। मैं दृढ़ रहूँगा, तुम भी मेरे साथ दृढ़ रहना, पत्थर उसका प्रतीक है। जब भाई द्वारा कन्या का पैर शिला पर रखा जाता है और वह मन्त्र पढ़ता है- अरिह – तुम इस शिला पर आरूढ़ हो जाओ, क्योंकि तुमको इस पत्थर की भाँति दृढ़ होकर रहना है। तुम्हारा साथ पत्थर की भाँति दृढ़ व्यक्ति के साथ है, तुम भी दृढ़ रहोगी, तभी साथ रह पाओगी।

जीवन में दृढ़ता के बिना न गति है, न प्रगति है। दृढ़ता से स्थिरता आती है। चञ्चलता अस्थिरता का दूसरा नाम है, स्थिर व्यक्ति बाधाओं को दूर कर सकता है, स्थिर योद्धा ही शत्रुओं का सामना कर सकता है, शत्रुओं पर आक्रमण कर सकता है। भागने वाला अस्थिर व्यक्ति आक्रामक कैसे हो सकता है? इसलिये वर वधू से कहता है- मैं स्थिर हूँ, मैं दृढ़ पत्थर की भाँति हूँ। तुमको भी मेरे साथ रहना है तो पत्थर की तरह दृढ़ होकर रहना होगा, नहीं तो संसार की समस्याओं का और हम पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का नाश नहीं कर सकते।

विवाह की इस प्रक्रिया की रोचकता यह है कि इस विधि को लाजा होम के साथ संभवतः इसीलिये किया जाता है, क्योंकि एक क्रिया के बिना दूसरी क्रिया अधूरी है। प्रथम कार्य दृढ़ होना, दूसरा कार्य अन्यों का उपकार करना है। इसमें उपकार का क्रम भी बताया गया है, क्योंकि उपकार करने का अर्थ कर्त्तव्य को भूलना नहीं है। आहुति के क्रम में कर्त्तव्य का क्रम भी बताया गया है।

लाजा होम की प्रथम आहुति देते हुए वधू कहती है- आज के बाद मेरे कर्त्तव्य में प्राथमिकता पति की है। पति के प्रति मेरा प्रथम कर्त्तव्य है, उसका सम्मान और सत्कार मुझे करना है, वह भी उसी प्रकार मेरा सम्मान करता है। दूसरी आहुति के साथ वधू का कर्त्तव्य घर के निवासियों के साथ है। घर में रहते हुए ऐसा नहीं हो सकता- आपने केवल अपने बारे में सोचकर ऐसा निर्णय कर लिया तो परिवार में विघटन और द्वेष भाव प्रारम्भ हो जायेगा। परिवार के सभी सदस्यों के साथ भी अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करना होगा, तभी अपने को और पति को परिवार के साथ बाँध के रखने में वधू समर्थ हो सकती है। तीसरी आहुति देते हुए वधू कहती है- पति और घर के साथ-साथ अपने सामाजिक दायित्वों का भी मुझे निर्वाह करना है। इसमें चाहे मेरे सम्बन्धी लोग हैं, चाहे विद्वान् अतिथि हैं अथवा बुभुक्षित, पीड़ित, असहाय, दुर्बल मनुष्य, बालक, पशु-पक्षी- सभी की चिन्ता करना, उनकी यथासम्भव सहायता सहयोग करना, सान्त्वना देना, यह भी कर्त्तव्य है, तभी ऐसी नारी न केवल अपने पति की प्रेम भाजन होगी, अपितु परिवार एवं समाज के प्रत्येक सदस्य की प्रशंसा प्राप्त करने वाली बन जायेगी।

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