स्तुता मया वरदा वेदमाता-39
आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।
आपः सर्वस्य भेषजीस्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्।।
– ऋग्. 10/137/6
यह चिकित्सा का सूक्त है। मनुष्य कैसे स्वस्थ रह सकता है, इसका प्रत्येक मन्त्र में सन्देश है। मनुष्य का शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना है। शरीर में जिन पदार्थों की अनुपात से कमी या अधिकता होती है, उन्हीं के कारण रोग होता है। इसकी चिकित्सा भी प्राकृतिक पदार्थ ही हैं। जिन पदार्थों की शरीर में न्यूनता होती है, उसी प्रकार का पदार्थ शरीर में पहुँचाया जाता है। अधिकता होने पर उसकी न्यूनता के उपाय किये जाते हैं। इसी आधार पर वेद में कहा गया है- जल इस शरीर के लिये महत्त्वपूर्ण औषध है। शरीर पाँच भूतों से बना है। अतः इसे भौतिक शरीर कहा जाता है। पाँच भूतों में शरीर में सबसे अधिक मात्रा जल की होती है। शरीर के पदार्थों में जल की मात्रा सत्तर प्रतिशत होती है। इस कारण शरीर में जल के सन्तुलन को बनाये रखने का यत्न सदा करना चाहिये।
जल सबसे अधिक सुलभ है, सरलता से उसे प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य आलस्य, प्रमाद और अज्ञान के कारण रोग ग्रस्त हो जाता है। इसका महत्त्व तब ज्ञात होता है, जब हम उसकी न्यूनता से होने वाले कष्ट से पीड़ित हो जाते हैं। गत दिनों एक परिवार में जाने पर पता लगा कि उनका पुत्र रोग से पीड़ित हो गया है और रोग का कारण चिकित्सों ने बतलाया है कि यह व्यक्ति पानी नहीं पीता या बहुत कम मात्रा में पानी पीता है। इस कारण रोगी की आंते संकुचित होकर चिपक गई है। इतना बड़ा रोग केवल पानी का प्रयोग न करने से हो गया। परमेश्वर ने ऐसी व्यवस्था की है कि यदि शरीर में किसी पदार्थ की न्यूनता होती है तो शरीर में उसकी आवश्यकता अनुभव होने लगती है। हम भोजन से, पानी से, औषध और वायु से उनकी पूर्ति करते हैं। पानी की उपयोगिता और आवश्यकता देखते हुए हमारी परमपराओं में पानी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। प्रातःकाल उठते ही मुख प्रक्षालन के साथ उषःपान का विधान किया गया है। प्रातःकाल नित्य/नियमित रूप से जल पीते रहने से शरीर में होने वाली पानी की कमी पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। पानी का पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करने से शरीर की कोशिकाओं में पूर्णता आती है। स्वच्छ जल जहाँ शरीर से दोषों को बाहर निकालता है, वहीं ऊर्जा का स्रोत भी बनता है। रक्त की मात्रा को भी कम नहीं होने देता, जिससे शरीर में कान्ति, स्फूर्ति, उत्साह का संचार होता है। भोजन को सुपाच्य बनाने के लिये भोजन में जल की उचित मात्रा अपेक्षित है। भोजन में जल का अभाव भोजन को दुष्पाच्य बनाता है, वहीं भोजन के साथ जल की अधिकता भोजन को पचाने वाले द्रवों का प्रभाव कम कर देती है। इसलिये भोजन के एक घण्टा बाद पर्याप्त जल लेने का निर्देश किया गया है।
आधुनिक अध्ययन के अनुसार हर तीन घण्टे के पश्चात् शरीर की क्रियायें शिथिल होने लगती हैं, यदि थोड़ा सा जल पी लिया जाये तो शरीर में पुनः सक्रियता का संचार हो जाता है। अतः थोड़े-थोड़े समय पर स्वल्प मात्रा में जल पीते रहने से शरीर में ऊर्जा का स्तर बना रहता है। वेद में बहुत सारे मन्त्र हैं जिनमें जल को भेषज कहा गया है। जल का सौमय गुण है, सभी प्रकार के सन्ताप- चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, जल उनको शान्त करने में समर्थ है। जल को शान्ति प्रदान करने वाला कहा गया है और इसे सबसे अधिक शान्ति प्रदान करने वाला बताते हुए शान्ततम कहा है। जल कल्याण करने वाला है तथा अत्यन्त कल्याण करने वाला होने से इसे शिवतम कहा गया है।
मन्त्र में आपः (जल) को भेषज बताते हुए रोग-कृमियों का नाश करने वाला कहा है। जहाँ जल स्वतन्त्र रूप से स्वास्थ्यवर्धक है, वहीं औषध द्रव्य के संयोग से घोल बनाकर, क्वाथ बनाकर, शर्बत बनाकर स्वास्थ्य वृद्धि और रोग का नाश करने के लिये काम में लिया जाता है। अमीव-रोग कारक वृति को कहते हैं, चातनः- नाश करने वाला अर्थात् जल में रोग कृमियों के नाश की क्षमता है। सभी ओषधियों का उपयोग जल के माध्यम से किया जा सकता है। वेद कहता है- हमें उचित है कि हम जल के महत्त्व और गुण को समझें और उसका प्रयोग कर स्वयं को स्वस्थ व निरोग बनायें।