स्तुता मया वरदा वेदमाता-38
आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्ट तातिभिः।
दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते।।
इससे पूर्व मन्त्र में वायु की शुद्धता से रोग को दूर करने की तथा रोगी के अन्दर बल संचार करने की चर्चा की गई थी। इस मन्त्र में वैद्य अपने सामर्थ्य का वर्णन कर रहा है। जब रोगी पीड़ा से त्रस्त होता है, उसे वैद्य की आवश्यकता अनुभव होती है। रोगी को विश्वास होता है कि चिकित्सक रोग और पीड़ा को दूर कर देगा। चिकित्सक को भी वैसा ही होना चाहिए। चिकित्सा ऐसा कार्य है, जिसमें मनुष्य पर असीम उपकार करने का सामर्थ्य होता है। यह सामर्थ्य वैद्य के अन्दर नैतिक और मानवीय गुण होने पर ही समभव है।
वैद्य के सामने रोगी विवश होता है। चिकित्सक योग्य एवं धार्मिक है, तो वह रोगी को प्राणदान कर सकता है, यदि मूर्ख या लोभी हो तो उसका जीवन भी नष्ट कर सकता है। चिकित्सा शास्त्र में इसी आधार पर चिकित्सकों के दो भेद किये गये। पहले वे हैं जो रोगी के प्रति सद्भाव रखते हैं, उसके कष्ट को दूर करने की इच्छा रखते हैं। रोगी की पीड़ा को दूर करके उसे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं, ऐसे चिकित्सक रोगाभिसर कहलाते हैं। इसके विपरीत स्वार्थी एवं अज्ञानी चिकित्सक रोगी के प्राणों का हरण करने वाले होते हैं, अतः उन्हें प्राणाभिसर कहा गया है।
अच्छे चिकित्सक के पास शास्त्रीय ज्ञान तो होता ही है, उसके साथ ही योग्य चिकित्सक गुरुओं के पास रहकर वह अनुभव भी प्राप्त किया रहता है, क्रिया को अनेक बार होते हुये देखा होता है। इससे कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। चिकित्सक को मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने का निर्देश दिया गया है। ऐसा व्यक्ति ही मन्त्र की भाषा बोल सकता है।
मन्त्र में चिकित्सक रोगी को कह रहा है- मैं तेरे पास आ गया हूँ, अब डरने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास ऐसे उपाय हैं, जिनसे मैं तुमहारा कल्याण कर सकता हूँ। त्वा आगमम्– मैं तुमहारे पास आया हूँ। शंतातिभिः कल्याण करने वाले उपाय से। उपाय जानने वाला कभी विषम परिस्थितियों में किंर्त्तव्यविमूढ़ नहीं होता, इसलिये युक्ति जानने वाले चिकित्सक की शास्त्र में प्रशंसा की गई है। उपरितिष्ठति युक्तिज्ञः द्रव्य ज्ञानवतां सदा– जो लोग द्रव्य औषध के विषय से परिचित हैं, परन्तु देश, काल, परिस्थिति में उनका उपयोग कैसे किया जाय, इसका विचार नहीं रखते, वे अनेक बार सफल नहीं हो पाते। अतः युक्तिज्ञ को शास्त्रज्ञान वालों से ऊँचा स्थान दिया गया है।
मन्त्र कह रहा है- मेरे पास दोनों उपाय हैं, एक जो शं= कल्याण करने वाले हैं, स्वास्थ्य को बढ़ाने वाले हैं, दूसरे उपाय है- अरिष्ट तातिभिः जो लक्षण तुहारे में रोग के हैं, उनके निराकरण का उपाय भी मेरे पास है। चिकित्सा दोनों प्रकार की होती है- विकार की शान्ति तथा स्वास्थ्य की उन्नति। इसको मन्त्र के उत्तरार्ध में इस प्रकार कहा गया है- दक्षं ते भद्रमाभार्षं, मेरी चिकित्सा में बल बढ़ाने की योग्यता है। औषध रोग निवारक सामर्थ्य की वृद्धि में सहायता करती है। शरीर के अन्दर यदि रोग निरोधक क्षमता शेष न रहे, तो औषध निष्प्रभावी हो जाती है। यहाँ वैद्य रोगी से कह रहा है- दक्षं ते भद्रं अर्थात् तुमहारे शरीर का कल्याण करने वाली, बल बढ़ाने वाली औषध मैं तुमहारे लिये लाया हूँ। इससे तुमहारा बल निश्चय ही बढ़ेगा।
अन्त में कहा गया है- परा यक्ष्मं सुवामि– रोग को शरीर से समाप्त ही करता हूँ। परा-दूर बहुत दूर रोग को हटाता हूँ। रोग के कारण तो सब स्थानों पर रहते हैं, परन्तु सभी लोग तो उससे पीड़ित नहीं होते। सभी रोगी नहीं हो जाते। जो बलवान हैं, जिनके पास रोग को रोकने का सामर्थ्य है, उस वातावरण में रहकर भी वे रोगी नहीं होते। जो दुर्बल होते हैं, जिनमें रोग निरोधक क्षमता नहीं है या स्वल्प है, उनको ही रोग पकड़ते हैं। अतः चिकित्सक कहता है- मैं रोगी को ऐसी औषध दे रहा हूँ, जिससे भविष्य में रोगी इन रोगों से बचा रहे। रोग उस पर आक्रमण करने में समर्थ न हो।