स्तुता मया वरदा वेदमाता-37
आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रपः।
त्वं हि विश्व भेजजो देवानां दूत ईपसे।।
हम वायु को प्राण कहते हैं। वायु के साथ प्राण शबद का प्रयोग प्रायः देखा जाता है, वे प्राण वायु। वायु तो बिना प्राण के भी हो सकता है। वायु में प्राणप्रद तत्व हो तभी वायु, प्राण वायु होता है, प्राण को बढ़ाने वाले वायु की प्रार्थना की गई है। वायु शुद्ध पवित्र होना चाहिए। वायु को योगवाह कहा गया है। जैसे पदार्थों से वायु का संयोग होता है, वायु वैसा ही हो जाता है। मन्त्र में आने वाले वायु को श्वास के रूप में अन्दर जाने वाली वायु को भेषज का वहन करने वाला कहा गया है। निकलने वाले शरीर से बाहर जाने वाले वायु को रपः पाप अशुद्धियों को ले जाने वाला कहा है। इस प्रकार वायु एक माध्यम है, प्राण को प्राप्त कराने का और अशुद्धि मलिनता को दूर निकालने का।
वायु प्राकृतिक रूप से प्राणशक्ति से भरपूर होता है, जब हम खुले में श्वास लेते हैं, हमारे अंग का विस्तार होता है, शरीर के अंग खुलते हैं। इनमें गति करने का सामर्थ्य आ जाता है, उत्साह, प्रसन्नता आती है। जब प्रकृति के स्वच्छ वातावरण में मनुष्य जाता है, तो उसको उल्लास का अनुभव होता है। प्रकृति में जल और सूर्य की किरणें वायु को हर समय शुद्ध करती हैं। सूर्य के प्रकाश से वायु के अन्दर विद्यमान कृमि नष्ट हो जाते हैं। जल के संसर्ग से वायु उसके अन्दर की उष्णता और अशुद्धि को छोड़ देता है।
चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि कार्बन डाई ऑक्साइड गैस से युक्त वायु जब जल के संसर्ग में आती है, तो उसमें रासायनिक परिवर्तन होकर वायु की विषाक्तता कम हो जाती है। नीचे की गैस को जल ग्रहण करता है तथा जो गैस ऊपर की ओर जाती है, उससे वातावरण में उष्णता बढ़कर वनस्पतियों को पुष्ट करती है। इसी प्रकार हवन करते समय जो-जो पदार्थ हवन कुण्ड में डाले जाते हैं, उनको अग्नि विखण्डित कर सूक्ष्म कर देता है, जिससे हवन में डाली गई, वस्तु का प्रसार वायु मण्डल में दूर तक हो जाता है तथा उसका सामर्थ्य भी अधिक होता है। वायु को जहाँ सूर्य और जल शुद्ध कहते हैं, वहीं हवन के माध्यम से अग्नि भी वायु की अशुद्धि को दूर करता है। विष कणों को रोगाणुओं को नष्ट करने की शक्ति अग्नि में ही होती है। अग्नि में भेदक गुण होता है, जिससे वस्तु कणों को भेदकर, उससे ऊर्जा को उत्पन्न करता है। इस प्रकार हवन द्वारा शुद्ध की गई वायु विश्व भेषज हो जाती है। जिस भी प्रकार की औषध अग्नि में डालेंगे, उसी गुण की वायु, उस रोग से मुक्त करने वाली बन जायेगी।
हवन में डाले जाने वाले पदार्थों में घृत भी विषनाशक है, अग्नि में रोगाणुओं को बड़ी संखया में नष्ट करता है। हवन सामग्री में कपूर गूगल भी रोग कृमियों को नष्ट करता है। यज्ञ की सुगन्ध और धूम शरीर के सीधे समपर्क में आकर शरीर के कोषों में से अशुद्धि को नष्ट कर उनमें ऊर्जा का संचार करते हैं। रक्त में हवन के धूम से सक्रियता बढ़ती है, जिससे रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता की शरीर में वृद्धि होती है, जिस प्रकार गूगल रोग कृमियों का नाश करता है, उसी प्रकार गिलोय, चिरायता, मधु आदि पदार्थ यज्ञ में डालने से रक्त शोधन होता है। मुनक्का, काजू, किशमिश आदि यज्ञ में डालने से पौष्टिकता आती है, शरीर में बल बढ़ता है।
इसलिये मन्त्र में कहा गया है कि यह वायु आता हुआ बल की वृद्धि करता है और जाता हुआ रोग को नष्ट करता है।
मन्त्र में इसी बात को बताने के लिये वायु के विशेषण के रूप में उसे विश्व भेषज कहा है। हमें जैसे रोगों की चिकित्सा करनी हो, उसी प्रकार की औषध यज्ञ की सामग्री में मिलानी चाहिए। मन्त्र में वायु के लिये देवों का दूत शबद का प्रयोग किया गया है, जैसे दूत स्वामी के सन्देश को दूर तक, दूसरे तक पहुँचाता है, उसी प्रकार वायु रोग नाशक सामर्थ्य को दूर तक पहुँचाता है। अतः दूतईय से कहा गया है कि जैसे देवताओं के दूत गतिशील होते हैं, उसी प्रकार वायु भी दिव्य गुणों का संचार मनुष्य में तीव्रता से करता है।
इस मन्त्र से हमें बोध होता है कि औषध का शीघ्र लाभ प्राप्त करने के लिये औषध को यज्ञ में डालना चाहिए। वायु को रोग विशेष के अनुसार औषध गुणों से युक्त करना उतित है तथा सामान्य रूप में पर्यावरण की शुद्धि के लिये यज्ञ में वायु शोधक पदार्थों का उपयोग करना चाहिए, जिससे स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य ठीक बना रहे।