स्तुता मया वरदा वेदमाता-27
अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचनी।।
इस सूक्त का यह दूसरा मन्त्र है। यह एक महिला की घोषणा है, जिसमें आत्मविश्वास और योग्यता का समन्वय है। विवेचन की योग्यता बिना ज्ञान के नहीं आती। आजकल का ज्ञान हमें अर्थोपार्जन की क्षमता देता है, परन्तु अपने आप पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं उत्पन्न करता। आजकल की शिक्षा उसे स्वार्थी बनाती है, उसका मूल कारण है- मनुष्य का सुविधाजीवी होना, दुःख सहने की इच्छा और सामर्थ्य का अभाव होना। हमारे छोटे-छोटे बच्चों को लगता है, हम साधनों के बिना कैसे जी सकते हैं? समाचार पत्र में पढ़ा- एक सातवीं कक्षा की बच्ची ने आत्महत्या कर ली। कारण ? उसने माता से चल दूरभाष (मोबाइल) माँगा। माँ ने कहा- बेटा, अभी तुम छोटी हो, तुम दसवीं उत्तीर्ण कर लो, तब ले देंगे। बस, लड़की को सहन नहीं हुआ, वह फाँसी लगा के मर गई। विचार करने की बात है, क्या मृत्यु के लिये यह कारण पर्याप्त है? मनुष्य क्या, कोई भी प्राणि मरने की इच्छा नहीं करता, मरने के नाम से भी डरता है, मृत्यु का अवसर आ जाये तो प्राणपण से संघर्ष करता है, संघर्ष में हराकर ही मृत्यु उसे जीतती है। यहाँ बिना लड़े ही हार मान ली है। मृत्यु की कामना वही करता है, जो जीवन में हार जाता है। छोटे-छोटे साधनों के बिना, सुविधाओं के बिना कैसे जीवित रहूँगा- यह भय ही मनुष्य को मारने के लिये आज पर्याप्त हो गया है।
मनुष्य को साधनों की अधिकता ने उतावला, असहिष्णु और भीरु बना दिया है। पुराने समय में छात्र को असुविधा में रहना सिखाया जाता था। ऐसा नहीं था कि छात्रों को सुविधायें दी नहीं जा सकती थीं, जब घर में, नगर में लोगों के पास सुविधाएँ हों, तो उन्हें क्यों नहीं दी जा सकतीं? मनुष्य को सुविधा में जीने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। धन-सपत्ति साथ आते ही उनका सुख उठाना आ जाता है। सुविधा में जीना सिखाने से असुविधा में जीना नहीं आता, परन्तु असुविधा में जीना सिखाने से सुविधा न मिलने पर, सुविधा समाप्त होने पर भी वह सरलता से सहज ही जीवन यापन कर सकता है।
आज कल बड़ी कपनियाँ बहुत सारा वेतन, साधन एवं अनेक सुविधायें दे कर मनुष्य को भीरु बना देती हैं। उनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं करता। दुर्भाग्य से कभी साधन न मिले, नौकरी छूट जाये तो ऐसा व्यक्ति अनुचित-अनैतिक माध्यमों से धन कमाने में लग जाता है या आत्महत्या कर लेता है। इसी कारण ऋषि लोग तपस्या और कठिन जीवन की बात करते हैं। सुविधा-भोगी अपने साधनों का बँटवारा नहीं कर पाता, दूसरे को सहयोग करने में उसका विश्वास नहीं होता। सुविधा-भोगी मनुष्य को कभी साधनों से तृप्ति नहीं होती, वह सदा और अधिक के चक्र में उलझ जाता है। उसकी योग्यता उसे अधिक कमाने के लिये प्रेरित करती है। इस दुश्चक्र में वह पराजित हो जाता है, बीमार हो जाता है, अन्ततः मर जाता है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं- शास्त्र मनुष्य को अपने पर नियन्त्रण करने की शिक्षा देता है। शास्त्र का अध्ययन करने से मनुष्य के अन्दर धैर्य उत्पन्न होता है। उसके अन्दर सहन शीलता बढ़ती है। चाहे जय मिले या पराजय, वे उसे विचलित नहीं करते। उसके अन्दर उचित-अनुचित, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय को समझने का सामर्थ्य आता है। ऐसे व्यक्ति को विचारों की स्पष्टता, निर्णय की क्षमता और कार्य को सपन्न करने की योग्यता प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति आत्मविश्वास से भरा होता है। उसके अन्दर भय नहीं रहता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है- जिसके अन्दर भय नहीं रहता, उसके अन्दर उदारता, सहिष्णुता, परोपकार आदि गुण सहज ही आ जाते हैं। ऐसा मनुष्य दूसरों के कष्टों को देखकर अपना सुख छोड़ देता है। उसके अन्दर नेतृत्व का गुण पूर्णरूप से विकसित होता है, जो सब उत्तरदायित्व को स्वीकार करने के लिये तैयार रहता है वही घोषणा कर सकता है- मैं सबसे ऊँचा हूँ, मैं सबके लिये उत्तरदायी हूँ।
मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह किसी भी गलती, भूल या अपराध की जिमेदारी दूसरे पर डालने का यत्न करता है। ऐसा व्यक्ति कह नहीं सकता कि मैं सर्वोपरि हूँ। मैं सबका नेता हूँ। उत्तरदायित्व के गुण के बिना नेतृत्व का गुण नहीं आ सकता। स्वार्थी और असहिष्णु व्यक्ति कभी नेता नहीं बन सकता। आजकल की शिक्षा से इन गुणों की आशा नहीं की जा सकती। आज मनुष्य योग्यता के बिना ही अधिकार की आशा करता है। आशा तो की जा सकती है, परन्तु उसका निर्वाहन हीं हो सकता। ज्ञान के बिना योग्यता नहीं आती, परिश्रम के बिना ज्ञान नहीं आता। यही कारण है कि आजकल के युवाओं में सामान्य रूप से इन गुणों की कमी देखी जाती है। योग्यता के बिना विचार में, वचन में एवं प्रामाणिकता का आभाव रहता है। जब आप किसी को कुछ कहते, बोलते, सुनते हैं, तो जब उससे उलट कर पूछा जाता है- क्या वास्तव में ऐसा है, आपके ऐसा कहने का आधार क्या है? सौ में नबे से अधिक व्यक्ति इधर-उधर झाँकने लगते हैं।
पुरानी शिक्षा जिसे अनुपयोगी समझते हैं, उसकी विशेषता है- वह शिक्षा मनुष्य को सहनशील, प्रामाणिक और उत्तरदायी बनाती है। आज किसी को कोई काम देकर आप निश्चिंत नहीं हो सकते, न तो कार्य होने का विश्वास है और न कार्य न हो पाने की सूचना। और यह कहा जाता है- तो क्या हो गया? हुआ तो कुछ नहीं, परन्तु उत्तरदायित्व का गुण समाप्त हो जाता है। इस मन्त्र के शबद घोषणा करके कह रहे हैं- घर की गृहिणी योग्य है, समर्थ है, उत्तरदायी है और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है। ऐसी नारी की कल्पना करना आज कठिन है, परन्तु वेदों का आदर्श तो यही कहता है।