अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम की माप तौल का उत्तर

– शिवनारायण उपाध्याय

आचार्य दार्शनेय लोकेश द्वारा भेजा गया लेख ‘अथ सृष्टि उत्पत्ति व्यायास्याम की माप-तौल’ मुझे आज ही प्राप्त हुआ। लेख में आपने वितण्डा और छल का प्रयोग कर व्यर्थ उसका कलेवर बढ़ाकर पाठकों को भ्रमित करने का यत्न किया है।

सृष्टि उत्पत्ति अथवा वेदोत्पत्ति के विषय में स्वामी दयानन्द की मान्यता के विरोध में लिखा गया यह पहला लेख नहीं है। इस विषय पर सर्वप्रथम रघुनन्दन शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक सपत्ति’ में सृष्टि उत्पत्ति का समय 1972949116 वर्ष (वर्तमान की स्थिति तक) पूर्व माना, परन्तु जान बूझकर उसे समझाने का प्रयत्न नहीं किया। उसके बाद आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री ने जब वे सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा में पदाधिकारी बने, तब इसी विषय पर एक लेख लिख दिया और चूंकि वे सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा में थे, उनकी गणना को सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने स्वीकार कर लिया। सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि के साप्ताहिक समाचार-पत्र पर भी उन्हीं की मान्यता के अनुसार तिथि छपने लग गई, परन्तु परोपकारिणी सभा अजमेर ने इसे स्वीकार नहीं किया। उसके बाद पं. सुदर्शन देव और पण्डित राजवीर शास्त्री ने मिलकर जब ऋग्वेद भाष्य भास्कर प्रकाशित किया तो उसके पृष्ठ 27 पर वेदोत्पत्ति काल विचार पर एक तर्क पूर्ण लेख लिखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का समर्थन किया। फिर अगस्त 2012 में बरेली के वैद्य रामगोपाल शास्त्री ने परोपकारी में लेख स्वामी दयानन्द की मान्यता के विरोध में लिखा। अगले माह मुझे उसका विरोध करना पड़ा। फिर स्वामी ब्रह्मानन्द जी ने उनके पक्ष में एक लेख लिख दिया। मैंने फिर विरोध किया तो स्वामी ब्रह्मानन्द ने टंकारा समाचार पत्र में लेख प्रकाशित करा दिया। मैंने कुल छः लेख लिखे। मामला ठंडा हो गया, परन्तु जून 2015 में स्वामी ब्रह्मानन्द ने फिर एक लेख स्वामी जी के विरोध में लिख दिया। तब मैंने उसके उत्तर में ‘अथ सृष्टि उत्पत्ति व्यायास्याम्’ लिखकर परोपकारी अजमेर तथा वैदिक संसार इन्दौर को भेजा। यह वैदिक संसार में जनवरी 2016 तथा परोपकारी में फरवरी 2016 में छपा। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने भी एक लेख सृष्टि उत्पत्ति पर लिखा है और उसमें उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की एतद् विषय में मान्यता का समर्थन किया है।

आओ, अब हम ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के आधार पर ही इस विषय पर चिन्तन करें और आचार्य दार्शनेय लोकेश द्वारा उठाए गए बिन्दुओं पर भी विचार करें। स्वामी जी लेख का प्रारा यहाँ से करते हैं-

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।

छन्दांसिजज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।।

– यजु. 31.7

(तस्मान् यज्ञात्स.) सत् जिसका कभी नाश नहीं होता। (चित्) जो सदा ज्ञान स्वरूप है….. उसी परब्रह्म से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद और (छंदासि) अथर्व भी, ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं।

प्रश्न वेदों को उत्पन्न करने में ईश्वर को क्या प्रयोजन था?

उत्तरजो परमेश्वर अपनी विद्या का हम लोगों के लिए उपदेश न करे तो विद्या से जो परोपकार करना गुण है, सो उसका नहीं रहे।

फिर शतपथ के प्रमाण से कहते हैं, ‘अग्नेर्ऋग्वेदो वायो यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेद। अर्थात् सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया।’

वेदानामुत्पत्तौ कियन्ति वर्षाणि व्यतीतानि?

एको वृन्दःषण्णवतिः कोट्योऽष्टौ लक्षाणि द्विपञ्चाशत्

सहस्त्राणि नव शतानि षट् सप्ततिश्चैतावन्ति 1960852976 वर्षाणि व्यतीतानि। सप्त सप्ततितमोऽयं संवत्सरो वर्त्तत इति वेदितव्यम्।।

इसमें स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि वेद एवं जगत् की उत्पत्ति को 1960852976 वर्ष व्यतीत हो गए हैं और इस समय 77 वाँ वर्ष चल रहा है।

प्रश्न यह कैसे निश्चय हो कि इतने ही वर्ष वेद और जगत् की उत्पत्ति में बीत गए हैं?

उत्तरयह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें मन्वन्तर का वर्तमान है, इससे पूर्व छः मनवन्तर हो चुके हैं। 1. स्वायभुव 2. स्वरोचिष 3. औत्तिमि 4. तामस 5. रैवत 6. चाक्षुष ये छः तो बीत गए हैं और सातवाँ वैवस्वत वर्त्त रहा है। सावर्णि आदि सात मन्वन्तर आगे भोगेंगे। ये सब मिलकर 14 होते हैं और 71 चतुर्युगियों का नाम मन्वन्तर धरा गया है। उनकी गणना इस प्रकार है कि 1728000 वर्ष का सतयुग, 1296000 वर्ष का त्रेतायुग, 864000 वर्ष का द्वापर तथा 432000 वर्ष का कलियुग। स्पष्ट रूप से इनमें 4:3:2:1 का अनुपात है। फिर एक चतुर्युगी से 4320000 वर्ष बन गए। एक मन्वन्तर 71 चतुर्युगी का होने से 4320000×71=306720000 वर्ष हुआ। ऐसे छः मन्वन्तर 306720000×6=1840320000 वर्ष के हो गया। फिर 27 चतुर्युगियाँ और व्यतीत हो गईं, उनका साल 4320000×27=116640000 वर्ष, फिर अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के 1728000+1296000+864000+4976= 3892976 वर्ष और हो गए। इस तरह कुल काल 1840320000+116640000+3892976= 1960852976 वर्ष हुए। यह योग स्वामी जी ने विक्रम संवत 1933 में लिया था। साथ ही यह भी कहा कि वर्तमान में 76 वाँ समाप्त होकर 77 वाँ वर्ष चल रहा है।

वर्तमान में 2073 वर्ष चल रहा है, अर्थात् 2073-1933 =140 वर्ष आगे चल गए हैं, इसलिए वर्तमान में सृष्टि की आयु होगी 1960852977+140= 1960853117 वर्ष।

इस सपूर्ण विवरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन्धि वर्ष का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है।

स्वामी जी ने स्पष्ट लिखा है कि 14 मन्वन्तर का काल भोग काल होता है।

ते चैकस्मिन्ब्राह्म दिने 14 चतुर्दश भुक्त भोगा भवन्ति। एक सहस्त्रं 1000 चतुर्युगानि ब्राह्मदिनस्य परिमाणं भवति।।

अर्थात् 14 मन्वन्तर का काल ‘भुक्त भोग’ काल है और 10000 चतुर्युगी एक ब्रह्म दिन है। इतना ही समय प्रलय का होता है जो ब्रह्म रात्रि कही जाती है, अर्थात् भोग काल 14×71=994 चतुर्युगी ही है। स्वामी जी ने सृष्टि उत्पत्ति काल की गणना उस समय से की है, जब मनुष्य उत्पन्न हुआ। मनुष्य के उत्पन्न होने के साथ ही चार ऋषियों के द्वारा परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया, परन्तु सृष्टि उत्पत्ति प्रारभ होने से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति होने तक व्यतीत काल को उन्होंने गणना में नहीं लिया। यह समय 6 चतुर्युगी के बराबर माना गया है। यह धारणा आर्यों से अपने भाई पारसियों में गई और पारसियों से इसे यहूदी लोगों ने लिया। उन्होंने सृष्टि उत्पत्ति 6 दिन में मानी और यदि  एक दिन का मान एक चतुर्युगी को माने तो उनकी मान्यता भी वेदानुकूल होगी। सृष्टि उत्पत्ति एक क्षण में नहीं हो सकती है, क्योंकि वह वेद की मान्यता के विरोध में है। वेद में स्पष्ट कहा गया है-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदनेगोभिरद्भिः।

कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवतानां समितिर्बभूव।।

– ऋ. 1.95-8

भावार्थ-मनुष्यों को जानना चाहिए कि काल के लगे बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर नष्ट हो जाए-यह होता ही नहीं है।

(स्वामी दयानन्द सरस्वती का भाष्य)

फिर ऋग्वेद में यह भी कहा गया है कि सृष्टि उत्पन्न करने के लिए परमात्मा को गतिहीन परमाणुओं को गति देने के लिए लोहार की तरह आग में धोंकना पड़ा है-

ब्रह्मणस्पति रेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सदजायत।। – ऋ. 10.72.2

प्रलय में सृष्टि असत् (अव्यक्त) रूप में थी, उसे सत् में लाने के लिए पूर्व युग में परमात्मा को लुहार की भाँति धोंकना पड़ा है।

अब आचार्य जी द्वारा लगाए गए आक्षेपों के उत्तर इस प्रकार हैं। आप लिखते हैं- ‘विश्वास नहीं होता कि उनके जैसा विद्वान् व्यक्ति भी तर्कों के ऐसे तुक्के लगा सकता है, जिससे स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे युग पुरुष द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों की अवहेलना हो रही हो।’ उत्तर में मेरा कहना है कि मैं कोई विद्वान् नहीं हूँ, मैं तो स्वामी दयानन्द के ग्रन्थों और वेद भाष्यों का अध्येता हूँ। मेरा कोई मौलिक चिन्तन नहीं है। इसमें मेरा क्या दोष है कि मैं स्वामी दयानन्द द्वारा ऋाग्वेदादिभाष्याूमिका में वेदोत्तपत्ति काल को जैसा उन्होंने लिखा, वैसा ही प्रस्तुत कर देता हूँ। स्वामी दयानन्द के अनुसार यदि वेदोत्पत्ति काल आज 1960853117 वर्ष है तो मैं उसे सत्य मानता हूँ। स्वामी ब्रह्मानन्द जी और आचार्य दार्शनेय लोकेश उसे न मानकर 1972949117 माने तो वे मौलिक चिन्तक हैं?

आप यदि कहते हैं कि मैं जो कह रहा हूँ और मोहनकृति आर्ष पत्रकम् में लिख रहा हूँ वही सही है तो आप मानते रहें। सिद्धान्त एक में आप लिखते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के श्री मुख से सृष्टि के आदि में ईश्वर वेदों को उत्पन्न करके संसार में प्रकाश करता है। प्रलय में संसार में वेद नहीं रहते, परन्तु उसके ज्ञान के भीतर वे सदैव बने रहते हैं।

यहाँ सृष्टि के आदि का अर्थ क्या जब ईश्वर परमाणुओं को स्थूल रूप देने लगता है, तब से है अथवा मनुष्य के उत्पन्न होने से है। वास्तव में वेद का ज्ञान तो परमात्मा ने मनुष्य को दिया है और दिया तभी होगा, जब मनुष्य को उत्पन्न कर दिया, परन्तु मनुष्य को उत्पन्न करने से पूर्व उसने वायु, तेज, जल, पृथ्वी और वनस्पति को तो पैदा किया ही है, अतः हमें मनुष्य की उत्पत्ति से पूर्व काल का भी ध्यान रखना है।

सिद्धान्त 2-पूर्व में लिख दिया गया है कि सृष्टि की कुल आयु 1000 चतुर्युगी होती है और इसी को ब्रह्म का एक दिन कहते हैं, परन्तु भोग काल 14 मन्वन्तर अर्थात् 94 चतुर्युगी ही होता है।

सिद्धान्त 3- ज्योतिष छः वेदांगों में से एक है और इसे वेद की आँख कहा जाता है। इसका हम विरोध नहीं करते हैं।

सिद्धान्त 4-सूर्य सिद्धान्त ज्योतिष के प्रमाण ग्रन्थों में से एक है। आचार्य सुदर्शन देव जी तथा पं. राजवीर शास्त्री ऋग्वेद भाष्य भास्कर में लिखते हैं, मयासुर का सूर्य सिद्धान्त सन्धिकाल की मान्यता का आधार है। यह ग्रन्थ अनार्ष पौराणिक मान्यताओं से ओतप्रोत होने से महर्षि को मान्य नहीं है। मयासुर के सूर्य सिद्धान्त का खण्डन दयानन्द सन्देश के विशेषांक में हुआ है, जिसका उत्तर विपक्षी नहीं दे सके हैं। सूर्य सिद्धान्त के 1.24 श्लोक की संगति भी वे नहीं लगा सके हैं। इसकी मान्यता में किसी भी शास्त्र का प्रमाण नहीं मिलता है।

सिद्धान्त 5- यदि कोई व्यक्ति 1000 चतुर्युगी को तो मानता है, परन्तु 15 सन्धियों को नहीं मानता तो यह व्यवहार अर्ध जरतीय न्याय के अन्तर्गत स्वीकार्य नहीं है। आपका यह कथन व्यर्थ है, अगर शास्त्र की यह मान्यता होती तो प्रत्येक मन्वन्तर का काल वह 306720000+ 1728000 वर्ष = 308448000 वर्ष लिाता, जैसा कि कलयुग की आयु 1200 देव वर्ष लिखते हैं, जबकि इसमें 100 देव वर्ष सन्धिकाल तथा 100 वर्ष सन्ध्यांश काल जुड़ा हुआ है। यही स्थिति शेष तीन युगों की भी है, परन्तु ऐसा लिखा जाना इसलिए संभव नहीं बन पाया कि इससे तो केवल 14 संधि काल ही काम में आते, शेष उस काल का समायोजन अन्तिम मन्वन्तर के अन्त में किया गया है। यह सबा्रम मूलक है। मुय सिद्धान्त यह है कि सृष्टि का भोग काल 14 मन्वन्तर है तथा सृष्टि की सपूर्ण आयु 1000 चतुर्युगी है।

सिद्धान्त 6-सिद्धान्त को स्पष्ट नहीं लिख सके हैं। लिखना चाहिए था कि किसी भी वस्तु के भुक्त काल और शेष भोग्य काल का योग वस्तु की सपूर्ण आयु के बराबर होता है। यदि ऐसा न हो तो गणितीय त्रुटि अवश्य है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसी आधार पर लिखा है कि सृष्टि की उत्पत्ति हुए 1960852976 वर्ष हुए हैं और 2333227024 वर्ष सृष्टि के भोग करने शेष हैं। इन दोनों का योग 4294080000 वर्ष होता है, जो 14 मन्वन्तर के काल के बराबर है। सृष्टि की सपूर्ण आयु ज्ञात करने के लिए इसमें सृष्टि निर्माण में जो समय लगा, उसका योग करना होगा। तब सृष्टि की आयु 4320000000 वर्ष हो जाएगी। इसे इस तरह समझने का प्रयत्न करें कि हम मनुष्य की आयु की गणना सदैव उसके माता के गर्भ से बाहर आने के बाद करते हैं, परन्तु वास्तव में उसके बनने की क्रिया तो दस माह पूर्व गर्भाधान के अवसर पर ही बन गई थी। माँ के गर्भ में भी उसका जीवन चल रहा था, उसके निर्माण कार्य को हम उसकी आयु में नहीं जोड़ रहे हैं, इसी प्रकार सृष्टि की रचना तो सृष्टि के व्यक्त रूप में आने से पूर्व ही चल रही थी। उस पर आपका ध्यान नहीं है। सृष्टि पूर्ण होने के बाद 14 मन्वन्तर और भोगती है।

जब एक युग या एक मन्वन्तर की चर्चा करेंगे तो भोगा गया काल तथा भोगा जाने वाला काल मिलकर पूर्ण युग अथवा पूर्ण मन्वन्तर की गणना के अनुरूप होंगे ही, इसका कोई विरोध नहीं करता है। फिर आप महर्षि की बात करते हैं कि जो वर्तमान ब्रह्मदिन है, इसके 1960852976 वर्ष इस सृष्टि की तथा वेदों की उत्पत्ति में व्यतीत हुए हैं और 2333227024 वर्ष इस सृष्टि के भोग करने के बाकी रहे हैं। अनुशीलन में आप लिखते हैं कि यहाँ 1960852976 वर्ष भुक्त काल और भोग्य काल 2333227024 वर्षों का योग वर्तमान ब्रह्मदिन की कुल अवधि 4320000000 आ जाना सिद्धान्तः आवश्यक है। श्रीमान, आपका यह सोचना असत्य है। भोग काल और शेष भोग्य काल का योग सृष्टि के कुल भोग काल के तुल्य आना चाहिये। यहाँ योग 4294080000 वर्ष आ रहा है, जो 14 मन्वन्तर के काल के बराबर है। यह सृष्टि की पूर्ण आयु नहीं है। पूर्ण आयु जानने के लिए इसमें सृष्टि उत्पत्ति का काल जोड़ना होगा। सृष्टि का भोग काल तो 4294080000 वर्ष ही है। जैसे हम मनुष्य की आयु में उसके गर्भकाल के समय को नहीं जोड़ते हैं, वैसे ही भोगकाल (सृष्टि का) में उत्पत्तिकाल को जोड़ना आवश्यक नहीं है। छः चतुर्युगी का काल सृष्टि उत्पत्ति का समय है। फिर आप खुलकर सामने आ गए हैं कि भोग काल +शेष भोग्य काल का योग इतना (4320000000) वर्ष नहीं आता है। स्वाभाविक है कि यह एक लेखन त्रुटि है, अर्थात् स्वामी दयानन्द ने गलती की है। मेरा कहना है कि स्वामी दयानन्द ने कहीं गलती नहीं की है। 14 मन्वन्तर सृष्टि का भोग काल है और भोग काल तभी प्रारभ होता है, जब सृष्टि पूर्ण विकसित होकर इस योग्य हो जाय कि उसमें प्राणी सफलता से अपना जीवन यापन कर सकें। इस सृष्टि निर्माण काल को सृष्टि के भोग काल में जोड़ने से सृष्टि की कुल आयु 4320000000 वर्ष आ जाएगी।

आप अपनी गलत धारणा को सत्य सिद्ध करने के लिए स्वामी जी की उक्ति दे रहे हैं। मेरे मंतव्य कोई अद्वितीय व असाधारण  नहीं है और न मैं सर्वज्ञ हूँ। यदि युक्तिपूर्वक विचार-विमर्श के अनन्तर भविष्य में आपके सामने आए तो उसे ठीक कर लीजिएगा। यह उक्ति आपका साथ नहीं देती है। इसके द्वारा आप छल करके पाठक को ठगना चाहते हैं। महर्षि की विनम्रता की आड़ में अपना पाण्डित्य बघारना आपको शोभा नहीं देता। कहाँ ऋषि का वैदुष्य और कहाँ आपके चिन्तन का उथलापन।

14 मन्वन्तर के बाद बची 6 चतुर्युगियों को न तो हम काल की अवधि के रूप में जोड़ना चाहते हैं और न उसके दो भाग करके आगे और पीछे जोड़ने के तरीके ढूँढकर भरपाई कर रहे हैं। मेरे लेख में ऐसा कुछ नहीं किया गया है। आप ऋषि की त्रुटि भी निकाल रहे हैं और उनके समर्थक भी बन रहे हैं। जब ऋषि के लेख में त्रुटि है ही नहीं तो फिर त्रुटि सुधारने की बात व्यर्थ है।

मेरे इस लेख का मानना है कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे मिला। वास्तव में मनुष्य ने तो उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारभ की हैं। विरोध करते हुए आप लिखते हैं? कदापि नहीं। मानवोत्पत्ति और वेदोत्पत्ति का ऐसा कोई सबन्ध नहीं है। जब मनुष्य समाप्त हो जाएँगे तो क्या वेद भी समाप्त हो जाएगा। मेरा कहना है कि श्रीमान्, वेद तो ईश्वर का स्वाभाविक ज्ञान है जो न घटता है और न बढ़ता है। ईश्वर चाहे सृष्टि का निर्माण करे चाहे प्रलय , परन्तु अपने ज्ञान (वेद) का न वह विकास ही कर सकता है और न क्षरण ही कर सकता है। यह ईश्वर का अर्जित ज्ञान नहीं है। रही सृष्टि में वेद ज्ञान की बात तो वह मनुष्य से जुड़ी है। सृष्टि के प्रारभ में वह ऋषियों को दी जाती है और जब प्रलय हो जाता है, सृष्टि में कुछ रहता ही नहीं है तो वह ज्ञान ईश्वर के पास सुरक्षित रहता है।

मनुष्य ने वेद ज्ञान प्राप्त कर बड़े-बड़े अविष्कार किये हैं। सूर्य तक की दूरी नापना तो एक सामान्य बात है, आज तो लाखों प्रकाश वर्ष दूरी पर स्थित निहारिका मण्डलों तक क ी जानकारी वैज्ञानिक के पास है। दूरदर्शक यन्त्र के द्वारा तीन निहारिका मण्डलों को तो मेरे गाँव के सामान्य लोगों ने भी देख लिया है। क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि आज आप कहीं भी घूमते हुए अपने मोबाइल से विश्व के किसी भी कोने में रहने वाले व्यक्ति से बात कर सकते हैं? इसके लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। वैदिक ऋषियों ने तो यहाँ तक जान लिया था कि सृष्टि में कुछ ऐसी निहारिका मंडल है, वे जब से बनी है उनका प्रकाश पृथ्वी की ओर आ रहा है, परन्तु अब तक पृथ्वी पर नहीं पहुँच पाया है। वास्तव में सृष्टि की कोई सीमा नहीं है। अन्त में मैं कहना चाहता हूँ कि आप सृष्टि के भोग काल और सृष्टि की सपूर्ण आयु को एक मानना छोड़ दें। विज्ञान भी इसी धारणा का समर्थन करता है। इतिशम्।

– कोटा, राजस्थान

 

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