शूद्र की पैरों से उत्पत्ति-विषयक आपत्ति का समाधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था के आलोचक और मनु-विरोधी लोग यह आपत्ति करते हैं कि शूद्रों की उत्पत्ति पैरों से क्यों कही गयी? क्योंकि यह बहुत ही अपमानजनक है, और घृणास्पद है।

इस आपत्ति को करने वाले लोग भावुकतावश अपनी अज्ञानता का ही परिचय दे रहे हैं। ऐसा करके वे चार भूलें कर रहे हैं-

  1. वर्णव्यवस्था में शरीरांगों से जो आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी गयी है, वह व्यक्तियों की नहीं अपितु वर्णों की है। वर्ण एक बार निर्मित हुआ है, अतः उसकी उत्पत्ति कहना तर्कसंगत है। व्यक्ति तो रोज उत्पन्न होते हैं और करोड़ों की संया में हैं, वे कैसे पैदा होंगे? अतः वह शूद्रवर्ण की प्रतीकात्मक उत्पत्ति है, शूद्र व्यक्ति की नहीं।
  2. वर्तमान में शूद्र कहे जाने वाले लोग स्वयं को आदिकाल से और जन्म से शूद्र मानकर यह आक्रोश प्रकट कर रहे हैं। मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्र तो वह व्यक्ति होता है जो विधिवत् शिक्षित नहीं होता। जो शूद्र रह गया वह पुनः योग्यता अर्जित करके ब्राह्मण आदि बन सकता है। अतः यह उत्पत्ति किसी व्यक्ति या जातिविशेष से संबद्ध नहीं है। दलित लोग भ्रान्तिवश इस नाम को स्वयं पर थोप कर व्यर्थ दुःखी होते हैं। मनु ने उनको कहीं शूद्र नहीं कहा।
  3. आज की भाषा और व्यवहार में भी पैर निन्दित नहीं है। हम चरणस्पर्श करके स्वयं को धन्य मानते हैं। किसी के चरणों में शरण पाकर हम स्वयं को कृतकृत्य समझते हैं। किसी की हम चरणवन्दना करते हैं। किसी के चरणों में सिर नवाते हैं। किसी के चरण दबाते हैं, धोते हैं, चरणामृत लेते हैं। भारतीय परपरा में चरण कभी घृणित नहीं रहा। आज के वातावरण की कुछ रूढ़ियों के आधार पर हमने कुछ धारणाएं बना ली हैं और उनको प्राचीनता पर असंगत रूप से थोप रहे हैं। एक ही शरीर के अंगों में यह भेद कैसे हो सकता है? एक ओर हम स्वयं यह तर्क देते हैं कि एक पुरुष से उत्पन्न चार वर्णों में भेदभाव नहीं हो सकता, तो दूसरी ओर अपनी आपत्ति को सही सिद्ध करने के लिए हम स्वयं मुख, पैर आदि में भेदभाव कर रहे हैं। यदि इस दृष्टि से आरोप लगाते हैं, तो वैश्यों की उत्पत्ति जंघाओं से कही है, क्या जंघाएं उत्तम अंग हैं? फिर तो इस पर वे लोग भी आपत्ति करेंगे। वस्तुतः ऐसा दृष्टिकोण वैदिक वर्णव्यवस्था में कभी नहीं रहा। यह आधुनिक वातावरण की सोच का प्रभाव है।
  4. वैदिक वर्णव्यवस्था में वर्णों की उत्पत्ति कर्मों-व्यवसायों की तुलना के आधार पर है। ऊंच-नीच की भावना उसमें नहीं है। इसकी पुष्टि करने वाले प्रमाण वैदिक साहित्य में मिलते हैं। आपत्तिकर्त्ताओं ने उन संदर्भों का अध्ययन तटस्थ भाव से नहीं किया है। इस कारण उनकी सोच संकीर्ण बनी हुई है।

अब मैं पाठकों के समक्ष उन प्रमाणों को प्रस्तुत करता हूं जो मेरी उपर्युक्त स्थापना को सही सिद्ध करेंगे-

(क) अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ तैत्तिरीय संहिता में वर्णों के साथ अन्य पदार्थों की भी आलंकारिक उत्पत्ति वर्णित की है। वहां पैरों से निनलिखित पदार्थों की उत्पत्ति एक साथ बतायी है-

    ‘‘एकविंश स्तोम, अनुष्टुप् छन्द, वैराज साम, शूद्र, पशुओं में अश्व।’’(7.1.1.4)

अब देखिए, वैदिक ऋषियों ने शूद्र के साथ ऋग्वेद और सामवेद आदि धर्मग्रन्थों के मन्त्रों की उत्पत्ति भी पैरों से दर्शायी है, क्या यह हीनताबोधक सकती है? अश्व क्या हीन पशु है? क्योंकि वह तेज धावक है, अतः पैरों से तेज चलने की विशेषता के कारण उसकी उत्पत्ति पैर से कही है। इधर-उधर आना-जाना, सेवा-टहल का कार्य पैरों पर आधारित होने के कारण शूद्र की तुलना भी चलने वाले अंग ‘पैर’ से दर्शायी है। इसमें कहीं भी हीनता या घृणा की भावना नहीं है। ध्यान दीजिये, शूद्र यहां वेदमन्त्रों के समकक्ष है।

(ख) प्राचीन ग्रन्थों में इस बात का स्वयं स्पष्टीकरण दिया है कि शूद्र की उत्पत्ति पैरों से क्यों बतलायी जा रही है। तैत्तिरीय संहिता के गत उद्धरण में अश्व और शूद्र की उत्पत्ति पैरों से कही है। क्यों? संहिताकार स्वयं उसका उत्तर देता है-

    ‘‘तस्मात् पादौ उपजीवतः। पत्तो हि असृज्येताम्।’’ (7.1.1.4)

क्योंकि दोनों की जीविका पैरों पर निर्भर है। इस कारण इनकी उत्पत्ति पैरों से कही गयी है। मेरे विचार से इससे अच्छा स्पष्टीकरण अन्य नहीं हो सकता। इसमें व्यवसाय-साय के अतिरिक्त कोई अन्य भावना नहीं है। फिर भी अगर कोई इस विषय पर कुतर्क करता है तो उसका दुराग्रह मात्र ही कहा जायेगा।

(ग) अब पैरों से देवताओं की उत्पत्ति भी देखिए। ऋग्वेद के एक मन्त्र में आलंकारिक उत्पत्ति का विवरण देते हुए कहा है-

         ‘‘पद्यां भूमिः दिशः श्रोत्रात्’’       (10.90.14)

    अर्थ-पैरों से भूमि और कानों से दिशाएं उत्पन्न हुई।’ यहां गुणों की समानता से आलंकारिक वर्णन है। क्या, इसमें कहीं हीनता दिखायी पड़ती है? एक और उदाहरण लीजिए-

    ‘‘सः शौद्रं वर्णमसृजत्, पूषणमियं वै पूषा इयं हीदं

    सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च।’’  (शतपथ ब्रा0 14.4.2.25)

    अर्थात्-उस ब्रह्म-पुरुष ने शूद्रसबन्धी वर्ण को उत्पन्न किया। देवों में पूषा देव को शूद्र के रूप में उत्पन्न किया, क्योंकि वह सबको पालन-पोषण करके पुष्ट करता है।

क्या यहां कहीं हीनभावना या अपमानजनक भावना दिखाई पड़ती है? शूद्र यहां एक वैदिक देव के समकक्ष है। क्योंकि यह उत्पत्ति गुणाधारित तुलना से है, अतः उस देव को ‘शूद्रवर्ण’ बताया है। गुणों में समानता यह है कि पृथ्वी का पोषक रूप=पूषा देव सब पदार्थों को पुष्ट करता है और शूद्र भी अपने श्रम-सेवा से सबको पुष्ट करता है, अतः गुण-कर्म-साय से दोनों शूद्र वर्णस्थ हैं।

(ङ) वर्णों की उत्पत्ति केवल मुख, पैर आदि से ही नहीं बतलायी गयी है, अपितु अन्य आलंकारिक विधियों से भी है, जिसका भाव यह है कि शास्त्रकारों को जहां भी कहीं कोई गुणसाय दिखाई पड़ा, उसी दृष्टि से उसका वर्णन कर दिया। अतः पाठकों को एक उत्पत्ति-प्रकार पर ही आग्रहबद्ध नहीं होना चाहिए। द्रष्टव्य हैं उत्पत्ति के कुछ अन्य प्रकार। तैत्तिरीय ब्राह्मण में तीन वेदों से तीन वर्णों की उत्पत्ति दर्शायी है-

सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्, ऋग्यो जातं वैश्यवर्णमाहुः।

यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुः योनिम्, सामवेदोब्राह्मणानां प्रसूतिः॥

(3.12.9.2)

    अर्थात्-सब मनुष्य ब्रह्म की ही सन्तान हैं। ऋग्वेद से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति हुई। यजुर्वेद से क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति हुई। सामवेद से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई है।

एक अन्य उत्पत्ति का आलंकारिक वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। वहां ‘भूः’ से ब्राह्मणवर्ण की, ‘भुवः’ से क्षत्रियवर्ण की और ‘स्वः’ से वैश्यवर्ण की उत्पत्ति कही है। (2.1.4.11)

इन प्रमाणों को दर्शाने का अभिप्राय यही है कि केवल एक उत्पत्ति प्रकार को लेकर कोई आग्रह नहीं बनाना चाहिए। ये केवल आलंकारिक वर्णन हैं। उसी संदर्भ में उनको देखना चाहिए।

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