मनु शूद्रों की दासता के पक्षधर या पोषक नहीं हैं। उन्होंने शुद्रों, सेवकों, स्त्री-कर्मचारियों आदि का वेतन, पद और स्थान के अनुरूप देने का आदेश दिया है-
(क) राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।
प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानकर्मानुरूपतः॥ (7.125)
अर्थात्-‘राजा काम पर लगाये जाने वाले श्रमिकों, सेवकों, स्त्रियों का प्रतिदिन का वेतन, काम, पद और स्थान के अनुरूप निर्धारित कर दे।’ इसका स्पष्ट भाव यह है कि मनु के मतानुसार शूद्रों और स्त्रियों से दासता कराना वर्जित है।
(ख) निन श्लोक में विधान है कि रोग आदि होने पर यदि भृत्य दीर्घ अवकाश लेता है तो उसे वेतन मिलना चाहिए। इस विधान का आधार मानवीय है। दास के लिए कभी ऐसा विधान नहीं होता-
‘‘स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम्।’’ (8.216)
अर्थ-यदि अवकाश से लौटने के बाद भृत्य अपने पूर्वनिर्धारित कार्य को पूर्ण कर देता है तो वह लबे अवकाश का वेतन पाने का अधिकारी है अर्थात् भृत्य का दीर्घ अवकाश होने पर भी वेतन दिया जाना चाहिए।
(ग) मनु ने 1.91 श्लोक में शूद्र के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है कि तीन द्विज वर्णों अथवा चारों वर्णों की सेवा करना (नौकरी करना) ही शूद्र का कर्त्तव्य है। यहां शूद्र को स्वतन्त्रता दी है कि वह किसी वर्ण के किसी भी व्यक्ति के पास नौकरी करे। यह शूद्र की इच्छा पर निर्भर है। स्वतन्त्रतापूर्वक सेवाकार्य करना दासता का लक्षण नहीं है। मनु की यह मौलिक व्यवस्था सिद्ध करती है कि मनु के मतानुसार शूद्र दास नहीं हो सकता।
(घ) मनुस्मृति 2.6,7 [2.31, 32] में चारों वर्णों के नामकरण का विधान है। वहां शूद्र का नाम ‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ कहकर ऐसा रखने का विधान किया है जो सेवाभाव का द्योतक हो। व्यायाकारों ने इसके उदाहरण दिये हैं-देवदास, धर्मदास, सुदास आदि। इससे कितनी सरलता से यह स्पष्ट हो रहा है कि वर्णव्यवस्था की विधि के अन्तर्गत ‘दास’ का अर्थ ‘सेवक’ है, गुलाम नहीं।
(ङ) मनु की वर्णव्यवस्था आर्यों की सामाजिक व्यवस्था थी। मुयतः आर्य परिवारों से ही बालक या व्यक्ति गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते थे। यह अस्वाभाविक है और सामान्यतः संभव नहीं है कि अपने ही परिवारों के बालकों या व्यक्तियों को कोई दास बनाये और उनके परिवार और उनका समाज उनको स्वीकार कर ले। इससे ज्ञात होता है कि शूद्र दास अर्थात् गुलाम नहीं होते थे, केवल सेवक (नौकर या श्रमिक) होते थे, जिन्हें उस कार्य का उचित वेतन या भरण-पोषण मिलता था।