शाश्वत-स्वर
– आचार्य धर्मवीर
ओ3म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।
ओ3म् कृतोः स्मर कृतं स्मर क्रतोः स्मर कृतं स्मर।।
मन्त्र परिचित है, परन्तु स्पष्ट नहीं है, कुछ बातें तो बहुत ही स्पष्ट हैं, कुछ बहुत अस्पष्ट। इसलिये कि मन्त्रों का अर्थ करते समय व्याखयाकारों की व्याखयायें बहुत भिन्न हैं, कुछ बातें एक-सी है। इसके विपरीत कुछ शबदों पर कहीं भी एक मत दिखाई नहीं पड़ता। अर्थ की भिन्नता ही अर्थ की अस्पष्टता को इंगित कर रही है। अर्थ करते समय लेखकों को अपने-अपने सिद्धान्त व मान्यता के आधार पर अर्थ करने का पर्याप्त अवसर मिल गया है। यहाँ विवादास्पद बिन्दुओं की चर्चा करना उद्देश्य नहीं है। इस मन्त्र में कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं और बहुत ही महत्त्वपूर्ण उनका विचार उपयोगी है।
मन्त्र में प्रथम पंक्ति बड़ी निर्णायक है, निर्णय दो बातों का किया गया है। बात कुछ इस प्रकार कही गई है, अथ इदं अमृतम्, इदं भस्मान्तम् यह तो अमृत है, अमर है, इसके नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके विपरीत दूसरी वस्तु अमर नहीं हो सकती। ये दोनों कौन-सी वस्तुयें हैं, यह तो भस्मान्तं से स्पष्ट है, जो भस्म हो सकता है, वह अमर भी नहीं हो सकता, वह भौतिक है, स्थूल है। जिसे नष्ट नहीं होना, वह भौतिक नहीं हो सकता, स्थूल नहीं हो सकता। तभी तो बचा रह सकता है। यह शरीर तो भस्म हो सकता है, हो जाता है, होना ही चाहिए। नाश के बहुत सारे प्रकार हैं- गल सकता है, सूख सकता है, प्राणियों द्वारा जल-थल में भक्ष्य बन सकता है, परन्तु अच्छा प्रकार तो भस्मान्तम् है और कोई भी प्रकार ऐसा नहीं जो इस कार्य को जल्दी समपन्न कर सके। गलने, सड़ने, सूखने, प्राणियों द्वारा खाये जाने में न तो पूरा समाप्त हो पाता है, न कम समय में हो पाता है। अतः वैज्ञानिक प्रकार अर्थात् उचित प्रकार, बुद्धिसंगत प्रकार ‘भस्मान्तं’ है, इसलिये शरीर के साथ इस विशेषण को लगाया गाया है।
चेतन का शरीर जड़ संसार की उत्कृष्ट रचना है, उसमें भी मनुष्य-शरीर अधिक उत्कृष्ट है, सर्वोत्कृष्ट है, सर्वश्रेष्ठ है। जब यह शरीर ही भस्मान्त है, तो संसार की सारी जड़ वस्तुओं का यही होना है, यही होता है। इसके अतिरिक्त कुछ हो भी नहीं सकता। फिर इसके लिये क्या सोचें, क्यों सोचें और सोचेंगे तो भी होगा क्या? संसार की सारी उलझन यहीं तो है। इस संसार में जड़ वस्तुओं के समुदाय में शरीर को, अपने शरीर को हम जड़ नहीं समझ पाते, उसे ‘हम’ समझ लेते हैं, मैं समझ लेते हैं और इसकी रक्षा में लगे रहते हैं, इसे अलंकृत करते हैं, परन्तु वेद ने इस सन्देह को एक झटके से दूर कर दिया है, एक विभाजक रेखा से इसका क्षेत्र दर्शा दिया है। केवल जड़ है, यह शरीर सदा रहने वाला नहीं है, इतने मात्र से समस्या का समाधान संभव नहीं है, नहीं तो सामान्य मनुष्य जो जड़ को चेतन समझ भ्रम में चल रहा था, उसे जड़ की उपासना से तो छुड़ा दिया, परन्तु चेतन का विश्वास नहीं करा सके, तो वह शून्य में भटकता रहेगा। अतः भस्मान्त शरीर तो चेतन नहीं है, फिर कोई सत्कर्म क्यों करे?
इसके लिये वास्तविकता से वेद ने इसे भी पहले अवगत कराया है और बतलाया है-‘इदं अमृतम्’यह अमृत है, कभी मर नहीं सकता, अमर है अपरिवर्तनशील है। अपरिवर्तनशील है, तभी तो अमर है, मरना तो मात्र परिवर्तित होना है, परिवर्तन की अनुकूलता का न होना ही दुःख का कारण है। परिवर्तन की अनुकूल अनुभूति सुख है, इसलिये हम जन्म को सुख कहते हैं, इसके विपरीत परिवर्तन की प्रतिकूल अनुभूति मृत्यु है, दुःख है। इसी कारण संसार में आना सुख है, संसार से जाना दुःख है। इस आने-जाने की अनुभूति से जुड़ा मनुष्य सुख-दुःख की परिस्थिति में स्वयं को सुखी व दुःखी समझता है, जबकि आने-जाने का समबन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं, इसलिये वेद ने स्पष्ट रूप से समझा दिया-इदं अमृतम्, इदं भस्मान्तम्। अब जो भस्मान्त नहीं, उसी का विचार करना है, उसका नहीं जो साथ जाने वाला नहीं है।
यह विचार कैसे संभव है, इसका उपाय मन्त्र के उत्तरार्ध में बतलाया है ‘‘ओ3म् क्रतो स्मर कृतं स्मर’’यदि स्मरण करना आता है, तो पाप करना संभव नहीं है। संसार का सारा अपराध अपने लिये, अपने शरीर के सुख के लिये व्यक्ति करता है। वह स्वयं को सुखी अनुभव करना चाहता है और इस सुख का गणित है भी बड़ा विचित्र। व्यक्ति हर दिन परिश्रम करता है, सुख ढूढंता है, उसे लगता है सुख भोजन में है, सुस्वाद भोजन में, और वह भोजन करता रहता है। लगता है कि वह सुख पा रहा है, परन्तु उस सुखद क्षण को अनुकूल किया जाए तो लगेगा कि उसे बहुत मूल्य चुकाना पड़ा है। इसका लाभ तो कुछ क्षणों का ही था-बहुत थोड़े से क्षणों का। फिर वह कुछ देखने का, सुनने, सूंघने का, और स्पर्श का सुख पाना चाहता है। स्पर्श का सुख नहीं-स्पर्श में सुख को खोजता है। यदि स्पर्श ही सुख होता तो जो भी स्पर्श करता, उसी को सुख की अनुभूति होती, परन्तु स्पर्श सदा तो सुखकर नहीं लगता, स्पर्श मात्र भी तो सुखकर नहीं लगता। सुख वस्तु में नहीं, स्पर्श में नहीं, सूंघने में नहीं, खाने में नहीं, सुनने में और देखने में भी नहीं, फिर सुख की खोज ही तो करनी है। परन्तु पहली गलती सुख वस्तु में मानकर बैठ जाने में हो गई है। दूसरी ‘गलती’ होने काय है। यह सच है सुख वस्तु में नहीं, शरीर से उपभोग में नहीं, फिर क्या शरीर निरर्थक है? निरर्थक तो इस दुनिया में कुछ भी नहीं, फिर शरीर को निरर्थक कैसे कहा जा सकता है। वास्तव में शरीर के बिना आत्मा कुछ भी करने का सामर्थ्य नहीं रखता, शरीर के बिना भुक्ति भी नहीं और मुक्ति भी नहीं।
शरीर परमात्मा से आत्मा के साक्षात्कार का उत्कृष्ट साधन है। इतना महत्त्वपूर्ण साधन कि जिसका स्थान दूसरा कोई साधन नहीं ले सकता। शरीर ऐसा साधन है कि आत्मा के साथ संयोग होते ही आत्मा का चैतन्य शरीर में साक्षात् होने लगता है। दूसरी जड़ वस्तुओं जैसी जड़ता इस शरीर में नहीं, नहीं तो आत्मा शरीर के स्थान पर पत्थर में प्रवेश कर उससे योग-साधना कर लेता, परन्तु ऐसा नहीं हो सकता। अपने स्वयं के साक्षात्कार के लिये भी उसे शरीर की आवश्यकता है। बुद्धि जड़ वस्तुओं में सबसे सूक्ष्म है, इतनी सूक्ष्म कि जिसमें चैतन्य प्रतिबिमबित हो सकता है और बुद्धि के साथ सारा शरीर चेतनवत् प्रतीत होता है। फिर आत्मा को शरीर से ही पहचानते हैं। देवदत्त अच्छा है, बुरा है, साधु है इत्यादि गुण व विशेषताओं का प्रकार शरीर के माध्यम से होता है। देवदत्त के मरने के बाद देवदत्त मर गया कहते हैं, क्योंकि अब आत्मा पहचान से बाहर चली गयी, पकड़ से बाहर चली गयी, फिर किसका देवदत्त, कहाँ का देवदत्त। तो आत्मा का कार्य शरीर के बिना नहीं, परन्तु शरीर ही तो कार्य नहीं, साध्य नहीं, बस यही स्मरण करना है। वेद यही स्मरण करने के लिये कह रहा है।
इस संसार में दो बातें स्मरण की जा सकें, करायी जा सकें, तो संसार में आने का उद्देश्य ही पूरा हो जाता है। स्मरण रखना है कि आत्मा अमृत है। दूसरी स्मरण रखने की बात है कि शरीर भस्म बन जाने वाली राख है, मुठ्ठी भर राख, जिसके कण हवा में तैरेंगे तो पता भी न लगेगा कि यह कोई शरीर था-बड़ा विशाल, बड़ा सुन्दर, बड़ा महत्त्वपूर्ण। यह अभिमान रह ही नहीं सकेगा। यदि ये बातें स्मरण हो जायें, यह पहचान हो जाये कि क्या अमर है और क्या नश्वर है। इस स्मरण में अमरता का स्मरण करना है। अमर तो आत्मा है और अमर परमात्मा है, बस दो बातें स्मरण रखनी हैं और दो के लिये ही रखनी हैं-एक स्मरण करना है ओ3म् को, फिर स्मरण करना है कर्म को। ओ3म् का स्मरण आवश्यक है, क्योंकि संसार का वह स्रष्टा है, साधनों को उसने दिया है, जीवात्मा के लिये बनाया है। यही उपनिषद् के प्रारमभ में समझाने की चेष्टा है, प्रतिज्ञा है, उद्देश्य है।
यदि यह समझ लिया कि इस संसार में हमारा तो कुछ नहीं है तो फिर स्वामित्व का झगड़ा ही न रहा-संसार में झगड़े का दूसरा तो कोई कारण ही नहीं। स्वयं को उठाने के लिये अपने कर्म की जाँच की आवश्यकता है, क्योंकि व्यक्ति बिना किये नहीं रह सकता, वह बना ही करने के लिये है। कर्म के बिना जीवन ही नहीं, इसलिये कर्म पर विचार करना आवश्यक है, यदि विचार नहीं किया तो कर्म अकर्म बन सकता है। कर्म तो होना है, विचार कर रकेंगे तो भी होगा बिना विचार भी होगा, परन्तु बिना विचारे किया गया कर्म मनुष्य का कर्म नहीं होगा, क्योंकि वह तो मत्वा कर्माणि सीव्यति की कसौटी पर कसा नहीं गया। मनन करके कर्म करने से ही इस भस्मान्त शरीर की उपयोगिता और अनुपयोगिता समझ में आ सकती है, ध्यान किया जा सकता है। प्रातः नये संकल्प के साथ, सावधानी के साथ तथ्य को स्मरण करते हुये कर्म करने का विचार किया जाता है। दिन भर कार्य होता रहता है, संसार में रहकर संसार के कार्य किये जाते हैं। इस शरीर की समपत्ति को, निधि को जो जड़ समूह में बहुत मूल्यवान् है, इसका संचालन, इसकी सुरक्षा तो संसार की सामग्री से ही होगी। उस व्यस्तता में हो सकता है कि कोई क्षण ऐसा भी आ जाय जब स्मृति भटक जाय, बुद्धि विचलित हो जाय। अतः फिर सायं सन्ध्या का समय आ जाता है, फिर स्मरण करना पड़ता है। तभी वेद कहता है- ‘कृतं स्मर’ यदि किये को स्मरण नहीं किया तो प्रगति का, अधोगति का मूल्यांकन कहाँ किया? सायं इस मूल्यांकन के बिना जीवन का व्यवसाय अधूरा रहेगा, जीवन कर्म निरर्थक हो जायगा। अतः वेद कहता है कि हमें इस बात को निश्चित रूप से समझना है। इदं यह आत्मा तो अमर है इदं यह शरीर भस्मान्त है, परन्तु इस तथ्य को समझने का कि उसे पाने का, लक्ष्य तक पहुँचने का साधन है-स्मरण। स्मरण करेंगे परमेश्वर का, स्मरण करेंगे कर्म का, किये का, तभी तो सुख पा सकेंगे। इसी बात को उपनिषत्कार कहता है-
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति।
नो चेदिहावेदीन्महती विनष्टि।।