शाश्वत-स्वर
– धर्मवीर
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।।
– यजु-5-36
बड़ा सुपरिचित मन्त्र है। मन्त्र कुछ इस प्रकार का है कि जहाँ पर सारे प्रयत्नों की समाप्ति दृष्टि-गोचर होती है, उपासक अपनी समस्त सामर्थ्य प्रभु को समर्पित कर चुका है, स्वयं को उसकी शरण में डाल चुका है, उसकी इच्छानुसार चलने के लिये अपना मानस बना चुका है। अतः प्रभु से कह रहा है कि अब आप ही ले चलो-मेरे चलने से पहुँचना समभव नहीं है, बिल्कुल नहीं है।
मन्त्र में ईश्वर को अग्नि-रूप में देखा गया है। अग्नि क्रिया का सर्वाधार है, अग्नि के अभाव में क्रिया समभव ही नहीं है, फिर संसार की गति बिना अग्नि के कैसे समभव है, तो वह स्वयं अग्नि है, अग्नि-रूप है, प्रकाश, ज्ञान, क्रिया का भण्डार है।
वह अग्नि ही है, अग्नि उसका ही नाम है। उसको अग्नि के रूप में ही प्रत्यक्ष किया है। भक्त जानता है-इस अग्नि के सिवाय चेतना और क्रिया का अनन्त भण्डार कहीं और नहीं है। संसार का सारा प्रकाश उसी अग्नि से प्रकाशित है। आँख उसी के सामर्थ्य से देख पाती है, सूर्य उसी के प्रकाश से प्रकाशित है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी से गतिमान् है।
अग्नि स्थूल को सूक्ष्म की ओर ले जाता है। सूक्ष्म बना देता है, अदृश्य कर देता है, परन्तु प्रभाव बढ़ जाता है। स्थूल का प्रभाव कम है, परन्तु सूक्ष्म होकर क्षमता बढ़ती है। अग्नि ऊर्ध्वगामी है, कहीं भी-कभी भी उसका स्वरूप दृष्टि में आया, तो वह ऊपर की ओर ही जाने वाला होगा। सूक्ष्म होगा तो ही ऊपर की ओर उठ सकेगा। स्थूल की तो अधोगति अवश्यभावी है, अतः अग्नि सूक्ष्म है, ऊर्ध्वगति वाला है, व्यापक है। अपने साथ-साथ दूसरों को भी विस्तृत करने की, व्यापक करने की क्षमता रखता है-वह ज्ञान का प्रकाश गति का कारण है। समिधा को प्रज्वलित कर अपने साथ प्रकाशित करता है, समिधा के साथ जलता है, उसे जलाता है। प्रकाशित होता है समाप्त हो जाता है, समाप्त कर देता है, परन्तु वास्तव में समाप्त नहीं होता न करता है। वह तो सूक्ष्म-व्यापक होकर अदृश्य होता है, स्थूल दृष्टि से ओझल हो जाता है। भक्त समिधा है, तभी तो परमेश्वर को अग्नि के रूप में देख पाता है। गुरु के पास शिष्य समित्पाणि होकर जाता है, बिना समिधा बने कुछ नहीं पाया जा सकता है। समिधा बनना स्वयं को जलने के लिये, अग्नि में ढलने के लिये तैयार करना है, उसके लिये अपने को समर्पित कर देना है, कहीं कमी रही तो बात बनेगी नहीं। समिधा गीली रही तो जलेगी नहीं। जल्दी नहीं जलेगी, बहुत धुआँ होगा, प्रकाश नहीं होगा। अतः समिधा की, सूखी हुई समिधा की आवश्यकता है, तभी समिधा बना भक्त परमेश्वर को अग्ने कहता है।
अग्नि को प्रार्थना करता है-सुपथा नय! आश्चर्य है-चलने के लिये पैर दिये हैं, विवेक के लिये, पथ की पहचान के लिये बुद्धि दी है, परन्तु भक्त जानता है कि इन पैरों से वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता है, भटका जा सकता है। संसार में भटकता रहता है, भटकता रहेगा, जब तक वह यह नहीं समझ लेगा कि इन पैरों से नहीं चला जा सकता, वहाँ तक नहीं पहुँचा जा सकता। तब उपासक कहता है-हे अग्ने! नय-ले चल, ले जा। आज तक मैं जो भी चला, जो चलने का दमभ किया, वह तो व्यर्थ ही है-न मैं चला, न मैं चल सकता हूँ। आप ही ले चलो, मैं आपकी शरण में हूँ। आप जहाँ ले जायेंगे, वास्तव में वही सुपथ है। जिसे मैं सुपथ समझ रहा था, वह तो पथ ही नहीं है, अन्धकूप है। मैं उसमें चलने के भ्रम में पड़ा रहा- मैं तो अब समझा हूँ कि सुपथ तो तेरे बिना होता ही नहीं, इसलिये अग्ने! मुझे सुपथ पर ले चल।
जब मैं जानता था कि मैं जानता हूँ, तब मेरा अहंकार मुझे कुछ जानने नहीं देता था। मैं जानने के स्थान पर जानने के दमभ में जीता रहा हूँ। जब मैंने तुझे, ज्ञान के सागर को जाना है तो मैंने जाना है कि मैं कुछ भी नहीं जान पाया हूँ, मैं कुछ भी जानने में समर्थ नहीं। मैं एक तुच्छ कण से स्वयं को जानने वाला समझता रहा हु। हे अग्ने! आप ज्ञानमय हो- प्रकाशमय हो, आप ही मुझे ले चलो, अपने मार्ग से ले चलो-मैं आपके बिना नहीं चल पाऊँ गा।
मैंने सोचा था मेरा सामर्थ्य बहुत है, मैं सारे संसार का ऐश्वर्य एकत्रित कर लूँगा, सारा सुख मेरे पास होगा। मैंने जीवन भर प्रयत्न करके बहुत इकट्ठा किया, बड़े-बड़े महल खड़े किये, बहुत सारी भूमि का अधिपति बना और बहुत सपत्ति भी एकत्रित की। सारा संसार मेरी प्रशंसा करता था, परन्तु आज मैं देखता हूँ कि मैंने सारी आयु और सारा सामर्थ्य पत्थरों के ढोने में लगा दिया और एक मजदूर जितना भी नहीं पा सका-जो पत्थर तो ढोता है, परन्तु बदले में कुछ पाकर सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु मैं देखता हूँ जिसको मैं ऐश्वर्य समझता था, वह धन है ही नहीं। जिसको मैं सुख समझता रहा, वह तो दुःख का ही मूल है। भला मैं उससे सुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ? इसलिये मेरा चला पथ सुपथ नहीं था, कभी भी नहीं हो सकता। सुपथ तो वही है जो रयि को, वास्तविक धन को, सत्यसुख को प्राप्त करा सके, वहाँ तक पहुँचा सके। इसलिये आप ही सुख को जानते हो। हे देव! सारे कर्मों को, सारे ज्ञान को आप ही जानते हो, अतः आप ही सुमार्ग पर लेकर चलो, दूसरा कोई ऐसा करने में समर्थ नहीं होगा।
अब तो मेरा यह सामर्थ्य भी नहीं कि मैं अपनें को पाप से अलग कर सकूँ। मेरे संस्कार इस प्रकार के हो गये हैं कि जन्म-जन्मान्तर की छाया मेरे चित्त पर सञ्चित हैं। मैं बहुत प्रयत्न करता हूँ, परन्तु संस्कार उसी ओर ले जाता है, जहाँ से दूर होना चाहता हूँ। क्योंकि पाप का मार्ग सीधा नहीं होता, वह टेढ़ा-मेढ़ा होता है, उसमें आँख-मिचौनी हैं, हर मोड़ पर आगे कुछ पाने की आशा है, और प्रलोभन बढ़ता ही जाता है। मेरा सारा प्रयत्न पाप से छूटने का धरा का धरा रह जाता है। आश्चर्य होता है कि टेढ़े मार्ग पर चलने का, बुराई करने का सामर्थ्य मुझमें कहाँ से आता है और सुपथ पर, सरल पथ पर चलना आसान होना चाहिए, उधर कदम ही नहीं उठते। क्यों नहीं उठते? यही तो मैं नहीं जान पाया।
ज्ञानी कहते हैं कि धार्मिक वह है जो सरल है। पता नहीं सब धार्मिक क्यों नहीं हो पाते। जो सहज है, सरल है, वह कठिन है। जो टेढ़ा है, कुटिल है, दुर्लभ है, वही सरल प्रतीत होता है। इस संसार की रीत ही कुछ ऐसी है, यहाँ धर्म कठिन लगता है, अधर्म सरल। सत्य अस्वाभाविक लगता है, झूठ सहज। ईमानदारी अनहोनी लगती है, बेईमानी आदत। तभी तो मैं छूट नहीं पाता हूँ। हे अग्ने! मुझे-सरल और सहज होना ही तो नहीं आता। प्रभु, तुम ही मुझे कुटिल मार्ग की कठिनता से हटाकर पुण्य के सहज सरल मार्ग का पथिक बना सकते हो। यही मेरी बारंबार आपसे प्रार्थना है। मैं प्रार्थी होकर, याचक होकर, आपकी शरण में आया हूँ। मैं नमन करता हूँ, बार-बार करता हूँ-मेरा मुझ में अब कुछ भी नहीं बचा। मैं तो जैसा भी हूँ, तेरे आधीन हूँ। यह नम्रता निरभिमानता ही सरलता का आधार है। जब नम्रता आ गयी, फिर कुछ करना शेष नहीं रहा। सारे शास्त्र, सारे उपदेश, सारी साधना यहाँ तक पहुँचने के लिये है। यहाँ से आगे जाने का सामर्थ्य तो किसी में नहीं-वह तो सब ईश्वर की इच्छा से ही संभव है।
जब एक बार बरेली में स्वामी दयानन्द के भाषण हो रहे थे तो प्रतिदिन ईश्वर के अस्तित्व पर नवयुवक मुन्शीराम तर्क करते थे। अन्तिम दिन युवक मुन्शीराम ने कहा मुझे तर्क से तो आपने निरुत्तर कर दिया, परन्तु विश्वास नहीं हुआ। तब महाराज ने उत्तर दिया-नवयुवक! यह तो ईश्वर की इच्छा से होगा। जब प्रभु चाहेंगे, तब तुमहारी आत्मा में प्रकाश होगा।
बस यही सूत्र है जो विश्वास का आधार है-
भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।