सत्यधर्माय दृष्टये
धर्म संसार का अनिवार्य संचालक तत्त्व है। कोई भी व्यक्ति संसार में मिलना कठिन है, जिसके मन में विश्वास न हो। विश्वास और आस्था ही धर्म है। हो सकता है यह विश्वास किसी का जड़ के प्रति हो, दूसरे का चेतन के प्रति, एक का साकार के प्रति तो दूसरे का निराकार के प्रति। इस विश्वास के कारण ही मनुष्य जीवित है। यह धर्म ही मनुष्य के जीवन का आधार है, इसलिये धर्म चेतन का आधार है। धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। इसके बिना जीवन चल नहीं सकता, लेकिन सहज नहीं लगता कि धर्म क्या ऐसी मजबूरी हो सकता है, जिसके बिना जीवन का आधार समाप्त हो सके। भोजन मनुष्य के जीवन का आधार है, क्या धर्म भी भोजन की भांति अनिवार्य है? स्थूल रूप से ऐसा लगता नहीं परन्तु विचारकों की दृष्टि में इसका भी उतना ही महत्त्व है, जितना कि जीवन के आधार भोजन का। भोजन वित्त है, भोजन हिरण्य है, इसीलिये तो शोषण का हथियार है। संसार में शोषण का आधार आज अर्थ है। शोषण का साधन आज सत्ता है-शक्ति है, इसलिये बल आज शारीरिक बल का धनी शोषणकर्त्ता बन बैठता है।
इसी प्रकार आज धर्म को मार्क्सवाद से आधुनिक विचार तक शोषण का स्रोत माना जाता रहा है। यही आधार है कि धर्म मनुष्य की बड़ी मजबूरी है, अनिवार्य आवश्यकता है, तभी शोषण का साधन बन सकता है। जो वस्तु पोषण का, प्रगति का जितना बड़ा आधार होगी, शोषण के लिये वह उतनी ही सक्षम भी होगी।
अर्थ अन्न का प्रतीक है, जीवन धारण का प्रमुख व प्रथम साधन है इसलिये अर्थ को माध्यम बनाकर समाज का निर्देशन किया जा सकता है और किया जाता है। सब स्वीकार करते हैं, जीवन को सम्पूर्ण और सुखी बनाने के लिये राष्ट्र, समाज और व्यक्ति को आर्थिक दासता से मुक्त करना ही होगा। इसी प्रकार बल की दासता से, सत्ता की दासता से भी मुक्त हुये बिना नैतिक और मर्यादित आचरण के लिये मनुष्य के पास उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता और यही स्थिति धर्म के साथ है। मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक विकास का लक्ष्य आत्मा का विकास है और इस लक्ष्य के आधार को ही धर्म कहा जाता है। प्रत्येक शरीर के लिये, बुद्धि के लिये, भावना के लिये सब आवश्यकताओं की भाँति धर्म की भी आवश्यकता है। मनुष्य मिथ्या विश्वास कर सकता है, अन्धविश्वास कर सकता है, धर्मान्ध हो सकता है परन्तु धर्मरहित नहीं हो सकता। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानना चाहिये और जानना आवश्यक है।
जो धर्म नहीं जानता, वास्तविक धर्म नहीं पहचानता अथवा स्वार्थ पूर्ति को ही धर्म स्वीकार करता है तो वह धर्म के द्वारा ही अपने स्वार्थ को सहज पूरा करता है, क्योंकि ऐसा करके मनुष्य को उसकी आवश्यकता पूर्ति का आभास कराता है। जो आवश्यकता की पूर्ति करता है, वह उसका उपभोग कर सकता है, इस कारण धर्म का उपयोग संसार में सबसे अधिक किया जा रहा है। धर्म के नाम पर किसी से कुछ भी कराया जा सकता है, इस कारण धर्म अनिवार्यता है, मजबूरी है, इसलिए शोषण का आधार है। जैसे राज्य के शोषण को दूर करने के लिये राज्य को सर्वथा समाप्त नहीं किया जा सकता, जैसे अर्थ के शोषण से मुक्त होने के लिये मनुष्य भूखा और नंगा नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म के शोषण से बचने के लिये मनुष्य अधार्मिक या अविश्वासी नहीं बन सकता। धर्म को त्यागा नहीं जा सकता, वह आवश्यकता है। हानि केवल तब होती है, जब विष को औषध समझ लिया जावे और अभक्ष्य को भक्ष्य। अतः वेद कहता है, जानने योग्य केवल एक वस्तु है और उसी के लिये सारा प्रयत्न करना चाहिए- वह है सत्य धर्म।
अधर्म के आवरण में धर्म छिप गया है, छिप जाता है, छिपा दिया जाता है, उसी आवरण के भेदन में सारा प्रयत्न करना है। वह आवरण आसानी से भेदन योग्य नहीं है, यह कार्य सरल होता तो वेद में ईश्वर से शक्ति की प्रार्थना करने की आवश्यकता न होती, यह आवरण बड़ा दृढ़, बड़ा रमणीय है, मोहक है, सत्य के ऊपर सबसे कठिन आवरण है, तो मोह का, मूढ़ता का है, मिथ्यापन है, इस कारण हम जो मानते हैं और जितना जानते हैं, उसी को सब समझ लेते हैं, उसी को सत्य समझ लेते हैं- उसके बिना छूटे और बिना टूटे अन्तर्निहित सत्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं होता। हम सत्य का साक्षात् बिना किये सत्य से भय खाते हैं, यह सत्य का ही प्रभाव है। संसार का समग्र असत्य सत्य कहकर ही प्रचारित किया जा सकता है और किया जाता है। संसार का सारा अधर्म-धर्म के नाम पर ही चल सकता है। इस संसार में आज तक कोई भी ऐसा व्यक्ति, विचार या दर्शन नहीं बन सका जो असत्य को, अधर्म को, पाखण्ड को अधर्म के नाम पर चला सका हो, यही सबसे बड़ी आवश्यकता धर्म के रूप में, सत्य के रूप में हमारे सम्मुख आती है। शास्त्रकार धर्म को सत्य और सत्य को ही धर्म कहते हैं। स्वामी दयानन्द का धर्म और सत्य पर्यायवाची हैं। अतः शास्त्रकार सत्य को धर्म के विशेषण के रूप में प्रत्युक्त करता है, धर्म तो सभी हैं परन्तु सत्य धर्म सब नहीं है, इसीलिये इनमें अन्तर्विरोध है, मोह है और कलह है। सत्य सब है, समग्र है। जिसके पास सब है, उसे भय कहाँ, उसमें कलह कहाँ? जहाँ कलह है, विरोध है, वहाँ अधर्म है। यह धर्म का भय है, जो हम बुद्धि से अधर्म को स्वीकार करते हैं और वाणी से धर्म के महत्त्व को बखानते हैं। ये दोहरे मूल्य, दोहरी आचार पद्धति हमारी अधूरी सत्य निष्ठा को इंगित करती है। जो अधूरा है, वह असन्तुष्ट है, कभी इधर भागता है, कभी उधर, कभी ऐसा करता है, कभी वैसा- यह चंचलता बिना सत्य ज्ञान के, बिना सत्य धर्म के समाप्त नहीं हो सकती। हम सत्य के मूल्य को आंक नहीं पाते तभी तो महर्षि दयानन्द द्वारा राज्य, वैभव, समृद्धि का त्यागना बहुत बड़ा समझते हैं, क्योंकि हम सत्य को उससे मूल्यवान नहीं समझ पाये। हमारी दृष्टि आज भी भौतिक सम्पत्ति को मूल्यवान सिद्ध करने में लगी है। जब हम वास्तविकता से परिचित हो जायेंगे, तब सब वस्तुएँ नगण्य ही जावेंगी। तब हमारे मन में धर्म के ह्रास की चिन्ता भी नहीं होगी, तब तो केवल कर्त्तव्य पूर्ण करने में सुख और शान्ति का अनुभव हो सकेगा। जब हम धर्म की, ईमानदारी की संसार में कमी का उल्लेख करते हैं, तो वास्तविक चिन्ता यह होती है कि कहीं हम सांसारिक मूल्यों में पिछड़ तो नहीं जायेंगे? संसार के इतने लोग झूठे तो नहीं हो सकते, जो सत्य को छोड़कर भाग रहे हैं, धर्म के नाम पर अधर्म कर रहे हैं, इसलिए हम चिन्तित हैं धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये। परन्तु सत्य इतना दुर्बल और शक्तिहीन होता तो दुनिया के लोगों द्वारा कभी का नष्ट कर दिया गया होता, आज सत्य का समर्थन करने का साहस किसी में नहीं होता। परन्तु वस्तविकता इससे विपरीत है। सत्य के कारण केवल दण्ड-कमण्डलधारी सारी दुनिया से लोहा लेना चाहता है। सुकरात विष का प्याला पीना चाहता है फिर उस सत्य के लिये हम क्या अधर्म करेंगे, जब उक्त सत्य को हम जीवित रखने का दम्भ कर सकते हैं? सत्य का सहारा मिल जाये, धर्म का अवलम्बन प्राप्त हो जावे तो हम निर्द्वन्द्व और निर्भय अवश्य हो सकते हैं। फिर हम सत्य के जिज्ञासुओं को पाकर प्रसन्न हो जाते हैं, आँखों को मार्ग दिखाने का प्रयत्न कर सकते हैं, मूढ़ व्यक्ति जो अधर्म को धर्म समझता है, उसकी तो उपेक्षा करने वाले चिकित्सक बन सकते हैं, तभी तो आचार्य चरक ने कहा है-
मैत्रीकारुण्यमार्तेषु शक्ये प्रीतिरुपेक्षणम्।
प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा।।
ओ३म्
Oum
ये नाम केचिदिह न: प्रथ यत्वज्ञाम् |
जानन्तु ते किमपि तांप्रि ति नैष यत्न: ||
उत्प्तस्यतेप्रस्ति मम केपी समानधर्मा। |
कालो ह्यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी। ||
भवभूति (मालती माधव १-६)
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