(मिर्जापुर के रामरतन लड्ढा से शास्त्रार्थमाघ, सं० १९२६ वि०)
इतने में रामरतन लड्ढा ने कहा किमहाराज यह हमारे मिर्जापुर के
पण्डित हैं, आप इनके सामने कुछ कहें । स्वामी जी ने उससे पूछा कितुम
किस मन्दिर के शिष्य हो ? उसने कहा कि हम नाथ जी के शिष्य हैं ।
स्वामी जी ने कहा कितुम्हारा आचार्य वेश्या—पुत्र और तुम उसके शिष्य
हुए, यह तुम को अनधिकार है । स्वामी जी ने हम से पूछा कि इनको
अधिकार है या नहीं ? हम ने कहा कि अधिकार नहीं । फिर स्वामी जी
ने हम से पूछा धर्म क्या है और उसका स्वरूप क्या है ? हम ने कहा कि
आपके इस कथन में दोष है । बोले इसमें क्या दोष है ? हम ने कहा
धर्म का रूप नहीं है, उसका स्वरूप पूछना अनुचित है । तब स्वामी जी ने
मनुस्मृति और महाभारत से धर्म का स्वरूप बतलाना आरम्भ किया । हम
ने कहा कि जो वेद का प्रतिपादित है वही धर्म है ।
तथाकथित प्रतिष्ठा आदि के मन्त्रों में प्रतिष्ठा न निकली न आवाहन।
तब स्वामी जी ने पूछा कि वेद में प्रतिमापूजन है या नहीं ? हम ने उत्तर
दिया कि है । उस पर स्वामी जी ने कहा किकहां ? हम ने कहा किप्रतिष्ठा
और आवाहन वेदमन्त्रों से होता है क्या वह प्रमाण नहीं । तब स्वामी जी ने
कहा किवह प्रतिष्ठा और आवाहन का वेदमन्त्र कहो । तब हम ने मन्त्र
कहा । स्वामी जी ने कहा किइसका अर्थ कहो । जब अर्थ किया तो उनमें
प्रतिष्ठा और आवाहन का कुछ प्रयोजन न आया । फिर हमने पूजन और
पुष्प चढ़ाने और धूप दीप नैवेघ आदि के मन्त्र उनके आगे पढ़े । उनका
अर्थ भी स्वामी जी ने सुनाया कि इनका अर्थ तो यह है फिर तुम उनसे
कैसे नैवेघ आदि चढ़ाते हो । और नवग्रह पूजा के जो मन्त्र हैं उनका भी
अर्थ देखिये । उनका अर्थ भी करके सुनाया । उससे भी सूर्य और बृहस्पति
के अतिरिक्त किसी ग्रह का सम्बन्ध न निकला । (लेखराम पृष्ठ १९५)