गीता के श्लोक का अर्थ

(एक सज्जन से मिरजापुर में प्रश्नोत्तरअप्रैल, १८७०)

एक दिन एक सज्जन जो गीता का बड़ा प्रेमी था, स्वामी जी के पास

आकर बोला किमहाराज मैंने गीता की अनेक टीकाएँ देखी हैं परन्तु इस

श्लोकार्ध का अर्थ समझ में नहीं आया । आप अनुग्रह करके इसका अर्थ

मुझे समझा दें ।

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

स्वामी जी ने इसका अर्थ किया कि धर्म्मान्’’ शब्द को यहां

अधर्म्मान्’’ समझना चाहिये । ट्टट्टशकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्’’ व्याकरण

के नियम के अनुसार ट्टट्टसर्व’ में जो वकार में अकार है वह ट्टट्टअधर्म्मान्’’

के अकार में तद्रूप हो गया, अर्थात् वह वकार का अकार उसमें मिल गया,

इस प्रकार यघपि ट्टट्टअधर्म्मान्’’ शब्द ने ट्टट्टधर्म्मान्’’ का रूप ग्रहण कर लिया,

परन्तु वास्तव में ट्टट्टअधर्म्मान्’’ ही रहा । यह अर्थ सुनकर वह मनुष्य बहुत

प्रसन्न हुआ और स्वामी जी से उसने इस अर्थ की पुष्टि में प्रमाण मांगा तो

उन्होंने वेद के दो तीन मन्त्रों का प्रमाण देकर उसका सन्तोष कर दिया ।

(देवेन्द्रनाथ १।१९१, लेखराम १९८)