समर्पित से भी अधिक समर्पित डॉ. धर्मवीर जी

समर्पित से भी अधिक समर्पित

डॉ. धर्मवीर जी

उदयपुर जाने से पहले ऋषि दयानन्द को अनेक भक्तों ने बड़े आग्रहपूर्वक रोका। उन्हें समझाया भी गया कि उदयपुर का प्रशासन ठीक नहीं है, राजव्यवस्था भी बिगड़ी हुई है। राजा विलासिताओं में फँसा हुआ है। महाराज! वहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं, आप वहाँ सुरक्षित नहीं होंगे।

ऋषि दयानन्द ने ये सारी बातें सुनकर कहा कि चाहे मेरी उंगलियों को मोमबत्ती की तरह क्यों न जला दिया जाये, पर मैं सत्य सिद्धान्तों का प्रचार अवश्य करूँगा।

उपरोक्त इस घटना में एक व्यक्ति का सिद्धान्तों के प्रचार के लिये दीवानापन, पागलपन स्पष्ट दिखाई देता है। मानव जाति के दुःखों को अपना दुःख मानकर उन्हें दूर करने के लिये अपने जीवन तक को आहूत कर देने का उदाहरण ऋषि दयानन्द थे। आगे चलकर उनकी शिष्य परमपरा में स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम जैसे बलिदानियों की लबी शृंखला चलती गई और भारतभूमि ऐसे राष्ट्र-भक्त दिव्य बलिदानियों को पाकर गौरवान्वित हुई। ऋषि दयानन्द के बाद पं. लेखराम से प्रारमभ होकर यह शृंखला हिन्दी आन्दोलन, निजाम आन्दोलन, गौरक्षा आन्दोलन जैसी कड़ियों को जोड़ती हुई और लमबी होती गई। जब तक धर्म-समर में स्वयं को आहूत करने वाले योद्धा आते रहे, आर्य समाज पाखण्डों, अन्धविश्वासों, वेद विरोधियों के समुख और दृढ़ता के साथ बढ़ता गया।

कुछ समय से आर्य समाज में ये उत्साह, ये पागलपन, ये दीवानगी नदारद-सी दिखाई पड़ने लगी थी, इसलिये आर्य समाज लगातार अपना गौरव खोता जा रहा था। इस निराशा भरे वातावरण में भी एक दीपक था, जो लगातार स्वयं को जलाकर वर्तमान में आर्यजाति को प्रकाशित कर रहा था-आर्य समाज के आकाश का एकमात्र सितारा, जिसे आर्यजनता आशा की दृष्टि से देखती थी। निःस्वार्थ-भाव से ऋषि दयानन्द के मिशन में लगे कार्यकर्त्ताओं, युवकों के मन में हर समस्या का एकमात्र समाधान था-आचार्य धर्मवीर। ये वो नाम था जो कभी किसी से डरा नहीं-कभी भी नहीं। कभी झुका नहीं, कभी रुका नहीं। आर्य समाज का पूरा संन्यासी वर्ग इस आचार्य की विद्वत्ता व संन्यस्तता के सामने नममस्तक था।

पाठक वृन्द  सोच रहे होंगे कि इतनी बड़ी भूमिका किस बात को समझाने के लिये लिखी गई है। अनुभव कहता है कि किसी व्यक्ति की वास्तविकता उसकी निकटता व उसके व्यवहार से ही निखरकर सामने आती है। आचार्य धर्मवीर जी बलिदानियों की शृंखला में एक और कड़ी जोड़ गये या उन्होंने पूर्ण निष्ठा से जीवन समर्पित करके भी आर्यवाटिका को सींचा-ये वाक्य किसी प्रमाण की अपेक्षा तो नहीं रखते, पर फिर भी उनके जीवन से आने वाली पीढ़ी कुछ प्रेरणा ले सके, इसलिये उनके समर्पण का एक उदाहरण सप्रमाण दिया जा रहा है।

परोपकारिणी सभा, परोपकारी पत्रिका और गुरुकुल ऋषि उद्यान जिस ओहदे पर आज है, उसके पीछे एक नितान्त समर्पित व्यक्तित्व छिपा है, ऐसा समर्पण जिसे केवल समर्पण कहते मन नहीं मानता।

परोपकारी पत्रिका आर्य जगत् की शिरोमणि व प्रामाणिक पत्रिका है, पर कैसे बनी?

आचार्य धर्मवीर उन्हें जब भी जहाँ भी ऐसा लगा कि यहाँ विचारशील पाठकों की उपस्थिति है, यहाँ पत्रिका की उपयोगिता हो सकती है, उस स्थान के लिये उन्होंने निःशुल्क पत्रिका भेजना प्रारमभ कर दिया, चाहे इसके लिये अपनी जेब से ही धन क्यों न देना पड़ा हो। और एक बार जो पत्रिका का ग्राहक बन गया, उसे आजीवन पत्रिका भेजते ही रहे, चाहे शुल्क आया, या नहीं आया। यदि कोई व्यक्ति आर्थिक कारणवशात् पत्रिका का ग्राहक बनने में असमर्थ होता तो तत्काल अपनी ओर से उसे पत्रिका भेजने लगते। उन्हें पाठक की पहचान थी, उनका उद्देश्य था-ऋषि दयानन्द को हर विचारशील मस्तिष्क तक पहुँचाना। इसी कार्य के लिये मॉरिशस निवासी श्री सोनेलाल नामधारी जी को लिखा गया उनका पत्र हम सबके लिये प्रेरणास्रोत है।

आचार्य धर्मवीर जी द्वारा सोनालाल जी को लिखा गया पत्रUntitled

प्रत्युत्तर में सोनालाल जी का पत्र

आदरणीय डॉ. दिनेशचन्द्र शर्मा जी,

सादर नमस्ते!

‘परोपकारी’ पत्रिका के दूसरे अंक में डॉ. धर्मवीर जी की अन्तिम यात्रा का समाचार पढ़ा। आर्य जगत् का एक कोना खाली दिखता है। उसकी कमी की पूर्ति असभव है। आर्यजगत् में फैले डॉ. धर्मवीर ऐसे सिकुड़कर नहीं रह रह सकते। वो सारे आर्यजगत् में व्याप्त लगते हैं और लगते रहेंगे। उनकी उदारता का बखान कहाँ तक किया जाय शद कम पड़ने लगेंगे। मैं भारतीय धार्मिक पत्रिकाओं का पाठक काफी वर्षों से रहा- परोपकारी, जनज्ञान, आर्यजगत्, टंकारा समाचार और सत्यार्थसौरभ। उम्र की थकावट और आर्थिक आय मद्धम-धारा के कारण मैंने पत्रिकायें लेना बन्द कर दिया, पर लगता है, डॉक्टर धर्मवीर जी आदरी रूप में अभी भी पत्रिका भिजवा रहे हैं। उनकी उपस्थिति न होने पर भी उनका आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है। पाठकों की पहचान रखते हैं। हमारे पास है ही क्या जो उन्हें दे सकें? परिवार के  लिए मन से संवेदना प्रकट कर रहे हैं, आर्य जगत् का विस्तृत समाज उन्हें मन में बसाये रखेगा। उनके सपादकीय का तो कुछ कहना ही नहीं एक खाई अवश्य दीख रही है। ईश्वर के दरबार में वे सिंहासन पर ही विराज होंगे, ऐसी आशा है। आर्य जगत् को देखते हुये आशीर्वाद दे रहे होंगे।

स्वजनों को ईश्वर धीरज दे।

विशेष सूचना के आधार पर विशेषांक  के लिए उनका पत्र मेरे पास है भेज रहा हूँ। आशा है, छोटा कोना मिल ही जायेगा।

अग्रिम धन्यवाद!

पाठक

सोनालाल नेमधारी, आर्यभूषण

कारोलिन, वेल-पुर, मॉरिशस

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