सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! सच्ची रामायण की समीक्षा में १९वीं कड़ी में आपका स्वागत है।पिछली कड़ियों में हमने महाराज दशरथ पर लगे आरोपों का खंडन किया था ।अब अगले अध्याय में पेरियार साहब आराम शीर्षक से भगवान श्रीराम पर 50 से अधिक अधिक बिंदुओं द्वारा आक्षेप किए हैं। अधिकांश बिंदुओं का शब्द प्रमाण ललई सिंह ने “सच्ची रामायण की चाभी” में दिया है परंतु प्रारंभिक छः बिंदुओं का कोई स्पष्टीकरण उन्होंने नहीं दिया अब भगवान श्री राम पर लगे आक्षेपों का खंडन प्रारंभ करते हैं पाठक हमारे उत्तरों को पढ़ कर आनंद लें:-
*भगवान श्रीराम पर किये आक्षेपों का खंडन*
पेरियार साहब कहते हैं,”अब हमें राम और उसके चरित्र के विषय में विचार करना चाहिए।”
हम भी देखते हैं कि आप क्या खुराफात करते हैं भगवान श्रीराम के चरित्र संबंधी बिंदुओं का उल्लेख हम पीछे कर चुके हैं अब आपकी आक्षेपों को भी देख लेते हैं और उनकी परीक्षा भी कर लेते हैं।
*आक्षेप-१-* राम इस बात को भली भांति जानता था कि, कैकई के विवाह के पूर्व ही अयोध्या का राज्य के कई को सौंप दिया गया था यह बात स्वयं राम ने भरत को बताई थी।(अयोध्याकांड १०७)
*समीक्षा-* हम दशरथ के प्रकरण के प्रथम बिंदु के उत्तर में ही सिद्ध कर चुके हैं कि आप का यह दिया हुआ श्लोक प्रक्षिप्त है अतः इसका प्रमाण नहीं माना जा सकता। श्रीराम जेष्ठ पुत्र होने के कारण ही राजगद्दी के अधिकारी थे।
इस रिश्ते में हम पहले ही स्पष्टीकरण दे चुके हैं।
*आक्षेप-२-* राम को अपने पिता ,कैकई व प्रजा के प्रति सर्वप्रिय व्यवहार अच्छा स्वभाव एवं शील केवल राजगद्दी की अन्याय से छीन लेने के लिए दिखावटी था ।इस प्रकार राम सब की आस्तीन का सांप बना हुआ था।
*समीक्षा-* जरा अपनी बात का प्रमाण तो दिया होता वाह महाराज! यदि श्रीराम का शील स्वभाव सद्व्यवहार बनावटी था तो ,महर्षि वाल्मीकि ने उनका जीवन चरित्र रामायण के रूप में क्यों लिखा? हम पहले भरपूर प्रमाण दे चुके हैं कि श्री राम के मर्यादा युक्त चरित्र को आदर्श मानकर उसका अनुसरण करने के लिए ही रामायण की रचना की गई है। आता आपका उन्मत्त प्रलाप बिना प्रमाण की खारिज करने योग्य है। श्रीराम को अन्याय से राजगद्दी छीनने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; ज्येष्ठ पुत्र होनअस्तु।
ारण, प्रजा राजा ,मंत्रिमंडल एवं जनपद राजाओं की सम्मति से ही वे राजगद्दी के सच्चे अधिकारी थे। कहिए महाशय यदि उनका शील स्वभाव केवल राजगद्दी के लिए ही था तो वह 14 वर्ष के वनवास में क्यों गए? यदि उनका स्वभाव झूठा था तो अयोध्या के वासी उनके पीछे-पीछे उन्हें वन जाने से रोकने के लिए क्यों गए? यदि उन्हें राज्य प्राप्त करने की ही लिप्सा थी, महाराज दशरथ के कहने पर कि “तुम मुझे बंदी बनाकर राजगद्दी पर अपना अधिकार जमा लो” रामजी ने ऐसा क्यों नहीं किया? आस्तीन का सांप! मिथ्या आरोप लगाते हुए शर्म तो नहीं आती !ज़रा प्रमाण तो दिया होता जिससे रामजी आस्तीन के सांप सिद्ध होते! आस्तीन का सांप भला प्रजा,मंत्रिमंडल तथा माताओं,जनपद सामंतों का प्यारा कैसे हो सकता है? आपका आंख से बिना प्रमाण के व्यर्थ है।
*आक्षेप-३-* भरत की अनुपस्थिति में अपने पिता द्वारा राजगद्दी के मिलने के प्रपंचों से राम स्वयं संतुष्ट था।
*समीक्षा-* यह बात सर्वथा झूठ है। श्रीराम को राजगद्दी देने में कोई प्रपंच नहीं किया गया उल्टा मूर्खतापूर्ण वरदान मांग कर कैकेयी ने प्रपंच रचा था। ज्येष्ठ पुत्र होने से श्रीराम सर्वथा राज्य के अधिकारी थे और भारत को राजगद्दी मिले ऐसा कोई वचन दिया नहीं गया था- यह हम सिद्ध कर चुके हैं। श्रीराम संतुष्ट इसीलिए थे क्योंकि महाराज की आज्ञा से उनका राज तिलक किया जाना था। राजतिलक की घोषणा और वनवास जाते समय दोनों ही स्थितियों में श्रीराम के मुख मंडल पर कोई फर्क नहीं पड़ा। श्रीराम वीत राग मनुष्य थे। उनको राज्य मिले या ना मिले दोनों ही स्थितियों में वे समान थे। भरत की अनुपस्थिति के विषय में हम पहले स्पष्टीकरण दे चुके हैं। श्री राम बड़े भाई थे और उन के बाद भरत को राजगद्दी मिलनी थी मनुष्य परिस्थितिवश कुछ भी कर सकता है और फिर भरत की माता कैकेई के स्वभाव को जानकर दशरथ यह जानते थे कि वह श्रीराम के राज्याभिषेक मैं अवश्य कोई विघ्न खड़ा करेगी और भारत के लिए राजगद्दी की मांग करेगी, भले ही यह भारत की इच्छा के विरुद्ध ही क्यों न हो। अस्तु।
*आक्षेप-४-* कहीं ऐसा ना हो कि राजगद्दी मिलने के मेरे सौभाग्य के कारण लक्ष्मण मुझसे ईर्ष्या तथा द्वेष करने लगे इस बात से हटकर राम ने लक्ष्मण को खासकर उससे मीठी-मीठी बातें कह कर उससे कहा कि-” मैं केवल तुम्हारे लिए राजगद्दी ले रहा हूं किंतु अयोध्या का राज्य वास्तव में तुम ही करोगे ।”अतः मैं राजा बन जाने के बाद राम ने लक्ष्मण से राजगद्दी के विषय में कोई संबंध नहीं रखा। (अयोध्याकांड ४ अध्याय)
*समीक्षा-* यह बात सत्य है कि श्रीराम ने उपरोक्त बात कही थी परंतु इसका यह अर्थ नहीं की उसके बाद उनका भ्रातृ प्रेम कम हो गया था। आप ने रामायण पढ़ी ही नहीं है और ऐसे ही मन माने आक्षेप जड़ दिए। श्री राम केवल अपने लिए नहीं बल्कि अपने बंधु-बांधवों के लिए ही राजगद्दी चाहते थे। लीजिये प्रमाणों का अवलोकन कीजिए:-
लक्ष्मणेमां मया सार्द्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम् ।
द्वितीयं मेंऽतरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता ॥ ४३ ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे साथ इस पृथ्वीके राज्यका शासन (पालन) करो।तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो। ये राजलक्ष्मी तुमको ही प्राप्त हो रही है ॥४३॥
सौमित्रे भुङ्क्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानि च ।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये ॥ ४४ ॥
‘सुमित्रानंदन ! (सौमित्र !) तुम अभीष्ट भोग और राज्यका श्रेष्ठ फल का उपभोग करो। तुम्हारे लिये ही मैं जीवन कीतथा राज्यकी अभिलाषा करता हूं” ॥४४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४)
श्रीराम का लक्ष्मण जी के प्रति प्रेम देखिये:-
स्निग्धो धर्मरतो धीरः सततं सत्पथे स्थितः ।
प्रियः प्राणसमो वश्यो विजयेश्च सखा च मे ॥ १० ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे स्नेही, धर्म परायण, धीर-वीर तथा सदा सन्मार्गमें स्थित रहनेवाले हो। मुझे प्राणों के समान प्रिय तथा मेरे वश में रहने वाले, आज्ञापालक और मेरे सखा हो॥१०॥(अयोध्याकांड सर्ग ३१)
आपने कहा इसके बाद श्रीराम ने इस विषय का उल्लेख ही नहीं किया,जो सर्वथा अशुद्ध है,देखिये:-
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिश्रृणोमि ते ॥ ५ ॥
’लक्ष्मण ! मैं तुमको प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि धर्म, अर्थ काम और पृथ्वीका राज्यभी मैं तुम्ही लोगों के लिये ही चाहता हूं ॥ ५ ॥
भ्रातॄणां सङ्ग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण ।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे ॥ ६ ॥
’लक्ष्मण ! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिये ही राज्यकी इच्छा करता हूं और यह बात सत्य है इसके लिये मैं अपने धनुष को स्पर्श करके शपथ लेता हूं॥ ६ ॥(अयोध्याकांड सर्ग ९७)
श्रीरामचंद्र ने रावणवध के बाद अयोध्या लौटकर अपने भाइयों सहित राज्य किया,देखिये:-
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः ।
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् ॥ १०६॥
भाइयोंसहित श्रीमान् रामजी ने ग्यारह सहस्र(यहां सहस्र का अर्थ एक दिन से है,यानी =लगभग तीस ) वर्षोंतक राज्य किया ॥१०६॥(युद्धकांड सर्ग ११८)
अब हुई संतुष्टि?अब तो सिद्ध हो गया कि श्रीराम की प्रतिज्ञा कि ,”मैं अपने भाइयों के लि़े ही राज्य कर रहा हूं,दरअसल लक्ष्मण सहित वे ही राज करेंगे” सर्वथा सत्य है और आपका आक्षेप बिलकुल निराधार ।
*आक्षेप-५-* राज तिलकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने में राम के हृदय में आद्योपांत संदेह भरा रहा था।
*समीक्षा-* श्रीराम के हृदय में राज तिलक उत्सव सफलतापूर्वक हो जाने में संदेश भरा था-इसका उल्लेख रामायण में कहीं नहीं है। आपको प्रमाण देकर प्रश्न करना था ।बिना प्रमाण लिए आपका आपसे निराधार है ।यदि श्रीराम के मन में संदेह था वह भी इससे उन पर क्या अक्षेप आता है?
*आक्षेप-६-* जब दशरथ ने राम से कहा कि राजतिलक तुम्हें न किया जायेगा,तुम्हें वनवास जाना पड़ेगा -तब राम ने गुप्त रुप से शोक प्रकट किया था।(अयोध्याकांड अध्याय १९)
*समीक्षा-* झूठ ,झूठ ,झूठ !!एक दम सफेद झूठ बोलते हुए आपको लज्जा नहीं आती? अध्याय यानी सर्ग(१३)का पता लिखने के बाद भी आप की कही हुई बात वहां बिल्कुल भी विद्यमान नहीं है।वनवास जाने की बात महाराज दशरथ ने श्रीराम को प्रत्यक्ष नहीं कही थी, अपितु कैकेई के मुंह से उन्हें इस बात का पता चला था और मैं तुरंत वनवास जाने के लिए तैयार हो गए थे।
उस समय श्रीराम ने कोई शोक प्रकट नहीं किया,अपितु वीतराग योगियों की भांति उनके चेहरे पर शमभाव था,देखिये प्रमाण:-
न चास्य महतीं लक्ष्मीं राज्यनाशोऽपकर्षति ।
लोककान्तस्य कान्तत्वाच्छीतरश्मेरिव क्षयः ॥ ३२ ॥
श्रीराम अविनाशी कांतिसेे युक्त थे इसलिये उस समय राज्य न मिलने के कारण उन लोककमनीय श्रीरामकी महान शोभा में कोई भी अंतर पड़ नहीं सका।जिस प्रकार चंद्रमाके क्षीण होने से उसकी सहज शोभाका अपकर्ष नहीं हो ॥३२॥
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम् ।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया ॥ ३३ ॥
वे वन में जाने के लिये उत्सुक थे और सारी पृथ्वीके राज्य त्याग रहे थे, फिर भी उनके चित्तमें सर्वलोक से जीवन्मुक्त महात्मा के समान कोई भी विकार दिखाई नहीं दिया ॥३३॥(अयोध्याकांड सर्ग १९)
देखा हर राज्य मिले या नहीं, परंतुश्री राम की शोभा में कोई फर्क नहीं था।उनको बिलकुल शोक नहीं हुआ था।सर्ग का पता लिखकर भी ऐसा सफेद झूठ लिखना भी एकदम वीरता है।पेरियार साहब ने जनता की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है।
…………क्रमशः ।
पाठक महाशय!पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के ७ आक्षेपों का उत्तर लिखा जायेगा।आपके समर्थन के लिये हम आपके आभारी हैं।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कीजय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य टीम या पंडित लेखराम वैदिक मिशन उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |