पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१३

*पेरियार रचित सच्ची रामायण खंडन भाग-१३*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-कार्तिक अय्यर
पाठकगण! सादर नमस्ते।पिछली पोस्ट में हमने दशरथ शीर्षक के पहले बिंदु का खंडन किया।अब आगे:-
*आक्षेप २* :-  किसी डॉ सोमसुद्रा बरेथियर का नाम लेकर लिखा है कि उनकी पुस्तक “कैकेयी की शुद्धता और दशरथ की नीचता” ने मौलिक कथा की कलई खोल दी।
*समीक्षा*:- *अंधी देवी के गंजे पुजारी!* जैसे आप वैसे आपके साक्षी! हमें किसी सोमसुद्रा के स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। हमारे लिये वाल्मीकीय रामायण ही काफी है।और उसके अनुसार दशरथ महाराज का चरित्र उत्तम था और कैकेयी ने मूर्खतापूर्ण वरदान मांगकर नीचता का परिचय दिया।जिसके लिये मात्र सुमंत्र,दशरथ,वसिष्ठ, अन्य नगर वासियों ने ही नहीं,अपितु उसके पुत्र भरत ने भी उसकी भर्त्सना की।इसके लिये अयोध्याकांड के सर्ग ७३ और ७४ का अवलोकन कीजिये।और अपने सोमसुद्रा साहब की पुस्तक को रोज़ शहद लगाकर चाटा करिये।
*आक्षेप ३* राजा दशरथ के उक्त प्रभाव से राम और उसकी मां कौसल्या अनभिज्ञ न थी।वृद्ध राजा ने राम को प्रकट रूप से बताया था कि राम राज्यतिलकोत्सव के समय कैकेयी के पुत्र भरत का अपने नाना के घर जाना शुभसंकेत है।(अध्याय १४)अयोध्या में बिना कभी वापस आये दस वर्ष के दीर्घकाल तक भरत का अपने नाना के यहां रहने का कोई आकस्मिक कारण नहीं था इत्यादि । मंथरा का उल्लेख करके लिखा है कि उसके अनुसार “दशरथ ने अपनी पूर्व निश्चित योजना द्वारा भरत को उसके नाना के यहां भेज दिया था। और कहा है कि इससे भरत अयोध्या के निवासियों की सहानुभूति पाने में असमर्थ हो गये थे। भारत की यह धारणा थी कि भारत का राज्याभिषेक के किस समय उसके नाना के यहां पठवा देने से मुझे (दशरथ को)लोगों से शत्रुता बढ़ जायेगी।
*समीक्षा* हद है! केवल सर्ग १४ लिखकर छोड़ दिया।न श्लोक लिखा न उसका अर्थ दिया।खैर! पहले इस पर चर्चा करते हैं कि राजा दशरथ ने भरत को जबरन उसके नाना के यहां भेजा था या वे अपनी इच्छा से अपने ननिहाल गये थे।देखिये:-
कस्यचित् अथ कालस्य राजा दशरधः सुतम् ॥१-७७-१५॥ भरतम् कैकेयी पुत्रम् अब्रवीत् रघुनंदन ।
अयम् केकय राजस्य पुत्रो वसति पुत्रक ॥१-७७-१६॥ त्वाम् नेतुम् आगतो वीरो युधाजित् मातुलः तव ।
श्रुत्वा दशरथस्य एतत् भरतः कैकेयि सुतः ॥१-७७-१७॥ गमनाय अभिचक्राम शत्रुघ्न सहितः तदा ।
आपृच्छ्य पितरम् शूरो रामम् च अक्लिष्ट कर्मणम् ॥१-७७-१८॥ मातॄः च अपि नरश्रेष्ट शत्रुघ्न सहितो ययौ ।
युधाजित् प्राप्य भरतम् स शत्रुघ्नम् प्रहर्षितः ॥१-७७-१९॥ स्व पुरम् प्रविवेशत् वीरः पिता तस्य तुतोष ह ।
गते च भरते रामो लक्ष्मणः च महाबलः ॥१-७७-२०॥ पितरम् देव संकाशम् पूजयामासतुः तदा ।
“कुछ काल के बाद रघुनंदन राजा दशरथ ने अपने पुत्र कैकेयीकुमार भरत से कहा-।बेटा!ये तुम्हारे मामा केकयराजकुमार युधाजित तुम्हें लेने के लिये आये हैं *और कई दिनों से यहां ठहरे हुये हैं*।” *दशरथ जी की यह बात सुनकर कैकेयीकुमार भरत ने उस समय शत्रुघ्न के साथ मामा के यहां जाने का विचार किया।वे नरश्रेष्ठ शूरवीर भरत अपने पिता राजा दशरथ,अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम तथा सभी माताओं से पूछकर उनकी आज्ञा ले शत्रुघ्न के साथ वहां से चल दिये।शत्रुघ्न सहित भरत को साथ लेकर वीर युधाजित् ने बड़े हर्ष के साथ अपने नगर में प्रवेश किया,इससे उनके पिता को बड़ा संतोष हुआ।भरत के चले जाने के बाद महाबली श्रीराम और लक्ष्मण अपने देवेपम पिताजी की सेवा करने लगे।”
 इससे सिद्ध है कि भरत को जबरन दशरथ ने ननिहाल नहीं पठवाया।भरत के मामा युधाजित ही उनके लेने आये थे और कई दिनों तक उनसे मिलने के लिये रुके थे। वे १० वर्ष तक वहां रहें इससे आपको आपत्ति है? वे चाहे दस साल रहें या पूरा जीवन।
रहा सवाल कि “राजा ने क्यों कहा कि भरत इस नगर के बाहर अपने मामा के यहां निवास कर रहा है ,तब तक तुम्हारा अभिषेक मुझे उचित प्रतीत होता है। इसका उत्तर हैथे। अर्थात्:-
” यद्यपि भरत सदाचारी,धर्मात्मा,दयालु और जितेंद्रिय है तथापि मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता-ऐसा मेरा मत है।रघुनंदन!धर्मपरायण पुरुषों का भी मन विभिन्न कारणों से राग-द्वेषादिसे संयुक्त हो जाता है।२६-२७।।”
तात्पर्य यह कि राजा पूरी राजसभा में रामराज्याभिषेक की घोषणा कर चुके थे।
अयोध्या कांड सर्ग २ श्लोक १०:-
सोऽहं विश्रममिच्छामि पुत्रं कृत्वा प्रजाहिते ।
सन्निकृष्टानिमान् सर्वाननुमान्य द्विजर्षभान् ॥२-२-१०॥
अर्थात्:-” यहां बैठे इम सभी श्रेष्ठ द्विजोंकी अनुमति लेकर प्रजाजनों के हित के कार्य में अपने पुत्र श्रीराम को नियुक्त करके मैं राजकार्य से विश्राम लेना चाहता हूं।”
 दशरथ चाहते थे कि श्रीराम का अभिषेक बिना किसी विघ्न-बाधा के हो। भरत यद्यपि धर्मात्मा और श्रीराम के अनुगामी थे तो भी राग-द्वेषादिसे मनुष्य का स्वभाव बदल जाता है।नहीं तो भरतमाता कैकेयी ही भरत को राजा बनाने का हठ कर सकती थी क्यों कि वह स्वार्थी और स्वयं को बुद्धिमान समझती थी-यह स्वयं भरत ने माना है।साथ ही,भरत का ननिहाल कैकयदेश बहुत दूर और दुर्गम स्थान पर था।वहां से उन्हें आने में ही काफी समय लग जाता और शुभ घड़ी निकल जाती।इक्ष्वाकुकुल की परंपरा थी चैत्रमास में ही राज्याभिषेक होता था क्योंकि चैत्रमास ही संसवत्सर का पहला दिन है और ऋतु के भी अनुकूल है।पुष्य नक्षत्र का योग भरत के आने तक टल जाता इसलिये राजा दशरथ ने यह बात कही।अन्यथा भरत को दूर रखने का कोई कारण न था।क्योंकि भरत भी मानते थे कि इक्ष्वाकुवंश की परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता है।साथ ही भरत को राजगद्दी देने की प्रतिज्ञा भी झूठी और मिलावट है यह हम सिद्ध कर चुके हैं।
रहा प्रश्न मंथरा का,तो महाशय!मंथरा जैसी कपटबुद्धि स्त्री की बात आप जैसे लोग ही मान सकते हैं। मंथरा ने कहा था कि दशरथ ने जानबूझकर भरत को ननिहाल भेज दिया ताकि वो अयोध्या की जनता ही सहानुभूति न हासिल कर सके।महाशय!यदि भरत को राजगद्दी दी जानी थी और वे राज्य के अधिकारी थे,तो फिर उनको १० वर्ष तक ननिहाल में रहने की भला क्या आवश्यकता थी?उन्हें कुछ समय ननिहाल में बिताकर बाकी समय अयोध्या में रहकर जनता का विश्वास जीतना था।पर ऐसा नहीं हुआ।इससे पुनः सिद्ध होता है कि भरत के नाना को राजा दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया। सबसे बड़ी बात,भरत अपनी स्वेच्छा से ननिहाल गये थे।तब दशरथ पर आरोप लगाना कहां तक उचित है?अयोध्या की जनता,समस्त देशों के राजा और जनपद,मंत्रिमंडल सब चाहते थे कि श्रीराम राजा बने।मंथरा ने वो सारी बातें कैकेयी को भड़काने के लिये कहीं थीं।
और एक बात।भरत पहले से जानते थे कि दशरथ श्री राम का ही अभिषेक करेंगे,उनका नहीं।जब वे अयोध्या लौटे और महाराज के निधन का समाचार उन्हें मिला तब वे कहते हैं:-
अभिषेक्ष्यति रामम् तु राजा यज्ञम् नु यक्ष्यति ।
इति अहम् कृत सम्कल्पो हृष्टः यात्राम् अयासिषम् ॥२-७२-२७॥
“मैंने तो सोचा था कि महाराज श्रीरामजी का राज्याभिषेक करेंगे यह सोचकर मैंने हर्ष के साथ वहां से यात्रा आरंभ की थी।”
कैकयराज के वचन की बात यहां भी मिथ्या सिद्ध हुई।
यदि आप मंथरा की बात का प्रमाण मानते हैं तो क्या मंथरा द्वारा श्रीराम का गुणगान मानेंगे?-
“प्रत्यासन्नक्रमेणापि भरतस्तैव भामिनि ।
राज्यक्रमो विप्रकृष्टस्तयोस्तावत्कनीयसोः ॥२-८-७॥
विदुषः क्षत्रचारित्रे प्राज्ञस्य प्राप्तकारिणः ।८।।
(अयोध्या कांड सर्ग ७।७-८)
” उत्पत्ति के क्रम से श्रीराम के बाद ही भरत का राज्यपर अधिकार हो सकता है।लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो छोटे भाई हैं।श्रीराम समस्त शात्रों के ज्ञाता,विशेषतः क्षत्रियचरित्र के पंडित हैं और समयोचित कर्तव्य का पालन करने वाले हैं।”
यहां मंथरा स्वयं स्वीकार कर रही है कि श्रीराम ही ज्येष्ठ होने से राज्याधिकारी हैं। यदि कोई कैकयराज वाली प्रतिज्ञा होती तो कैकेयी ऐसा न कहती ।साथ ही वो श्रीराम के गुणों का उल्लेख भी करती है।क्या पेरियार साहब मंथरा की इस बात से सहमत होंगे?
अतः राजा दशरथ ने भरत को ननिहाल भेजकर कोई छल नहीं किया। वे बूढ़े हो जाने से अपना राज्य श्रीराम को देना चाहते थे।
*आक्षेप ४* एक दिन पूर्व ही दशरथ ने अगले दिन रामराज्याभिषेक की झूठी घोषणा करवा दी।
*समीक्षा*:- या बेईमानी तेरा आसरा!क्या इसी का नाम ईमानदारी है।
*पता नहीं यों झूठ बोल कैसे रह जाते हैं जिंदा।*
*ऐसे छल पर तो स्वयं छलों का बाप भी होगा शर्मिंदा।।*
महाराज दशरथ ने एक दिन पूर्व ही अगले दिन रामराज्याभिषेक की घोषणा पूरी राजसभा एवं श्रेष्ठ मंत्रियों के समक्ष की थी।सारे नगरवासी हर्षोल्लास के साथ अलगे दिन रामराज्याभिषेक की प्रतीक्षा कर रहे थे।सुमंत्र तो इतने लालायित थे कि रातभर सोये नहीं।राजा दशरथ ने श्रीराम और मां सीता को भी कुशा पर सोने तथा उपवास रखने का उपदेश दिया था।इतना सब होने के बाद भी राज्याभिषेक की घोषणा झूठी कैसे हो गई?हां,कैकेयी ने दो वरदान मांगकर रामजी का वनवास और भरत का राज्याभिषेक वह भी उन सामग्रियों से,जो रामाभिषेक के लिये रखीं थी का वरदान मांगकर अवश्य ही घोषणा का कबाड़ा कर दिया वरना सारी अयोध्या श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारी कर चुकी थी।इसे झूठा कहना दिवालियापन है।बिना प्रमाण किये आक्षेप पर अधिक न लिखते हुये केवल एक प्रमाण देते हैं:-
इति प्रत्यर्च्य तान् राजा ब्राह्मणानिद मब्रवीत् ।
वसिष्ठं वामदेवं च तेषामेवोपशृण्वताम् ॥२-३-३॥
चैत्रः श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पितकाननः ।
यौवराज्याय रामस्य सर्वमेवोपकल्प्यताम् ॥२-३-४॥
यतस्त्वया प्रजाश्चेमाः स्वगुणैरनुरञ्जिताः ॥२-३-४०॥
तस्मात्त्वं पुष्ययोगेन यौवराज्यमवाप्नुहि ।४१।।
(अयोध्या कांड सर्ग ३ )
 “राजासभा में उपस्थित सभी सभासदों की प्रत्यर्चना करके(ज्ञात हो कि इसके पूर्व के सर्ग में राजा दशरथ राजसभा में श्रीराम के राज्याभिषेक की चर्चा करते हैं और सभी श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये खुशी खुशी हामी भर देते हैं,इस विषय को आगे विस्तृत करेंगे) राजा दशरथ वामदेव,वसिष्ठ आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों से बोले-“यह चैत्रमास अत्यंत श्रेष्ठ और पुण्यदायक है।इसमें वन-उपवन पुष्पित हो जाते हैं।अतः इसी मास में श्रीराम के राज्याभिषेक के लिये उपयुक्त है।
राजा दशरथ श्रीराम से कहते हैं-” हे राम!प्रजा तुम्हारे सारे गुणों के कारण तुमको राजा बनाना चाहती है।कल पुष्य नक्षत्र के समय तुम्हारा राज्याभिषेक होगा।”
इससे सिद्ध है कि अगले दिव राज्यतिलकोत्सव की घोषणा करना झूठ नहीं था।पूरी राजसभा,मंत्रियों और अयोध्यावासियों को इसका पता था और धूमधाम से राज्याभिषेक की तैयारी कर रही थी।
*आक्षेप ५* यद्यपि वसिष्ठ व अन्य गुरुजन भली भांति और स्पष्टतया जानते थे कि भरत राजगद्दी का उत्तराधिकारी है-तो भी चतुर,धूर्त व ठग लोग राम को गद्दी देने की मिथ्या हामी भर रहे थे।
*समीक्षा*:- वसिष्ठ आदि गुरुजन सत्यवादी,नीतिज्ञ एवं ज्ञानी थे।उनका चरित्र चित्रण हम पीछे कर चुके हैं।भरत राजगद्दी के अधिकारी नहीं थे और श्रीराम ज्येष्ठ पुत्र होने से सर्वथा राज्याधिकारी थे-यह बात महर्षि वसिष्ठ और सुमंत्र जानते थे।इसका प्रमाण बिंदु १ के उत्तर में दे चुके हैं।कोई भी मंत्री या ऋत्विक भरत के राज्याधिकारी होने की बात नहीं करता।सब यही कहते हैं कि श्रीराम ही राज्याधिकारी हैं।भरत को राजगद्दी वाले वचन का प्रक्षिप्त होना हम बिंदु १ में सिद्ध कर चुके हैं। वाह महाराज! धूर्त,ठग और जाने क्या क्या!बड़े मधुर शब्दों की अमृत वर्षा की है आपने।आपके दिये पुष्प हम आपकी ही झोली में डालते हैं।ऐसा प्रमाणहीन और निराधार बातें करते और गालियां देते आपको लज्जा नहीं आती!शोक है!
क्रमशः ।
पाठकगण! पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
यहां तक हम पांचवे आक्षेप तक समीक्षा कर चुके हैं।अगले लेख में आगे के ६-९ बिंदुओं का खंडन करेंगे।
नमस्ते।
मर्यादा पुरुषोत्तम सियावर श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
।।ओ३म्।।
*पेरियार रचित सच्ची रामायण की पोलखोल भाग-१४*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पेरियार साहब के खंडन के १४वें भाग में आपका स्वागत है।आगे दशरथ नामक लेख के ६वें बिंदु के आगे जवाब दिया जायेगा।
*आक्षेप-६* राम की मां कौसल्या भी अपने देवी-देवता को मनाया करती थी कि मेरे पुत्र राम को राजगद्दी मिले।
*समीक्षा*- हम चकित हैं कि पेरियार साहब कैसे बेहूदे आक्षेप लगा रहे हैं!श्रीराम की मां देवी कौसल्या काल्पनिक देवी देवताओं से नहीं,परमदेव परमेश्वर की पूजा करती थीं।वे परमदेव परमात्मा से प्रार्थना करती थीं कि श्रीराम राजा बने तो इसमें हर्ज क्या है?कोई भी मां अपने पुत्र का हित ही चाहेगी।केवल मां ही नहीं,अपितु महाराज दशरथ, समस्त प्रजा और राजा आदि सब चाहते थे कि श्रीराम राजा बनें।इसमें भला आक्षेप योग्य कौन सी बात है?आक्षेप तो तब होता जब देवी कौसल्या भरत के अहित के लिये परमात्मा से प्रार्थना करतीं।परंतु उनका चरित्र ऐसा न था।
*आक्षेप ७*- पुरोहितों और पंडितों को सूचना तथा उनके परामर्श के बिना और कैकेयी, भरत,शत्रुघ्न आदि को बिना आमंत्रित किये बिना दशरथ ने राजातिलक का शीघ्र प्रतिबंध कर दिया(अयोध्याकांड अध्याय १)
*समीक्षा*-हे परमेश्वर! ये झूठ-धोखा आखिर कब तक चलेगा?ये धूर्त मिथ्यीवादी कब तक तांडव करते रहेंगे!क्या इन पर तेरे न्याय का डंडा न चलेगा?अवश्य ही चलेगा और ये लोग भागते दिखेंगे।
यदि दशरथ जी ने किसी को आमंत्रित नहीं किया था तो क्या समारोह ऐसे ही आयोजित हो गया?आपने कभी वाल्मीकीय रामायण की सूरत भी देखी है? रामायण में अध्याय नहीं सर्गों का विभाग है। अयोध्या कांड के प्रथम सर्ग को ही पढ़ लेते तो ये आक्षेप न करते।
प्रथम सर्ग में पूरा वर्णन है कि किस तरह महाराज दशरथ ने समस्त मंत्रिमंडल और अनेक राजाओं को राजसभा में आमंत्रित करके श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा की।लीजिये,अवलोकन कीजिये:-
इत्येवं विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः ।
शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः ॥ ४१ ॥
तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैः गुणैः ।
निश्चित्य सचिवैः सार्धं यौवराज्यममन्यत ॥ ४२ ॥
इस प्रकार से विचार करके तथा अपने पुत्र श्रीराम इनके नाना प्रकारके विलक्षण, सज्जनोचित, असंख्य और लोकोत्तर गुणों से, जो अन्य राजाओं में दुर्लभ थे, विभूषित देखकर राजा दशरथा मंत्रियों के बराबर सलाह करके उनको युवराज बनाने का निश्चय किया ॥४१-४२॥
दिव्यन्तरिक्षे भूमौ च घोरमुत्पातजं भयम् ।
संचचक्षेऽथ मेधावी शरीरे चात्मनो जराम् ॥ ४३ ॥
बुद्धिमान महाराज दशरथने मंत्रियों को स्वर्ग, अंतरिक्ष तथा भूतल पर दृष्टिगोचर होनेवाले उत्पातोंके घोर भय सूचित किये और आपने शरीर में वृद्धावस्था के आगमन की बात बताई. ॥४३॥
पूर्णचन्द्राननस्याथ शोकापनुदमात्मनः ।
लोके रामस्य बुबुधे सम्प्रियत्वं महात्मनः ॥ ४४ ॥
पूर्ण चंद्रमा के समान मनोहर मुख वाले महात्मा श्रीराम समस्त प्रजा को  प्रिय थे। लोक में उनके सर्वप्रिय थे। राजाके आंतरिक शोक को दूर करनेवाले थे ये बातें राजाने अच्छे से जानी थीं॥४४॥
आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च ।
प्राप्तकालेन धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः ॥ ४५ ॥
तब उपयुक्त समय आनेपर धर्मात्मा राजा दशरथने अपने और प्रजाके कल्याण के लिये मंत्रियों को श्रीरामाके राज्याभिषेक के लिये शीघ्र तैयारी करने की आज्ञा दी। इस उतावलेपन के कारण उनके हृदय के प्रेम और प्रजाके अनुराग ही कारण था ॥४५॥
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि ।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः ॥ ४६ ॥
उन भूपालों ने भिन्न भिन्न नगरों में निवास करनेवाले प्रधान- प्रधान पुरूषों को  तथा अन्य जनपदों के सामंत राजाओं को  मंत्रियों के  द्वारा अयोध्या में  बुला लिया॥४६॥
(अयोध्या कांड सर्ग १)
इसके आगे महाराज दशरथ सबको संबोधित करते हैं और स्वयं राज्य त्यागकर श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा की:-
अनुजातो हि मां सर्वैर्गुणैः श्रेष्ठो ममात्मजः ।
पुरन्दरसमो वीर्ये रामः परपुरञ्जयः ॥ ११ ॥
मेरे पुत्र श्रीराम मुझसे भी  सर्व गुणों में श्रेष्ठ हैं।शत्रुओं के नगरों पर विजय प्राप्त करने वाले श्रीराम बल-पराक्रम में देवराज इंद्र समान हैं ॥११॥
तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम् ।
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुङ्‍गवम् ॥ १२ ॥
पुष्य- नक्षत्रसे युक्त चंद्रमाके समान समस्त कार्य साधनमें कुशल तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ उन पुरुषश्रेष्ठ रामको मैं कल प्रातःकाल पुष्य नक्षत्र में युवराजका पद पर नियुक्त करूंगा॥१२॥
(अयोध्या कांड सर्ग २)
*आक्षेप ८*- आगे अयोध्याकांड अध्याय १४ का संदर्भ देकर लिखा है कि दशरथ ने राम से गुप्त रुप से कहा था कि भारत के लौट आने के पहले राम का राज्याभिषेक हो जाए तो भारत शांतिपूर्वक इसे जो पहले हो चुका है स्वीकार कर लेगा इत्यादि।
*समीक्षा*- बेईमानी की हद कर दी! अयोध्या कांड सर्ग १४ में न तो श्रीराम से राजा दशरथ श्रीराम से आपके लिखी बात कहते हैं न उसमें भरत का जिक्र करते हैं।इस सर्ग में कैकेयी ,जो अपने वचन मान चुकी है,उन्हें मनवाने के लिये कटिबद्ध है।वो कई तरह के कटुवचन कहकर राजा दशरथ को संतप्त करती है।फिर सुमंत्र आकर राजा दशरथ को राम राज्याभिषेक की पूरी तैयार होने का समाचार देते हैं।यहां आपके कपोलकल्पित लेख का कोई निशान नहीं है।हां,यह ठीक है कि इसके पहले राजा दशरथ श्रीराम से कहते हैं कि “यद्यपि भरत धर्मात्मा और बड़े भाई का अनुगामी है,फिर भी मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता।इसलिये अपना राज्याभिषेक शीघ्रातिशीघ्र करा लो।”इसका स्पष्टीकरण पहले दे चुके हैं।
*आक्षेप ९*- कैकई ने हठ किया कि उसका पुत्र राजा बनाया जाए और इसकी सुरक्षा का विश्वास दिलाने के लिए राम को वनवास भेज दिया जाए- तो दशरथ उसे मनाने के लिए उसके पैरों पर गिर पड़ा और  उस से प्रार्थना करने लगा कि ” मैं तुम्हारी इच्छानुसार कोई भी तुच्छतम कार्य करने के लिए तैयार हूं- राम को वनवास भेजने का हठ न करो।(अयोध्याकांड सर्ग १२)
*समीक्षा*-  राजा दशरथ ने कैकेयी द्वारा देवासुर संग्राम में अपनी प्राणरक्षा के कारण उसे दो वरदान दिये थे।उसने दो वरदानों द्वारा भरत का राज्याभिषेक तथा श्रीराम का वनवास मांगा।कैकेयी ने समस्त प्रजा,मंत्रिमंडल की मंशा के विरूद्ध श्रीराम का वनवास और भरत का राज्याभिषेक मांगा,ये वरदानों का मूर्खतापूर्ण प्रयेग किया।राजा दशरथ अपने रामराज्याभिषेक की घोषणा के विरुद्ध वरदान देने को राजी नहीं हुये।राजा दशरथ ने कैकेयी को मनाने की बहुत कोशिश की,पर वो नहीं मानी।
अञ्जलिं कुर्मि कैकेयि पादौ चापि स्पृशामि ते ।
शरणं भव रामस्य माधर्मो मामिह स्पृशेत् ॥ ३६ ॥
कैकेयी ! मैं हाथ  जोड़ता हूं और तेरे पैर पड़ता हूं।तू राम को  शरण दे।जिसके कारण  मुझे पाप नहीं लगेगा॥३६॥(अयोध्या कांड सर्ग १२)
यहां राजा दशरथ ने अनुनय-विनय के लिये मुहावरे के रूप में कहा।जैसे कहा जाता है कि,”मैं तेरे हाथ जोड़ता हूं,पैर पड़ता हूं।”पर सत्य में कोई पैर नहीं पकड़ता।वैसा ही यहां समझें।और यदि राजा दशरथ ने कैकेयी के पैर सचमें पड़ भी लिये तो भी कौन सी महाप्रलय आ गई?राजा दशरथ उस समय राजा नही,एक पति थे।यदि वे अपनी पत्नी के पांव भी पड़ ले तो क्या बुरा है?भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी एक-दूसरे के आधे शरीर माने जाते हैं।यदि पति पत्नी के और पत्नी पति के पांव पड़ें तो आपके हर्ज क्या है? एक तो आप जैसे लोग महिला-उत्थान का,स्त्रियों के अधिकारों की बात करते हैं और राजा दशरथ का अपनी पत्नी के पांव पड़ना नामर्दी समझते हैं!हद है  दोगलेपन की!
पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।यहां तक हमने ९वें बिंदु तक का खंडन किया।आगे १०से १४वें आक्षेपों तक का खंडन किया जायेगा।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।

नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

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